महत्वपूर्ण लेख

 शब्दों में छिपा हमारा सांस्कृतिक इतिहास

डॉ. मधुसूदन
(एक) शब्दों में इतिहास की खोज:

सोचा न था, ऐसा छिपा हुआ सांस्कृतिक इतिहास इन शब्दों के पीछे होगा. जिसे पाकर मैं स्वयं हर्षित ही नहीं चकित भी हूँ; और धन्यता अनुभव कर रहा हूँ. इतिहास उजागर करने के लिए जैसे भूमि का खनन कर अवशेष ढूँढे जाते हैं. और उन अवशेषों के सहारे फिर इतिहास का शोध वा अनुसंधान किया जाता है. कुछ उसी प्रकार, शब्दों के अर्थों को खोज कर सांस्कृतिक इतिहास को उजागर करने का यह प्रयास है. क्यों न हम कुछ शब्दों को चुनकर उनके अर्थों को खोज कर देखें?

(दो) शिक्षा, और गुरुकुल से जुडे शब्द: 

इस आलेख में गुरुकुल से संबंधित शब्दों का चयन किया है. एक चर्चा के अंतर्गत चर्चे गए प्रश्नो के संदर्भ में आलेख का गठन किया है. जिस चर्चा में गुरुकुल से जुडे शब्दों पर ऊहापोह हुआ था. अतः इस आलेख में विद्यार्थी, छात्र, गुरु, गुरुकुल, आचार्य, ग्रंथ, ग्रंथि, पत्र, भूर्जपत्र, ताडपत्र, हस्तलिपि, पाण्डुलिपि, इत्यादि शब्दों का अर्थ खनन करते हैं

(१) छात्र:

शब्द की व्युत्पत्ति (जड) छत्र शब्द में मानी जाती है. पतंजलि ने इसकी व्याख्या करते हुए बताया है कि गुरु छत्र है, क्योंकि वह शिष्य को पितृवत आच्छादित करता है और छत्र के समान उष्णादिवत्‌ अज्ञान को दूर करता है. यह *छात्र* शब्द हमारी विशुद्ध गौरवशाली गुरुकुल परम्परा का अवशेष है. आज सामान्य विद्यार्थी को भी छात्र कहा जाता है.

वास्तव में, गुरुकुल की छत और वहाँ गुरु की छत्र-छाया में रहनेवाला शिक्षार्थी ही छात्र कहलाया जाता था. आज इस शब्द का प्रयोग स्थूल अर्थ में सामान्य विद्यार्थी के लिए किया जाता है. पर आज भी शब्द का वास्तविक अर्थ व्युत्पत्ति के आधार पर लगा सकते हैं.

यदि हमारे शब्द ऐसे व्युत्पत्ति-द्योतक ना होते तो यह अर्थ हम पुनरुज्जीवित नहीं कर पाते. यह व्युत्पत्ति का गुणविशेष हमारे शब्दों में जैसा है; किसी और भाषा में आपको नहीं मिलेगा. आज के इस उन्नत युग में भी यह शब्द हमारी सांस्कृतिक गरिमा का प्रमाण दे रहा है.

आज का बालक पहले दिन शाला जाते समय भी रोता है; तो सोचिए, उस युगमें नन्हा शिशु अपने माता पिता को छोडकर प्रदीर्घ कालावधि के लिए गुरुकुल कैसे चला जाता होगा? उसकी मानसिकता की तनिक कल्पना करें. ऐसी कर्तव्य परायणता का और समर्पण का इससे बडा दृष्टान्त आप को किसी और संस्कृति के इतिहास में इस संसार में नहीं मिलेगा. और ऐसा बालक गुरुकुल जाकर वर्षों तक गुरु की छत्र-छाया में शिक्षा के लिए, रहा करता था.
गुरु भी निःस्वार्थ, समर्पित, और पवित्र-कर्तव्य भाव से अध्यापन करता. उच-नीच का भेदभाव नहीं था.

कृष्ण के साथ सुदामा भी रहता. कृष्ण और सुदामा से अलग अलग व्यवहार नहीं होता. सुदामा को ईंधन की लकडियाँ लाने या काँटोभरी कुश उखाडने का काम, और कृष्ण को विश्राम ऐसा भेद भाव नहीं था.

(२) विद्यार्थी: 

विद्यार्थी शब्द भी अपना सांस्कृतिक अर्थ लेकर चलता है. विद्यार्थी किसको कहते हैं? जिसका अर्थ, अर्थात हेतु विद्या है, उसे कहते है विद्यार्थी. जिसको शुद्ध ज्ञान पाना है, वह है विद्यार्थी. ऐसा विद्यार्थी रहता है, माता-पिता के साथ.

