आत्माराम यादव पीव
पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेट उच्यते। चतुस्थले च पतनात् सुधाकुम्मस्य भूतले ।। विष्णुद्वारे तीर्थराजेऽपन्त्यां गोदावरी तटे। सुधाबिन्दुविनिक्षेपात् कुम्मपर्वेति विश्रुतम्।।” अर्थात अमृतकुम्भ के छलकने पर पृथ्वीतल में चार स्थानों-हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन तथा गोदावरी तट अर्थात् नासिक में अमृतकण गिरने से कुंभपर्व शुरू हुआ। दूसरे श्लीक में प्रयाग में होने वाले कुम्भपर्व की ग्रहस्थिति और महिमा के बारे में उद्धृत किया हैं- मकरे च दिवाकरे यूपगे च बृहस्पती कुम्मयोगो मवेत् तत्र प्रयागे हातिदुर्लभः। अर्थात् सूर्य के मकर राशि में और वृहस्पति के वृष राशि में होने पर प्रयाग में कुम्भयोग होता है किन्तु यह स्पष्ट नही हो सका की कुम्भ मेले की उत्पत्ति कब ओर कैसे हुई यह शोध का विषय है किन्तु वेदाचार्य पंडित वेणीराम शर्मा दारा लिखित कुम्भ महात्म्य प्रकाशन वर्ष 1947 में वैदिक मंत्रो द्वारा कुम्भ की महिमा का स्नान दान आदि समय स्मरण किए जाने वाले मंत्रों तथा चार स्थान पर कुम्भ स्नान का उल्लेख मिलता है जो पर्याप्त प्रामाणिक जानकारी का ज्ञान नही करा पाता। यह कुम्भ पर्व कब और कैसे शुरू हुआ? कैसे यह शुद्ध धार्मिक स्नानपर्व ओर सामाजिक जनजागृति का महापर्व हो गया जिसमें सनातन साधु संतों की जमात के साथ आर्थिक पहलू जुड़ने से यह मेला बन गया, ज्ञात नही हो सका? कब यह वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ? कुम्भ प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन ओर नासिक में लगता है पर कुम्भ नामकरण का क्या आधार है? अर्द्धकुम्म क्या है? और यह प्रयाग तथा हरिद्वार में ही क्यों होता है? इत्यादि प्रश्नों के समाधान हेतु कोई निश्चायतमक प्रमाण नहीं मिलता।
जिस श्लोक से मैंने लिखना शुरू किया वह पृथिव्या कुम्भयोगस्य इत्यादि श्लोक को गीताप्रेस ने अपनी महाकुम्म पर्व नामक पुस्तिका में स्कन्दपुराण से उद्धृत बताया है. लेकिन जब मैंने स्वयं देखा तो गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित स्कन्दपुराण के संस्करणों में ये श्लोक नहीं पाया गया। इससे कुम्भपर्व की उत्पत्ति के विषय में समुदमन्धन में अमृतकलश निकाने, इन्द्रपुत्र जयन्त द्वारा उसे लेकर भागने और इस दौरान भूलोक में चार जगहों प्रयाग, हरिद्वार, नासिक तथा उज्जैन में अमृत छलककर गिरने की कथा भी किसी प्राचीन अथवा मध्यकालिक ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होती। यत्रापि उसे पुराण से जोड़ने की कोशिश की जाती है. किन्तु यह किसी भी पुराण में उपलब्ध नहीं होती। कि बहुना, यह कथा पुराणों में उपलब्ध कथा के सर्वथा विपरीत है. चूंकि विषयवस्तु पर जो कथा पुराणों में प्राप्त है वह है- समुद्रमन्धन में धन्वन्तरि एक कमण्डल में अमृत लेकर निकलते है और फिर मोहिनी वेषधारी भगवान विष्णु उस अमृत को देवताओं को पिलाते हैं। इसी क्रम में असुर राहु मी अमृत पी लेता है और सूर्य तथा चन्द्र की शिकायत पर भगवान् विष्णु सुदर्शन चक्र से राहु का सिर काट देते हैं। उसके बाद देवताओं और असुरों में भयंकर युद्ध छिड़ जाता है, जिसमें। अन्ततः देवता विजयी होते है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के दौरान अमृतकमण्डल कमण्डल मोहिनी वेषधारी भगवान विष्णु के पास ही रहता है। पुराण कथा का यह कमण्डल किस प्रकार कलश अथवा कुम्भ में परिवर्तित हो गया, और इन्द्रपुत्र जयन्त को वहाँ पहुँच कर कब इसे छीनने का अवसर मिला इस सम्बन्ध में परम्परागत मत के समर्थक विद्वान कुछ प्रकाश नहीं डालते।