लोकतंत्र का स्वरूप बदलने की जरूरत तो है पर अवसर नहीं

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वीरेन्द्र जैन

केन्द्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला का कहना है कि अब देश में नियंत्रित लोकतंत्र अपनाने का समय आ गया है। उनका कहना एक ओर तो समस्याओं की ओर उनकी चिंताओं को दर्शाता है किंतु दूसरी ओर ऐसा हल प्रस्तुत करता है जिसकी स्वीकार्यता बनाने के लिए एक तानाशाही शासन स्थापित करना होगा। स्मरणीय है कि लोकतंत्र का सुख भोग चुके समाज में अब यह सहज सम्भव नहीं है। श्रीमती इन्दिरागान्धी ने एमरजैंसी लगाने के बाद चुनाव हारा था और दुबारा चुन कर आने के बाद कहा था कि वे अब दुबारा कभी एमरजैंसी नहीं लगायेंगीं।

असल में हमारे देश में जो लोकतंत्र है, उसमें आदर्श घोषणाएं तो बहुत हैं पर व्यवहार में सक्षम द्वारा निर्बल का शोषण सम्भव है। कमजोर न्याय व्यवस्था के कारण सबल और शोषक द्वारा निर्बल के शोषण के खिलाफ दोषियों को दण्डित करना सम्भव नहीं हो पाता, भले ही इसके लिए हमने अच्छे अच्छे कानून बना रखे हैं। प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण विकास और सशक्तीकरण के कार्यक्रम सफल नहीं हो पाते। इसी भ्रष्टाचार से जनित ताकत का प्रभाव चुनावी व्यवस्था पर भी पड़ता है परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में शोषकों के प्रतिनिधि वहाँ बैठ जाते हैं और संसदीय सुधार द्वारा परिवर्तन को सम्भव नहीं होने देते। राष्ट्र के प्रति चिंतित प्रत्येक व्यक्ति के मन में इस दुष्चक्र को तोड़ने की चिंता स्वाभाविक है किंतु यह उन लोगों द्वारा सम्भव नहीं है किंतु जो स्वयं भी इस तंत्र की कमजोरियों से लाभान्वित हो रहे हैं।

लोकतंत्र से मिले मानव अधिकारों का सर्वाधिक उपयोग भी शोषकवर्ग कर रहा है और मानव अधिकार की ओट में सुरक्षा प्राप्त कर रहा है। न्याय व्यवस्था के छिद्रों के कारण अधिकांश सक्षम लोग दण्ड से बच जाते हैं और घटित अपराध की किसी को भी सजा न मिलने के कारण समाज में कानून के शासन के प्रति अविश्वास बढता जा रहा है, जिससे जंगली न्याय बढता जा रहा है। अदालत से अपने पक्ष में लम्बे समय के लिए स्टे [यथास्थिति] ले लेना और मुकदमों को लम्बा खींचना आम बात हो गयी है। झूठी गवाही से गलत फैसला होने और लालच के आधार पर गवाही से मुकर जाने वालों को जब दण्ड नहीं मिल पाता तो न्याय मजाक सा लगने लगता है। सक्षम लोग इसीलिए अपना फैसला अपनी लाठी से आप ही करने लगे हैं।

जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में पचास प्रतिशत से अधिक लोग मतदान ही नहीं करते हों और दिये गये मतों में असली नकली का प्रतिशत निकालना कठिन होता हो तो उस लोकतंत्र पर सन्देह होना स्वाभाविक है। लगातार किये गये विभिन्न चुनाव सुधारों के आते रहने से पता चलता है कि हम पिछले दिनों किस तरह के विकृत चुनावी तंत्र से स्थापित शासनों द्वारा शासित होते रहे हैं। राजनीतिक रूप से अशिक्षित मतदाताओं के डाले गये मत भी उस भावना का प्रतिनिधित्व नहीं करते जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की भावना होती है। वे मत तो दबाव से, लालच से, भटका के, साम्प्रदायिक, जातिवादी, क्षेत्रवादी, भाषावादी भावनाएं उभारकर भी डलवा लिये जाते हैं। अपने स्वार्थों के लिए सत्ता हथियाने के प्रयास करने वाले गलत तुष्टीकरण से लेकर गैरकानूनी काम करने वालों को मदद करने तक के हथकण्डे अपनाते हैं जिसके परिणाम स्वरूप अपराधी तत्व राजनेताओं पर दबाव बना कर रहते हैं। जो तंत्र स्वयं के बनाये कानून के खिलाफ काम करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं के दबाव में काम करने को विवश हो उसे कितना सफल कहा जा सकता है! जिन परम्पराओं, रूढियों, और अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए नेतृत्व को काम करना चाहिए था वही वोटों की लालच में उन्हें बढाने में लग गया है। एक तरह की साम्प्रदायिकता का विरोध करते हुए दूसरे तरह की साम्प्रदायिकता से आँखें मूंद ली जाती हैं जिससे साम्प्रदायिकता का उन्मूलन होने की जगह उनमें प्रतियोगिताएं बढ रही हैं।

पुलिस तो अपने विशेष अधिकारों और शक्तियों के कारण पहले ही से बदनाम थी पर नौकरशाही और सेना में भी जिस तरह के भ्रष्टाचार उजागर हुये हैं वे हतप्रभ कर देने वाले हैं। जिस मीडिया को लोकतंत्र के हित में वाचडाग की तरह काम करना चाहिए था, वह बिकाऊ बन चुका है जिसका मतलब है कि चौकीदार चोरों से कमीशन ले रहा है। वह चुनावी नेताओं की वैसी छवि बनाने का धन्धा करने लगा है जैसे वे नहीं हैं, किंतु वैसी बनावटी छवि से उन्हें चुनावी सफलता मिलना सम्भव हो सके।

कुल मिला कर कहा जा सकता है कि हम जिसे लोकतंत्र मान रहे हैं वह लोकतंत्र है ही नहीं। जरूरत इस बात की है कि लोकतंत्र जिस स्वरूप में होना चाहिए था और नहीं हो पा रहा है उसकी बाधाओं को दूर किया जाये व इसके लिए न्याय व्यवस्था में उचित संशोधन किया जाये। मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मुहम्मद के सुर मंा सुर मिलाते हुए केंद्रीयमंत्री फारुख अब्दुल्ला जिस मर्यादित लोकतंत्र की बात करने लगे हैं वह इस व्यवस्था में गैर कानूनी लोगों से ज्यादा उन लोगों को नियंत्रित करने लगेगी जो सच्चे लोकतांत्रिक हैं और सार्थक ढंग से असहमति व्यक्त करते हैं। फारुख अब्दुल्ला साहब ने यह नहीं बतलाया कि कथित मर्यादित लोकतंत्र की जिम्मेवारी जिन लोगों के कन्धों पर आयेगी वे किस आधार पर चुने गये होंगे। इसलिए पहली आवश्यकता है जनता को जागरूक बनाना और चुनावी प्रणाली मैं सुधार में सुधार किया जाना।

3 COMMENTS

  1. बहुत ही आला दर्जे का उम्दा लेख. वर्तमान लोकतंत्र पर रौशनी डालते हुए एक निष्पक्ष और ईमानदार कोशिश. वीरेंद्र जी को साधुवाद.

  2. लगता है इमरजेंसी का जिन्न बोतल से फिर बहार आ गया है. फारूख साहब फरमा रहे हैं की नियंत्रित लोकतंत्र आना चाहिए. कपिल सिबल कह रहे हैं की फेसबुक और इंटरनेट पर अंकुश होना चाहिए. उनके इशारे को समझकर आयकर विभाग ने भी गूगल को नोटिस थमा दिया है. रामदेवजी पर आधी रात को हमला और अहिंसक अन्ना की बेवजह गिरफ़्तारी तानाशाही और इमरजेंसी युग की याद ताज़ा करा रहे हैं. सभी बुद्धिजीवियों को पूरी ताकत से इसका विरोध करना चाहिए. वर्ना चुप रहने से इनके होसले और बुलंद होंगे और मौन को स्वीकृति समझने की गलती सताधीशों को हो सकती है.

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