पर आज विद्यार्थी भी अर्थार्थी हो चुका है. विद्यार्थी दशा में ही उसका सारा ध्यान है अर्थ अर्थात पैसों पर. हमारी शिक्षा प्रणाली ही दूषित हो चुकी है. छात्र तो है ही नहीं; न कोई विद्यार्थी भी है. मात्र बचा है; प्रमाण-पत्र चाहनेवाला प्रमाणपत्रार्थी. और प्रमाण पत्रों से ही धनार्जन होता है इस लिए धनार्थी या वित्तार्थी. फिर जैसे तैसे धन की प्राप्ति करने से, भ्रष्टाचार पनपा है. और देश घोटालों में उलझ कर भगीरथ प्रयास से भी देश को उठाना कठिन होता जा रहा है.
(३) आचार्य: 

आचार्य शब्द की व्युत्पत्ति आचार से जुडी है. जो अपने स्वयं के आदर्श आचार-व्यवहार से शिक्षा दे वह था आचार्य. और छात्र आचार्य का अनुकरण करते. और आचार्य का आदर्श व्यवहार छात्रों पर अनायास संस्कार करता. और ऐसा प्रकृष्ट आचरण करनेवाला कहा जाएगा प्राचार्य. आज न आचार्य है, न प्राचार्य है, ऐसा पतन हो चुका है, केवल बचे हैं भ्रष्टाचार्य!
(४) गुरु और गुरुकुल
गुरु में व्युत्पत्ति-दर्शी गुरुता, गौर और गरिमा होनी चाहिए. गुरु का व्यवहार भी निष्कलंक और आदर्श होना चाहिए. ऐसे गुरु के गुरुकुल या आश्रम को समाज अपने पवित्र कर्तव्य भाव से दक्षिणा द्वारा आश्रम चलाता था. सारा समाज यथा-शक्ति गुरुदक्षिणा अर्पण करता; और गुरुकुल का योगक्षेम सम्पादित होता. मॅक्समूलर भी हमारी इस परम्परा की सराहना करता है; जो वास्तविक हमारे मतान्तरण का उद्देश्य रखता था. उसने गुरुकुल परम्परा की सराहना निम्न शब्दों में की थी.
गुरु के लिए Max Mueller: क्या कहता है?

*These Gurus were socially and intellectually a class of high standing. They were a recognized and, no doubt a most essential element in the ancient society of India. As they lived for others, and were excluded from most lucrative pursuits of life, it was a social and a religious duty that they should be supported by the community at large.*

भावानुवाद:

गुरु समाजमें ऊंचा आदर पाते थे, और बुद्धिमान माने जाते थे. वे प्राचीन भारतीय समाज के आवश्यक अंग थे. क्योंकि वे दूसरों के लिए त्यागमय जीवन व्यतीत करते थे, उनके लिए धनार्जन वर्ज्य था. अतः इन गुरुओं का योग-क्षेम शेष समाज का दायित्व था

(५) ग्रन्थि और ग्रंथ: 

ग्रंथि:

का सीधा अर्थ गाँठ होता है. फिर पैसों की थैली, जिस के मुंह पर गांठ मारकर रखी जाती थी; उसे भी गांठ कहा जाने लगा. धोती पहने कमर पर गांठ में धन या मुद्रा रखी जाती. उसको भी कालान्तर में गांठ कहा जाने लगा.शरीर की भी विभिन्न Glands ग्रंथियाँ मानी जाती हैं. फिर मानसिक हीनता या गुरुता ग्रंथियाँ भी होती हैं. इसी ग्रंथि से जुडा ग्रंथ शब्द है. उस शब्द की जड भी ग्रंथि ही है.
ग्रंथ:

किसी हस्त लिखित भूर्ज पत्रों वा ताडपत्रों पर लिखित पाण्डु लिपि के संग्रह के खुले छोर पर गठ्ठन से बाँध दिया जाता है, तो उस को भी ग्रंथि (गांठ) से बँधा, इस लिए ग्रंथ कहा जाने लगा. ऐसा इतिहास भी ग्रंथ शब्द के पीछे छिपा है.

शब्दविस्तार:

इस ग्रंथ शब्दका भी भाषा में विस्तार हुआ और ग्रंथ, ग्रंथी, गुरुग्रंथ, ग्रंथसाहब, ग्रंथालय, ग्रन्थी. ग्रंथागार, ऐसे अनगिनत शब्द विकसित हुए. ऐसे सभी जुडे हुए शब्दों का विस्तार और उनके अर्थ हमें एक साथ प्राप्त होते हैं. इस विधा के भी अनगिनत उदाहरण हैं जो एक स्वतंत्र आलेख का विषय है. अस्तु.

