विदेशी निवेश पर भारी पड़ा गठबंधन

प्रमोद भार्गव

अपने सहयोगी दलों को दरकिनार कर कांग्रेस द्वारा खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश का निर्णय भारी पड़ा। यूपीए-2 गठबंधन की वैशाखियों पर टिकी न होती तो देश एक अबूझ संकट से जुझने को मजबूर हो गया होता ?इस मसले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में संपन्न हुई बैठक में सहयोगी दल तृणमूल और द्रमूक की उपेक्षा तो की ही गई थी,कांग्रेस के भीतर भी सहमति बनाने की कोशिश नहीं की गई। यही नहीं संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट की भी अवहेलना की गई थी। इस बाबत् समिति ने देश के सभी राज्यों को सवाल भेजकर अपनी राय मांगी थी। 14 राज्य एफडीआई के एकदम खिलाफ थे। इनमें आठ कांग्रेस शासित राज्य हैं। विदेशी कंपनियों को मालिकाना हक देने के खिलाफ तो सभी राज्य थे। कांग्रेस का यह फैसला इकतरफा होने के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों और संसद की गरिमा को भी ठेंगा दिखाने वाला था। क्योंकि संसद का सत्र जारी रहने के बावजूद सदन के बाहर इस फैसले की घोषणा की गई थी। जाहिर है,यह निर्णय राष्ट्र और जनहित की बजाय योरोपीय देशों के हित में था। इसलिए इसे केवल टालने की दलीलों से संतुष्ट होने के बनिस्बत,सिरे से खारिज करने की जरूरत अभी बनी हुई है।

विदेशी पूंजी निवेश का निर्णय लेने से पहले कांग्रेस को यह सोचने की जरूरत थी कि देश का नेतृत्व वह सहयोगी दलों के साथ मिलकर कर रही है। लेकिन शायद मनमोहन सिंह यह समझ रहे थे कि इस मुद्दे को सहयोगी-दलों के बीच विचार-विमर्श के लिए ले गए तो दाल किसी भी हाल में गलने वाली नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस फैसले को बाला बाला मंजूर करा लेने की मजबूरी कोई भी रही हो,इसके बावजूद उन्हें ध्यान में रखने की जरूरत थी कि ऊंट की चेारी नोहरे-नोहरे नहीं होती। वह भी उस मुखर और तेज-तर्रार ममता बनर्जी को दरकिनार करके जिनकी जेब में 18 सांसद हैं और जो पेट्रोल के दाम बढ़ाए जाने के वक्त भी दरकिनार का दंश झेल चुकी थीं और उनके द्वारा फुँकार मारने पर कांग्रेस ने भरोसा जताया था कि फिर से ऐसी गलती नहीं दोहराई जाएगी। लेकिन गलती हुई और वह भी जान-बूझकर की गई। ठीक उसी तर्ज पर,जैसा कि यूपीए-1 के दौरान मनमोहन सिंह सरकार ने परमाणु करार के समय की थी। उसने गठबंधन के मौजूदा स्वरूप का नकारा और वामदलों के समर्थन वापसी तक की नाराजगी झेली। यह अलग बात है कि समाजवादी पार्टी के बाहरी समर्थन और अमर सिंह की नोट के बदले वोट की तिकड़म के चलते सरकार संसद में बहुमत खो देने की स्थिति से बच गई। लेकिन यहां उसकी यह नैतिक जवाबदेही थी कि जब संसद में वाममोर्चां के बूते सरकार बहुमत में है तो उन्हें विश्वास में लेकर किसी बड़े फैसले को अमल में लाए। गठबंधन के बुनियादी सिद्धांत और धर्म का तकाजा भी यही कहता है। लेकिन मनमोहन सिंह तो अमेरिकी दबाव में पश्चिमी देशों के हित साधने पर आमादा थे,इसलिए उन्होंने वही किया जो अमेरिका चाहता था। अपने सहयोगियों की इच्छा के विरूद्ध खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश के मुद्दे पर एक बार फिर उन्होंने परमाणु-करार के समय को दोहराने की कोशिश की। यहां गौरतलब है कि जब 18-18 सांसदों वाले तृणमूल और द्रमुक इस निवेश के बरखिलाफ हैं तो फैसले की संसदीय सहमति संविधान की किस संहिता के बूते बनने जा रही थी ?तय है मनमोहन सिंह और कांग्रेस ने जनादेश के स्वरूप की अनदेखी तो की ही,संसद की गरिमा को भी ठेंगा दिखाया।

