-बीएन गोयल-
-श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष-
(अभी कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एआर दवे ने एक सम्बोधन में कहा, यदि वे तानाशाह होते तो बच्चों के लिए पहली कक्षा से गीता का पढ़ना-पढ़ानाअनिवार्य कर दे। इस वक्तव्य के पीछे श्री दवे की समाज और देश के कल्याण के प्रति आंतरिक पीड़ा झलकती है।गीता के नाम के साथ ही हमारे सामने कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में रथ में बैठे अर्जुन को गीता का सन्देश देते श्रीकृष्ण की छवि आ जाती है।)
श्रीकृष्ण भारतीय मानस के एक बहुआयामी, बहुरूपी, विलक्षण प्रतिभावान, कूटनीतिक, विराट स्वरूप, गोवर्धन धारी व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं । एक ऐसा व्यक्तित्व जिसे जितना जानने का प्रयास करो उतना ही उलझते जाओ। कितने रूप हैं श्री कृष्ण के । एक रूप है उनके के बाल्य काल का। वह श्री कृष्ण जो सूरदास का सखा है, रसखान का मित्र है, मीरा का गिरधर गोपाल है, अंडाल का सर्वस्व है, बिल्वमंगल का उपास्य है। माखन चुराते हुए, गायें चराते हुए, बांसुरी बजाते हुए, गोपियों के साथ रास रचाते हुए, वहीँ एक रूप आँखों के सामने आता है बालपन का। व्ही रूप पूतना वध का, अन्य राक्षसों के संहार का, गोवर्धन धारण का, गोकुल से मथुरा गमन का तथा कंस के वध का। इसी दौरान इस अनूठे बालक ने संदीपनी आश्रम में अध्ययन भी किया और उसी समय में सुदामा से मित्रता जुड़ गयी। यहीं पर सुदामा के साथ चना चबाने की घटना घटी थी।
प्रायः देखा गया है की हमने श्री कृष्ण के चरित्र वर्णन के साथ आवश्यकता से अधिक स्वतंत्रता ली है। मक्खन चुराना,रास रचाना, खेल कूद करना आदि क्रियाओं को हम बाल लीला के रूप में ले सकते हैं। लेकिन उन लोगों को क्या कहें जो श्रीकृष्ण को एक भोग विलासी अथवा चोर शिरोमणि कह कर पुकारते हैं। ये लोग आज तक उनकी पत्नी के बारे में मतैक्य नहीं बना सके। कोई उनकी १०८ पत्नियां कहता है तो कोई १००८, कोई कोई तो सोलह हज़ार कहता है। क्या यह संभव है ? वास्तविकता यह है कि ऐसे अलौकिक पुरुषों के साथ कुछ असंभव को संभव करने वाली बातें प्रतीक रूप में जुड़ जाती हैं। कुछ किंवदंतियां बन जाती हैं। बंकिम चन्द्र चटर्जी ने लिखा है कि श्रीकृष्ण के रुक्मिणी के सिवाय कोई और पत्नी थी ही नहीं। जैसा कि ऊपर चर्चा की है – मथुरा के कारागार में जन्म लेकर, गोकुल की गलियों में खेल कूद कर, पूतना आदि राक्षसों को मार कर, बारह वर्ष की अवस्था में कंस को मारने के लिए मथुरा पहुँच जाते हैं। इसी बीच संदीपनी आश्रम में अध्ययन भी किया। प्रौढ़ावस्था में द्वारकाधीश बने।
यही समय था एक दुसरे संघर्ष का जब महाभारत शुरू होता है। गोकुल – मथुरा से कोसों दूर देश के पश्चिम छोर पर स्थित द्वारकापुरी के नरेश हैं लेकिन उन के जीवन में विश्राम नहीं है। महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण पांडव का पक्ष लेते हैं और अर्जुन के सारथि बनते हैं। इसी सन्दर्भ में वे यादव वंश के विनाश के गांधारी के श्राप को हंस कर स्वीकार करते हैं क्योंकि उनके सामने मात्र यादव वंश नहीं पूरा भारतीय समाज है।
यहां उनके दो विरोधाभास रूप सामने आते हैं एक पांडव के सहनशील,विनयशील , धैर्यवान, संयमी, सहिष्णु, निस्पृही दूत का और दूसरा एक महामानव, विराट पुरुष, एक निर्भीक नीतिनिपुण का। यही श्रीकृष्ण, भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य आदि के विरोधी पक्ष के होने के बाद भी, एक बुज़ुर्ग होने के नाते उन का पूरा सन्मान करते हैं, उद्दंड शिशुपाल के दुर्व्यवहार को हँसते हँसते सहते हैं, उसे चेतावनी देकर अंत में उस का वध करते हैं, संकेत से जरासंध के वध का उपाय बताते हैं। यह भी श्रीकृष्ण ही हैं ।यहाँ उन के व्यक्तित्व में राजनीति और कूटनीति दोनों ही झलकती है।