आलेख को सीमित रख कर इस शब्द विस्तार को विराम देना उचित मानता हूँ.
(६) पत्र:

शब्द का मौलिक अर्थ, वृक्ष या पेड का पत्ता था. ऐसा ही अर्थ अमरकोष में मिलता है. और यही शब्द की व्युत्पत्ति प्रतीत होती है; प्राचीन समय में (कागज़ नहीं था) वृक्षों के पत्तों पर ही लिखा जाता था. उदाहरणार्थ, भूर्ज (Birch) पत्र पर लिखा जाता था. आगे चलकर ऐसे पेड के पत्ते पर लिखे गए विषय को भी पत्र कहा जाने लगा. इसी शब्द का पर्याय ताडपत्र में भी प्रचलित हुआ, और आगे चलकर ताम्र-पत्र सुवर्ण-पत्र इत्यादि भी. संस्कृत के प्राचीन ग्रंथ अधिकतर ताड पत्र पर ही लिखे जाते थे. अंग्रेज़ी में *द लिफ ऑफ ए बुक* इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है. तब कागज़ का आविष्कार भी न हुआ था; न मुद्रणकला विकसित हुयी थी. पर जब आगे कागज़ का आविष्कार हुआ तो उसे भी पत्र संज्ञा ही दी गयी.
(७) हस्तलेख वा पाण्डु लिपि:
अथाह परिश्रम से पूर्वजों ने हस्तलिखित पाण्डु लिपियाँ और प्रतिलिपियाँ लिखवाई. और विश्व में अद्‌भुत, और अप्रतिम महाकाय परिश्रम का इतिहास रचा. और ऐसा अध्यवसाय युगानुयुगों तक चलता रहा. तब हमारे हाथ में आज महाप्रचण्ड आध्यात्मिक ज्ञान का भण्डार आया. ऐसी दूसरी परम्परा सारे संसार में नहीं है.

पर, विलियम जोन्स की एशियाटिक सोसायटी (१७८४) द्वारा हमारी हस्तलिखित पाण्डु लिपियाँ भारत भर दलालों को भेजकर अलग अलग स्रोतों से खरीदी गयी, और गुप्त यंत्रणा द्वारा भारत बहार भेजी गयी. सारे के सारे सोसायटी के ३० सदस्य परदेशी, युरोपवासी थे. एक भी भारतीय सदस्य नहीं था.

उन हस्तलिखित लिपियों में कुछ तो होगा, जिसके चलते ऐसी हस्त लिखित लिपियाँ भारत के बाहर भेजी गई.

सोचिए, जब मुद्रण-कला विकसित नहीं हुयी थी. कागज़ भी नहीं था. ताडपत्रों पर वा भूर्ज पत्रों पर लिखा जाता था. कालान्तर में ये पत्र पुराने होते थे तो, पीले पड जाते थे. इस लिए पाण्डु (अर्थात पीला) लिपि शब्द प्रचलित हुआ, ऐसा अर्थ मैं करता हूँ. पीलिया रोग को भी पाण्डु रोग कहा जाता है.

समग्र ऋग्वेद गुरुकुल में कण्ठस्थ किया जाता था. प्रति दिन बालक ६ ऋचाएँ कण्ठस्थ करता. दूसरे दिन और ६, तीसरे दिन और ६. सारे वर्ष भर में ३० दिन छुट्टी के होते. ऐसा क्रम १८ वर्ष की आयु तक चलता. ७-८ वर्ष का बालक गुरुकुल जाता और १७-१८ की आयु तक सारा ऋग्वेद कण्ठस्थ कर लेता. फिर अनेक प्रकार के पाठ जैसे; गण-पाठ, पद-पाठ, जटा-पाठ, क्रम-पाठ, घन पाठ, इत्यादि दस प्रकार के पाठ हुआ करते. शलाका पद्धति से परीक्षा होती थी. गुरु की शलाका (सुई) जिस पृष्ठ को खोलती वहाँ से ऋचाएँ छन्द में शुद्ध वैदिक मन्त्रोच्चार सहित सुनानी पडती.

अनेक ग्रंथों के सूत्रों को भी कण्ठस्थ किया जाता. इसी प्रकार ४ वेद, १०८ उपनिषद, पाणिनि व्याकरण, ज्योतिष, छन्द, निरुक्त, पतंजलि योगदर्शन, इत्यादि, इत्यादि, अनगिनत ग्रंथ हम तक पहुँच पाए हैं. कुछ ग्रंथ खो भी गए, लाखो ग्रंथ एशियाटिक सोसायटी ने चोरी छिपे भारत के बाहर ऑक्सफ़र्ड, कॅम्ब्रिज, लन्दन, बर्लिन इत्यादि ग्रन्थालयों में भिजवा दिए हैं.

क्या हमारे पास कुछ ज्ञान नहीं था? तो फिर क्या चुराके ले गए?

सोचिए; कितना कठोर और अनुशासित सामूहिक परिश्रम किया गया होगा?

पीढियों पीढियों तक ऐसी परम्परा अबाधित रखी गई होगी; इस लिए हम तक यह ज्ञान की पूँजी पहुँच पाई.

मात्र इन शब्दों को कुरेदने पर यह छिपा हुआ सांस्कृतिक इतिहास उजागर हुआ:

संदर्भ 

(१) अमरकोष का कोषशास्त्रीय तथा भाषाशास्त्रीय अध्ययन –डॉ. के. सी. त्रिपाठी.

(२) मॅक्स मूलर का भाषण ( हस्त लिखित– वेदान्त सोसायटी के सदस्य द्वारा लिखित वृत्तान्त)

(३) Encyclopedia of Authentic Hinduism