महात्मा गाँधी का देश को पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से राम राज्य प्रदान करने का सपना हकीकत नहीं ले पाया| भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री प० जवाहरलाल नेहरु ने राजस्थान के नागौर जिले में 2 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था की नींव रखी थी| यूँ तो देश में पंचायत व्यवस्था सदियों पुरानी थी| पेड़ों ने नीचे बैठकर गाँव की समस्यायों को आम सहमति से हल कर देना पंचायत की खासियत होती थी| लेकिन उसे संविधानिक और कानूनी रूप दिया जाना देश के तमाम शुभचिंतकों को झूमा गई थी| पर पंचायत व्यवस्था के 57 साल बाद भी देश की ग्रामीण आबादी उन सारी समस्याओं को झेल रही है जिसके निवारण के लिए इस व्यवस्था का जन्म हुआ था, सपने देखे गए थे| बलवंत राय मेहता समिति ने पंचायतों को त्रिस्तरिय मॉडल में ढालने का सुझाव दिया था, जिसमें ग्राम पंचायत, प्रखंड और जिला आता है| नेताओं ने इस व्यवस्था में अपनी सहूलियत के हिसाब जो परिवर्तन किया वही मूल समस्या की जड़ है, पंचायती राज की असफलता के कारण है|
पंचायती राज व्यवस्था पुरातन भारतीय संस्कृति की नींव रही है| अंग्रेजों ने अदालतों और आईपीसी के माध्यम से इस नींव को ही तोड़ दिया, नतीजा हुआ की त्वरित और सटीक न्याय करने वाला ग्राम पंचायत- ग्राम कचहरी हासिये पर चला गया| गरीब और अनपढ़ लोग अंग्रेजों के झांसे में आकर अदालतों का चक्कर काटने लगे| बता दूँ की आईपीसी की ड्राफ्टिंग करने वाले मैकोले ने कहा था की भारतीय मुकदमों के फैसले तो होंगे लेकिन न्याय नहीं मिलेगा, तभी हमारा शासन मजबूती से भारत के ऊपर टिका रहेगा| और आज हम देख रहे है की सचमुच अदालत का एक निर्णय सुनने के लिए पूरा जीवन भी कम पड़ जाता है, फिर भी लोगों को न्याय नहीं मिलता|
अब सवाल है की हमारी सरकारों ने तो रामराज्य के नारे के साथ पंचायती व्यवस्था को बखूबी शक्ति प्रदान की है, फिर भी ऐसा क्यूँ हो रहा है की देश की ग्रामीण आबादी न्याय तो दूर बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रही है, ग्रामीण परिवेश आधुनिकतावाद के झमेले में पड़कर गन्दा होता जा रहा है या फिर ग्राम पंचायत के प्रतिनिधियों में भी नेताओं वाली मौकापरस्ती के गुण आने लगे है? क्या ऐसे आयेगा रामराज्य? ग्राम पंचायतों के सामुदायिक विकास के लिए मुखिया या प्रधान पद का गठन कर देने से या न्याय के लिए सरपंच का पद बना देने के बाद भी ग्रामवासियों की परेशानियाँ जस-की-तस बनी है| पंचायत का डीएम कहे जाने वाला मुखिया की एक बीडीओ भी नहीं सुनता| सरपंच के फैंसलों को अदालतों में उतनी अहमियत नहीं दी जाती जितनी की मिलनी चाहिए, यहाँ तक की एक सामान्य पुलिसकर्मी भी खुद को सरपंच से काफी ऊपर मानता है| पंचायत के लोग अपने लिए मुखिया या प्रधान तो चुन लेते हैं, लेकिन क्या वो अगले 5 साल के लिए पंचायत के प्रति उत्तरदायी होता है? नहीं! क्या सरपंच बिना किसी भेदभाव के या त्वरित न्याय देने के लिए बाध्य है? नहीं!
अक्सर जब भी राईट टू रिकॉल की बात आती है तो शासन विधायी क्षेत्रों की बड़ी आबादी की फजीहत दिखाकर पल्ले झाड लेती है, लेकिन ग्राम स्तर पर राईट तो रिकॉल लागू कराना बेहद आसान है| अगर किसी पंचायत का मुखिया, सरपंच या पंचायत समिति अपने दायित्वों से पंचायत को संतुष्ट नहीं कर पाते हों तो जनता को उन्हें हटाकर दूसरा निर्वाचित करने का अधिकार होना चाहिए| ऐसी व्यवस्था से प्रतिनिधियों में जनता का खौफ बनेगा, गलत न होने देने का दबाव रहेगा| पंचायत चुनाव में रुपये-पैसों की बर्बादी पर हद तक रोक लगेगी क्यूंकि उन्हें पता होगा की गलत तरीके से पैसे कमाने पर वो अपना पद गंवा देगा| महत्वपूर्ण है की जनता शिक्षित प्रतिनिधियों को ही चुनने में दिलचस्पी दिखाएगी, जो की उनके मानदंडों पर खरा उतरे| पर सरकार ऐसा करना नहीं चाहती, क्यूंकि असल में उसे रामराज्य लाना ही नहीं है…
बिलकुल उसी तरह पंचायत के जज यानी सरपंच विभिन्न वार्डों के पंचों की सलाह पर छोटी-छोटी झगड़ों को निचले स्तर पर त्वरित और सटीक सुनवाई करे तो अदालतों पर से काफी बोझ हटेगा| गलत करने से लोग डरेंगे, क्योंकि कानून भले ही अँधा है, मगर गाँव अँधा नहीं होता, लोग अंधे नहीं होते| कोर्ट-कचहरी के डर से आम इंसान इन मामलों में अपनी गवाही नहीं देता लेकिन वही गवाह ग्राम-कचहरी के सामने बेबाकी से अपनी राय देता है| इसके लिए हर पंचायत के अधीन एक पुलिस थाने को होना चाहिए|
ग्रामीण स्तर पर सरकार खुद टैक्स वसूलने के बजाए प्रधान या मुखिया को ये अधिकार दे| इससे टैक्स चोरी लगभग शून्य हो जायेगी क्यूंकि उन्हें पंचायत के अधिकतर रईसों की कमाई का अंदाजा होता है| लेकिन ये सब तभी सफल होगा जब जनता को अधिकार मिलेंगे| ग्राम सभा में लोगों को बिना डरे प्रतिनिधियों को गलत के विरुद्ध खरी-खोटी सुनाने का साहस देना होगा| इनसब के लिए सरकार को पहले बंदूक की नली से सत्ता तक पहुँचने वाले गुंडों से भिड़ना होगा… तभी वाकई कम से कम पंचायतों में रामराज्य नहीं तो अच्छे दिन आ सकते हैं… ( पंचायत चुनाव में गुंडों के प्रभाव की चर्चा अगले अंक में करेंगे)
लेखक:- अश्वनी कुमार, पटना