हड़बडी में एफडीआई का यह फैसला मनमोहन सिंह और कांग्रेस की मंशा पर कई सवाल खड़े करता है। क्योंकि मनमोहन सिंह केंद्रीय मंत्रीमण्डल के इस फैसले को लेकर शुरूआती दौर में ठीक उसी तरह की हठवादिता दिखा रहे थे,जिस तरह से उन्होंने भारत-अमेरिकी परमाणु करार को अपनी प्रतिष्ठा का हिस्सा बना लिया था। इसीलिए विपक्ष के संसद में हो-हल्ले के दौरान उन्होंने चुनौती भी दे डाली थी कि वह चाहे तो अविश्वास प्रस्ताव ले आए,किंतु वे अपने फैसले से पीछे नहीं हटेंगे। परंतु उनके इस गुमान को उनकी ही सहयोगी ममता बनर्जी ने तोड़कर,बना-बनाया खेल बिगाड़ दिया। लेकिन ममता का यह सार्थक विरोध इसलिए उचित है,क्योंकि इससे करोड़ों लोगों की आजीविका के हित सधते हैं।

सच पूछा जाए तो खुदरा कारोबार सरकार के बिना किसी यहयोग के फल-फूल रहा है। सरकारी आंकड़ों को ही सही मानें तो इसमें 3.5करोड़ लोगों को प्रत्यक्ष और 1-५करोड़ लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिल रहा है। इस व्यापार का आर्थिक आधार 20 लाख करोड़ रूपए का है और सकल घेरलू उत्पाद में इसकी 14 प्रतिशत की भागीदारी है। व्यंजनों की परसी हुई यह एक ऐसी थाली है,जिसे पाने के लिए कोई भी संयमी व्रत तोड़ने को तैयार हो सकता है। इस परसी हुई थाली को वॉल्मार्ट जैसी कंपनियों को सौंपकर कांग्रेस उलटबांसी रचने जा रही थी,जो कालंतर में अपने ही देश की बड़ी आबादी के पेट पर लात मारने वाली साबित होती ?

आर्थिक सुधार के दूसरे चरण के पैरोकरों के इन कथनों में भी कोई सच्चाई नहीं है कि इस निवेश से नए रोजगार बढ़ेंगे और खाद्य सामग्री प्रदाय श्रृंखला मजबूत होगी। यदि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 66 वें रोजगार संबंधी आंकड़ों पर गौर करें तो बीते पांच सालों में 2 करोड़ 51 लाख लगे लगाए लोग रोजगार से बाहर हुए और 2 करोड़ 19 लाख लोग आर्थिक सुधारों व आधुनिक विकास के चलते आकस्मिक श्रमिक बन गए। यदि सरकार जनाक्रोश के दबाव में इस फैसले को न टालती तो इस फैसले के लागू होने के एक-दो साल के भीतर करोड़ों लोग बेरोजगार हो जाते। क्योंकि जिन-जिन देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खुदरा भण्डार खुले हैं,वहां-वहां इन्होंने 80 से 90 फीसदी तक का कारोबार हथिया कर करोड़ों लोगों को बेरोजगार किया है। जहां तक शीतालयों और पहुँच मार्गों की कड़ियां मजबूत करने की बात है तो प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत ज्यादातर बड़े ग्रामों तक सड़कें पहुँच चुकी हैं और इनका विस्तार लगातार जारी है। शीतालयों में विदेश पूंजी निवेश की इजाजत केंद्र सरकार 12 साल पहले दे चुकी है,किंतु इस दौरान देश के किसी हिस्से में शीतालयों की श्रृंखला वजूद में आई हो,ऐसा देखने में नहीं आया है। पूरे देश में शीतालयों की श्रृंखला तैयार करने के लिए महज 7,687 करोड़ रूपए की जरूरत है। जो केंद्र सरकार हरेक वित्त साल में लाखों करोड़ के उद्योगपतियों के कर्ज और कर माफ करती हो,उसे इतनी सी राशि का प्रावधान करने में क्या परेशानी है ?दरअसल हकीकत यह है कि मनमोहन सिंह की मंशा देशहित साधने की बजाए अमेरिकी हितों की दलाली करने में ज्यादा है, इसलिए वे अपनी मनीषा देशी संसाधनों और देश की समस्याएं कैसे दूर हों,इसमें लगाने की बजाए, यूरोपीय कंपनियों की भारत में पकड़ कैसे मजबूत हो इसकी चिंता में ज्यादा रहते हैं। जो प्रधानमंत्री बड़ी आबादी वाले देश में स्थानीय रोजगार नष्ट करने वाली नीतियां लाने में सत्ता दुरूपयोग करने में लगा हो, उसे भारत जैसे देश का प्रधानमंत्री रहने की जरूरत नहीं रह गई है।

4 COMMENTS

  1. एक अन्य बात भी मेरी समझ में नहीं आती है.जब दुनिया के सारे देश जिसमे अमेरिका और चीन भी शामिल हैं, सीधा यानि डाईरेक्ट विदेशी पूंजी निवेश का स्वागत करते हैं तो हमलोग उसके इतना विरुद्ध क्यों है?

