पांडव देवों के अंशावतार होने से प्रकृतिसिद्ध थे

      आत्माराम यादव पीव

सत्य स्वयं प्रतिष्ठित होता है ओर सब कुछ सत्य का आधार पाकर प्रतिष्ठित होता है। आज विश्व में प्रतिष्ठित होने वाला यह मनुष्य दुखी क्यों है? चारों युगों में सुख दुख असमान रूप से  प्रतिष्ठित रहा है जिसमें अगर द्वापरयुग का प्रकरण लिया जाए तो यह सभी के लिए प्रासंगिक होगा। इस युग में पांडव प्रकृतिसिद्ध –सहजसिद्ध थे वे राज्यवैभव से वंचित रह सर्वथा दीन-हीन दशा में, अनाथों की तरह रहे उनके जीवन में आए इस अपार दुख के लिए किसे उत्तरदायी मानोगे? भगवान श्रीकृष्ण नरावतार थे जो सोलह कलाओं के सृजक थे, वे सुख दुख की सीमाओं से परे थे, कोई भी भाव उन्हे प्रभावित नही कर सकता था, वे भावातीत थे। कौरव पात्रों में स्थिरता–दृढ़ता-निष्ठा धृति-आदि गुणों की संपन्नता खुद के प्रति गहरी ओर अटूट निष्ठा रही वही पांडव विशुद्ध भावुक थे भावना से भरे थे, भावुकता उनकी पहचान थी। शकुनि-कर्ण-दुर्योधन- दुःशासन-आदि जैसे केवल नीतिनिष्ठ थे, निष्ठा की पराकाष्ठा को जीना उनका धर्म था ओर यह निष्ठा किसी अन्य के लिए नहीं अपितु खुद के लिए थी। पांडवों ओर कोरवों में भावुकता ओर निष्ठा परस्पर रूप से एक दूसरे के वैचारिक भावों के विपरीत आश्चर्य कर देने वाली युक्ति थी। इसमें धर्मराज युधिष्ठर ओर इन्द्रावतार पार्थ अर्जुन को ‘भावुकता’ का सूत्राधार माना गया है जो तत्कालीन महाभारतयुग की सम-विषम कालिक, दैशिक, राष्ट्रिय स्थिति-परिस्थितियों को विहंगमदृष्टि को लक्ष्य बनाकर जीते रहे।

 पांचों भाई देवताओं के अंश अवतार थे, धर्म का अवतार युधिष्ठर, वायु पुत्र भीम, इन्द्र पुत्र अर्जुन एवं अश्विनीकुमारों से नकुल सहदेव थे जो सभी प्रकार की निष्ठा ओर भावुकता को पूर्णता के साथ जीकर एक मिसाल कायम कर सके, अकेले अर्जुन की भावुकता की परिणीती श्रीमद भागवत गीता के रूप में जगत के समक्ष प्रगट हुई ओर उसके मन पर, हृदय में मंडरा रहे भावुकता के बादलों के विदा होते ही वह महाभारत जैसा युद्ध को अंजाम दे सका। इससे परे देखा जाए तो दुनिया में सुख देने वाले किसी साधन की कमी नहीं है। अगर इसका चिंतन किया जाए तो मनष्य ओर उसकी मानसिक अनुभूति में व्याप्त निष्ठा ओर भावुकता की प्रज्ञा इसका मूल कारण होगी। निष्ठा का निर्वहन करने वाला सब कुछ होते हुये भावुकता से भावुक बन जाए तो दुखी होगा, किन्तु जहां कुछ न रहते हुये निष्ठा ओर भावुकता का परित्याग कर दे तो वह सुखी होगा। मानव किसी भी युग का हो, किसी भी काल का या विशेषतः वर्तमान युग का ही ले लीजिये, वह दुखी है, क्यों? यह मूल प्रश्न है। इस मूल प्रश्न को इस प्रकार भी देखा जा सकता है कि ‘कहाँ, कौन,कैसे ओर क्यों दुःखी है? ‘कौन’ का उत्तर ‘हम’ शब्द से दिया जाएगा तथा कहाँ ओर कैसे स्थान परिस्थिति को व्यक्त करेंगे एवं क्यों ? का उत्तर होगा निष्ठा ओर ‘भावुकता। भावुक का आशय जहा परदृष्टा है वही निष्ठावान का अर्थ स्वदृष्टा से है। दूसरों को देखने वाला भावुक सुखी नहीं रह सकता वही खुद को देखने वाला निष्ठावान दुखी नही रह सकता है। पर दृष्टि भावुक लाभ नहीं देखता हानी अनुभव करता है इसलिए दुखी रहता है जबकि स्वदृष्टा निष्ठावान किसी भी प्रकार के लाभ का अवसर छोडता नहीं है, नुकसान का अनुभव करता है इसलिए सदैव सुखी रहता है।