महाभारत का युद्ध कोई छोटा मोटा युद्ध नहीं था। अठारह दिन के इस युद्ध ने देश के भविष्य की नींव रखी, देश को एक दिशा दी। देश की सोच और मानसिकता को नए आयाम दिए । इसी युद्ध की सबसे देन है श्रीमद्भागवत गीता। युद्ध में अर्जुन के सारथी बनने के पीछे भी एक उद्देश्य था। अर्जुन एक अंतरंग मित्र है, सखा है। वह युद्ध भूमि में अपने सगे सम्बन्धियों को देख कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है, परेशान होता है, मोह से ग्रस्त है। यहाँ श्रीकृष्ण उस के पथ प्रदर्शक बन कर उसे गीता का उपदेश देकर उस का मोह दूर करने का प्रयत्न करते हैं। यह सन्देश श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से पूरे देश को या भारतीय समाज को ही नहीं वरन पूरी मानव जाति को दिया।
कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। …. तेरा काम अपना कर्म करना है – फल की इच्छा करना नहीं। आश्वासन देते हुए कहते हैं –
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। …. जब जब धरती पर पाप बढ़ेगा, जब जब लोग अधर्म के रास्ते पर चलेंगे, तब तब भगवान किसी न किसी रूप में अवतार लेंगे।
गीता के १७ अध्याय तक भगवान अर्जुन का संशय दूर करने का प्रयत्न करते हैं। ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग के तर्क वितर्क से उसे समझाने का प्रयास करते हैं। लेकिन अर्जुन की द्विविधा बनी रहती है।
अंत में अठारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं –
सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज।
अहम त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः (१८/६६)
सभी धर्मों अर्थात अपने मन की सभी आशंकाओं, संशयों और उलझनों को छोड़ कर, अपने मन से निकाल कर, शुद्ध भाव से मेरी शरण में आजा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा। यहाँ धर्म शब्द का अर्थ किसी संप्रदाय अथवा पंथ से नहीं है, किसी ज्ञान विज्ञान की शाखा से नहीं है । इस का अर्थ मन की उलझनों से है। यहां भगवान अपने सर्व शक्तिमान रूप की चर्चा करते हैं और उसे पूर्ण आश्वासन देते हैं । प्रश्न है मेरी शरण से क्या अभिप्राय है। इस की चर्चा वे पहले नवें अध्याय में कर चुके हैं –
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी माँ नमस्कुरु,
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।। (९/३४)
मुझ में मनवाला बन, मेरे मनवाला हो जा, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला बन, मुझ को प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मा को मुझ में नियुक्त कर के मेरे परायण हो कर तू मुझ को ही प्राप्त होगा।
श्री कृष्ण के वास्तविक रूप के दर्शन गीता के इस अंतिम श्लोक में होते हैं, जब संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं –
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।१८/७८
हे राजन – जहाँ अर्जुन का संरक्षण करने वाले, उन को सम्मति देने वाले सम्पूर्ण योगों के महान ईश्वर, महान बलशाली, महान ऐश्वर्यवान, महान विद्यावान, महान चतुर, भगवान श्री कृष्ण हैं और जहाँ भगवान की आज्ञा का पालन करने वाले , भगवान के प्रिय सखा तथा भक्त गांडीव धनुर्धारी, अर्जुन हैं, उसी पक्ष में विजय, विभूति, और अचल नीति – ये सभी हैं और मेरी सम्मति भी उधर ही है। ‘
‘साधक संजीवनी’