पागल

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गाँव में उन दिनों खूब आंधी चल रही थी जिससे वहां की बालू रेत भी खूब उड़ रही थी। सारा माहौल कुछ मटमैले रंग का प्रतीत हो रहा था। एक तो आंधी ऊपर से ये तेज धूप, कोई अपने घरों से दोपहर को बाहर तक नहीं निकलता था। कौन खामखां आंधी में परेशानी उठाए भला। यहां तक की उस समय तो गली के कुत्ते भी इधर-उधर नहीं टहल रहे थे, किसी वृक्ष की छाँव में गड्ढा करके बैठे थे।
ऐसी धूप और आंधी में बिस्वास राव एक वृक्ष के तने से बंधा पड़ा था किसी जानवर की भांति। न आंगन था न ही छत। वैसे उसकी स्थिति जानवरों से भी बद्तर थी। वो पागल था, एक खूंखार पागल आदमी। यह बात मुझे उसी के गाँव के एक आदमी ने बताई थी जब मैंने पूछा था।
बिस्वास राव के माँ बाप दोनों की मौत हो गई थी और न ही कोई भाई बहन थे। एक चचेरा भाई था किशन जो उसे अपने सगे भाई की तरह ही रखता था।
बिस्वास राव शादी से पूर्व तो पागल नहीं था वह कमाता था और उसकी भी घर गृहस्थी थी। फिर शादी हो गई और एक वर्ष बाद उसको एक बेटी भी हुई। कुछ ही माह पश्चात अचानक बिस्वास को कुछ हो गया और किशन उसे अपताल लेकर गया वहां वैद्य ने काफी प्रयास किया दवा दारू भी की और आखिर में हार मन गया।
“अब मैं कुछ नहीं कर सकता किशन।” वैद्य ने मंद स्वर में कहा।
“क्यों वैद्य जी?”
“यह अब ठीक कभी नहीं हो सकता, तुम अगर चाहो तो इसे शहर के अस्पताल लेजाकर भी उपचार करवा सकते हो परंतु यह ठीक तो नहीं हो सकता है। यह अब पागल हो चुका है।”
“तो अब मैं क्या करूँ वैद्य?”
“कुछ मत कर अब इसे घर ले जा।”
वैद्य के कहने पर किशन बिस्वास को घर तो ले आया परन्तु वो पागलों सी हरकतें करने लगा था। दूसरे दिन तो कुछ ज्यादा ही। और उसी रात बिस्वास ने अपनी पत्नी को कुल्हाड़ी से सर काटकर मार दिया और किशन की पत्नी को भी उसी रात मार डाला।
“अब हरिया की बारी और फिर धनपत को भी नहीं छोडूंगा।” बिस्वास राव किसी राक्षस की भाँती प्रबल स्वर में कह रहा था।
यह सब सुन के गाँव के कई लोग तो मृतकों के घर गए और कई पुरुष बिस्वास राव को पकड़ने के लिए उसे ढूंढने लगे। अंततः बिस्वास राव पकड़ा गया और रात्रि में ही उसे एक वृक्ष से बाँध दिया। उस रात गाँव का माहौल भयानक था सबको भय के कारण नींद भी नहीं आई थी की कहीं बिस्वास राव मार न डाले और ख़ास कर के हरिया और धनपत को।
किशन को अपनी पत्नी की मौत का दुःख भी था और बिस्वास राव पर गुस्सा भी था परंतु उसे ज्ञात था कि बिस्वास राव पागल है।
दूसरी सुबह दोनों की औरतों की अंत्येष्टि करने के पश्चात् गाँव की पंचायत ने निर्णय लिया की आज से बिस्वास राव यहीं इसी वृक्ष के नीचे बनी कुटिया में वृक्ष से बंधा रहेगा, और बिस्वास की बेटी का पालन पोषण की जिम्मेदारी किशन ने ले ली थी क्योंकि किशन की कोई संतान नहीं थी।
तब से बिस्वास उस वृक्ष के नीचे जानवरों से भी बद्तर जीवन व्यतीत कर रहा था। वहीँ पर दूर से रोटी के टुकड़े डाल देते थे और खा करके शौचादि भी वहीँ करता था।
धीरे -धीरे मौसम बदलते रहे और उसकी घासफूस की बनी कुटिया भी एक रात तूफ़ान में उड़ गई तब से किसी ने भी दूरी कुटिया नहीं बनाई और वो ऐसे ही शर्दी में ठण्ड से कांपता तो बरसात में भीगता और गर्मी में जलता रहता। कोई भी उसकी स्तिथि पर तरस नहीं खाता था। सब यही चाहते कि जितना जल्दी हो भगवन इसे उठा ले परंतु मरना उसके हाथ कहाँ था।
हमेशा बिस्वास हाथ से बंधी रस्सी को तोड़ने का प्रयास करता और उसे पत्थर पे रगड़ता ऐसे ही धीरे-धीरे एक रात को रस्सी टूट गई और उसने हरिया की झोपड़ी को आग लगा दी परन्तु उस झोंपड़ी में था कोई नहीं।
पुनः रातों रात पकड़ लिया और फिर से उसी जगह बाँध दिया पर इस बार रस्सी की जगह लोहे की चेन से। वो हमेशा यूं ही तड़प रहा था और रोटी और पानी के लिए भी गला फाड़ के आवाज लगाता था। परंतु किसी को भी उसकी स्थिति पर दया नहीं आती।
जब मैंने उसे देखा था तब तक तो वह वृद्ध हो गया था। मैंने उसे बंधा हुआ पड़ा देखा था सोचा सो रहा है परंतु यह कुछ समय पश्चात ज्ञात हुआ की वह मृत पड़ा था। कुछ ही समय में बिस्वास की अर्थी श्मशान ले गए और उसका दाह संस्कार किया। उस समय वहां का वातावरण वैसा नहीं था जैसा मृत्यु के समय होता है किसी की आँखों में आंसू तक नहीं थे। परंतु इस वातावरण में भी वो रो रही थी दूर खड़ी एकांत में अपने पिता की जलती चिता को देख फुट फुट के रो रही थी।
-तेजू जांगिड़ –

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