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण में कुम्भ का उल्लेख किया है कि – को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥ अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥ अर्थात पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी ने भी सुख पाया॥ रामायण में यह वर्णन भगवान राम के वनवास काल का है जिसमें कुम्भ का उल्लेख नहीं है लेकिन इस बात कि स्वीकारोक्ति है कि भारतवर्ष के धार्मिक स्थलों में प्रयाग का स्थान सर्वोपरि है। जहाँ अन्य तीर्थस्थल किसी एक नदी के तट पर स्थित है. यह तीन नदियों के पवित्र संगम पर स्थित है। हिन्दुओं द्वारा लिखित ग्रन्थों, तुलसीदासकृत रामचरितमानस (18वीं सदी), सुजानराय रचित खुलासात-अल्-तवारीख (1695 ई.). राय चतरमन कायस्थ रचित चहार गुलशन (1759 ई). बहादुरसिंह भटनागर कृत यादगारे-बहादुरी (1833 ई). भोलानाथ चन्दर की ‘ट्रेवेल्स ऑफ ए हिन्दू (1889 ई.). में भी प्रयाग के माघस्नान या वार्षिक मेले का विवरण तो मिलता है, किन्तु कुम्म अथवा छड या बारह वर्ष पर होने वाले पर्व का कोई संकेत नहीं मिलता। जबकि हिन्दू संस्कृति से भलीभांति परिचित होने के कारण वे लेखक, यदि ऐसा मेला उनके समय में प्रचलित होता तो, उसका उल्लेख जरूर करते। काशी, मथुरा, अयोध्या, उज्जैन इत्यादि अन्य नगरियों में किसी एक देवविशेष की उपस्थिति मानी जाती है, जबकि प्रयाग में सभी देवताओं का सामान्य निवास माना गया है। स्नान, दान, वप्न तो किसी भी तीर्थ में हो सकता है, किन्तु कल्पवास का विधान तो सिर्फ यहीं के लिए है। विभिन्न तीर्थों में मनुष्य अपने पाप धोने के लिए जाया करते हैं, लेकिन समस्त तीर्थ अपनी-अपनी शुद्धि के लिए प्रयाग में ही आते हैं। इन्हीं विशिष्टताओं के दृष्टिगत पुराणादि ग्रन्थों में प्रयाग को तीर्थराज की पदवी से विभूषित किया गया है।
. वर्तमान समय में प्रयागकुम्भ मेले में 50 करोड़ लोग स्नान कर चुके है जिसकी प्रसिद्धि समूचे विश्व में है ओर दुनियाभर के लाखों विदशी भी कुम्भ स्नान को आ रहे है। कुम्भ मेले को लेकर कहा जाता है कि कुम्म मेला प्रयाग के अलावा हरिद्वार, उज्जैन तथा नासिक में भी होता है, लेकिन स्नानार्थियों की सर्वाधिक भीड़ प्रयाग में ही होती है, जो इसकी महत्ता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। विश्वभर में किसी एक अवसर पर लोगों की सबसे विशाल भीड़ इकट्ठा होने का कीर्तिमान प्रयाग के कुम्भवर्ष में इस वर्ष देखने को मिला जिसमें 50 करोड़ का आंकड़ा पार करना आश्चर्यजनक है ओर दुनिया इससे अचंभित है। इसके पूर्व बीसपी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, विशेषतः 1954 ई. के इलाहाबाद के कुम्भ मेले में हुई दुर्घटना के पत्चात देश-पिटेश के विद्वानों ने कुम्भपर्व की ऐतिहासिकता निर्धारित करने की ओर बड़ी रुचि दिखायी किन्तु इसपर हम ध्यान नहीं दे पाये परिणाम स्वरूप इस बार कुम्भ मेले में भगदड़ से 50के लगभग तथा दिल्ली स्टेशन से कुम्भ आने वाले 20 यात्रियो कि गिरकर दबने से मौत सहित कुछ दर्जन भर स्थानो पर दुर्घटनाओं कि खबर आ चुकी है।