  2. मैं कोई अर्थ शास्त्री नहीं हूँ,अतः मैं यह दावा तो नहीं कर सकता कि जो मुझे ठीक लग रहा है,वही ठीक है,पर मेरे विचार से इस इक्कीसवीं शताव्दी में भी हम उसी मानसिकता में जी रहे हैं जो सत्रह्वी शताव्दी में थी जब जहांगीर के शासन काल में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस देश में पग रखा था.हम यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है कि आज का भारत उस समय से बहुत आगे बढ़ चुका है और इसको किसी भी प्रतिस्प्रधा से घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है.ऐसे इस तरह की प्रतिस्प्रधा यदि वे लोग घबडा रहे हैं जो सड़े गले और अस्वस्थ्कारी माल उपभोक्ताओं के गले मढ़ कर अपना उल्लू सीधा कर रहें तो बात कुछ समझ में आती है पर जब सारा देश उस यथा स्थिति से बाहर नहीं आना चाहता है तो मुझे स्थिति भयावह लगती है.बहुतों को यह भी लगता है कि उदारी करण की नीति ,जो १९९१ में अपनाई गयी थी ,वह भी गलत थी.उन लोगों ने या तो उसके पहले का ज़माना देखा नहीं या वे लोग उसको भूल गएँ हैं.नरसिंहराव के प्रधान मंत्री बनाने के पहले की स्थिति याद कीजिये ,जब देश का सोना गिरवी रखा गया था.उसके पहले भी हालात ज्यादे अच्छे नहीं थे.साथ से सत्तर के दशक में तो यह स्थिति थी कि आप अच्छा भोजन भी करना चाहें तो उसके लिए आपको अच्छा गेंहूं या अच्छा चावल तक खुले बाजार में उपलब्ध नहीं था.कार की कौन कहे एक स्कूटर या मोटर साईकिल खरीदने के लिए भी या तो वर्षों प्रतीक्षा करनी पड़ती थी या काला बाजार का सहारा लेना पड़ता था.
    बात शायद ज्यादा लम्बी होती जा रही है अतः मैं फिर वहीं आता हूँ.याने खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश .विदेशी पूंजी निवेश करने वाला सामान तो यहीं से न खरीदेगा या वह अमेरिका या फ़्रांस से वह सामग्री लाएगा.किसानो को तो उससे कम मिलने से रहा ,जितना उनको आज मिलता है.हाँ एक हानि उनको भी होसकती है.जैसे आजकल वे पैसा खिलाकर सरकार के हाथों कुछ भी बेंच देते है,शायद उसपर लगाम लगे.मारे जायेंगे वे व्यापारी जो या तो अनाप सनाप मुनाफा कमा रहे हैं या हर तरह की मिलावट पर पनप रहे हैं.यह तो बात हुई कृषि य्त्पाद की.
    लोगों को यह भी भय सता रहा है की चीन में बने हए सामानों की बिक्री यहाँ होने लगेगी.उनसे मेरा एक ही प्रश्न है,क्या आज हमारे दूकानों पर चीन की बनी हुई चीजें कम हैं ?जब ये विदेशी कम्पनियाँ चीन का माल यहाँ ला कर बेच सकती है तो यहीं का औद्योगिक उत्पाद यही से खरीद कर यहाँ क्यों नहीं बेच सकती?
    यह अलग बात है कि हम जब मिलावटी और नकली चीजों के आदी हो चुके हैं तो शायद असली चीजों के आने से हमारे स्वाश्थ्य पर भी बुरा असर पड़े,क्योंकि गन्दगी में जीने वालों को सफाई कभी रास नहीं आता है.

  3. प्रमोद जी इस पूरे प्रकरण में एक अहम् सवाल उभरा है कि..
    सोनिया और मनमोहन की प्रतिबद्धता किसके प्रति है? अमेरिकी अर्थव्यवस्था और एम् एन सी के प्रति या भारत की जनता के प्रति.
    समझ में नहीं आता कि अपनी साख दांव पर लगाने की हद तक यह सरकार अमेरिकी गुलामी करने को बेताबी क्यों है.

  4. बहुत खूब. मज़ा आ गया. प्रमोद जी हार्दिक बधाई. संपादक पब्लिक ऑब्ज़र्वर नजीबाबाद

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here