धर्म सदा से ही श्रद्धा का विषय रहा है, जिसमें तर्क की कार्ड गुंजाइश नहीं होती। अतः कुम्भ जेसी धार्मिक परम्परा की प्राचीनता भी सर्वस्वीकार्य थी। उसके समर्थन में कोई तर्क देने अथवा साक्ष्य जुटाने की न तो कोई कोशिश कभी की गयी और न ही इसकी आवश्यकता समझी गयी। हालांकि मीडिया कि खबरों में देश-विदेश के अनेक विद्वानों का ध्यान कुम्भपर्व की ऐतिहासिकता की ओर आकर्षित हुआ है जिसमें मुख्यतः दो प्रकार के दृष्टिकोण सामने आए ओर मीडिया ने इसे श्रद्धामूलक परम्परागत दृष्टिकोण के अलावा समुद्रमन्धन से प्राप्त अमृत कलश को धन्वन्तरि से छीनकर इन्द्रपुत्र जयन्त द्वारा आकाश-मार्ग से ले जाते समय अमृत की बूँदें छलक कर, पृथ्वी में चार स्थानों पर गिरकर, यहाँ की जलधारा में मिल गयीं। उस अमृत-जल सम्मिश्रण से तत्तत् स्थानों पर उन नदियों की जलधारा की पवित्रता, अघमर्षणता और त्रिविधतापनिवारण क्षमता में अदभुत चमत्कार आना स्वाभाविक चमत्कार से फलित ऐहिक आमुष्मिक कल्याण प्राप्त करने की उत्कट लालसा में, जिस विशिष्ट खगोलीय स्थिति / यह योग में कुम्भस्थ अमृत छलक कर जलधारा से मिला था. उसी विशिष्ट ग्रहयोग के समुपस्थित होने पर. तदतद् स्थान पर कुम्भयोग मानकर स्नान-दान आदि परम्परा पर ही चर्चा चल रही है जिसके समर्थन में वेद-पुराण आदि पुरातन ग्रन्थों के अनेक उद्धरण प्रस्तुत किए जा रहे है, देखे प्रमुख उद्धरण –*जधान पूत्र स्वधितिर्वनेव सरोज पुरो अरदन्न सिन्धून् । विनंट गिरि नवमिन्त कुम्भमा गा उन्द्रों अकृणुत स्ययुग्मिः ।।पूर्णः कुम्भावि काल आहितस्तं वे पश्यामी बहुधा न सन्तः । स उमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्काल तमाहुः परम व्यामन।। (ब) कुम्मो वनिष्टुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्ने योन्यां गर्मो अन्तः। प्लाशिव्र्व्यक्तः शतधार उत्सो दुठे न कुम्भी स्वधां पितृभ्यः ।।’
कुम्भ मेले के प्रवर्तक के रूप में जो नाम सामने आया है वह है जगतगुरु आदि शंकराचार्य का जिन्होने अपने जीवनकाल 788 ई से 820 ई मे सनातन धर्म के बौद्ध धर्म ओर मुगलों के आक्रमण से बचाने केलिए सर्वप्रथम चार मठों की स्थापना कर साथ-साथ चार स्थानों पर दशनामी संन्यासियों के अखाड़ों की नींव डाली और उन्हें चार पवित्र धार्मिक स्थलों प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन तथा नासिक, जहाँ पहले से ही मिन्न-भिन्न मुहूर्तों में स्नानदान करने की पुराणप्रोक्त परम्परा थी, पर अनुयायियों समेत विशिष्ट अवसरों पर प्रवास कर स्नानादि करने की अनुज्ञा दी। अखाड़ों द्वारा यह नियतावधिक प्रवास तथा स्नानादि का पर्व ही परवर्ती काल में कुम्भपर्व के रूप में प्रसिद्ध पा चुका था। कुछ का मत है कि प्रयाग का प्राचीन मेला बौद्धकाल में महादानपर्व के रूप में आयोजित होता था. जिसे शंकराचार्य ने व्यवस्थित कर वर्तमान कुम्मपर्व के रूप में परिवर्तित कर दिया। उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने उनके निर्देशानुसार, जनसाधारण से सम्पर्क करने तथा उन्हें धर्माचरण के नियमों से अवगत कराने के लिए प्रत्येक बारहवें वर्ष कुम्भपर्व में दशनामी संन्यासियों का भाग लेना आवश्यक कर दिया। कुम्भपर्व प्रारम्भ करने का श्रेय आदि शंकराचार्य के अलावा अथवा मधुसूदन सरस्वती को देते हैं। मधुसूदन सरस्वती (1525-1642 ई.) ने मुगल शासकों द्वारा हिन्दू प्रजा पर अत्याचार और हिन्दू देवालयों को तोडने से खिन्न होकर संन्यासियों को शास्त्र के साथ शस्त्र की शिक्षा दिलवाकर सर्वप्रथम ‘अखाड़ों के रूप में संगठित किया था। जहाँ ये अपनी छावनी बनाकर अस्थायी रूप से रहते थे। उस समय इनके लिए एक (तीर्थ) स्थान से दूसरे (तीर्थ) स्थान के लिए आने-जाने में बहुत समय लग जाता था. अतः धीरे-धीरे, इनकी छावनी प्रत्येक स्थल में एक नियमित अन्तराल में ही दुबारा आ पाती थी। अखाड़ों की छावनी लगना और कुम्भपर्व एक दूसरे के पर्याय है।
आत्माराम यादव पीव