      विश्व में कहीं भी किसी भी देश भाषा का निवासी मनुष्य अगर दुखी है तो उसका मूल कारण उसके भावनात्मक गुण का होना है। यानि वह व्यक्ति मन का सहज है, सहज ज्ञान ओर धर्म उसकी भावना के केंद्र में है। कठिन है। शास्त्र कहता है, ‘यदि संसार में मानव को सुखी रहना है, तो उसे धर्मात्मा, पराक्रमी, अनुशासन से अनुशासित एवं प्रतिज्ञापालक होना चाहिए ।’ कहना न होगा कि पांचों पाण्डवों में शास्त्र का यह आदेश अक्षरशः घटित हो रहा है, परन्तु देख रहे हैं कि शास्त्र के सुखसाधक उक्त आदेश  का अक्षरशः पालन करते हुए भी पाण्डव उत्तरोत्तर दुःखी ही बने रहे। सांसारिक वैभव की बात तो दूर रही, इन्हें तो अपने न्यायसिद्ध पैतृक सम्पत्ति से भी वंचित किया गया जबकि इसके विपरीत कौरव दल एवं उसका नायक दुर्योधन धर्म-पराक्रम-अनुशासन-प्रतिज्ञा-पालन आदि शास्त्रीय आदेशों एवं अपने सभी सममानीय जन की घोर उपेक्षा करता हुआ सभी सांसारिक सुखों का उपभोग करता रहा। सर्वगुणसम्पन्न पाण्डवों का दुःखी बने रहना एवं सर्वदोषसम्पन कौरवो का सुखी बने रहना, सचमुच एक जटिल समस्या थी ओर महाभारत शुरू होने से पूर्व ही लाक्षागृह जैसे षड्यंत्र घटने का बाद अपने पराक्रम रहते शांत रहे ओर आज्ञाकारी बने रहे। भगवान श्रीकृष्ण जानते थे की पाण्डव धर्मात्मा हैं, पराक्रमी हैं, अनुशासनप्रिय है, प्रतिज्ञापालक है, फलतः सर्वगुणसम्पन्न हैं। इसके साथ ही हम यह भी अनुभव करते रहे हैं कि कौरव अधर्मी है, उच्छृखल है, फलतः सर्वदोषसम्पन्न हैं। फिर भी पांडव दुखी है ओर सभी तरह के दोषों से लिप्त कौरव सुखी है। पाण्डवों में जहाँ सब गुण ही गुण थे, वहाँ उनमें सबसे बडा एक ऐसा दोष है, जिसके कारण उनके सब गुण दोषरूप में परिणत हो रहे हैं। फलतः इस महादोष से सर्वगुणसम्पन्न भी पाण्डव सर्वदोषसम्पन्न बनते हुए दुःखी है ओर वहीं  कौरवों में जहाँ सब दोष ही दोष हैं, वहाँ उनमें सबसे बडा एक ऐसा गुण है, जिसके कारण उनके सब दोष गुणरूप में परिणत हो रहे हैं, इसे समझना होगा।

      आखिर पांडवों में ऐसा कौन सा दोष था जिसने पांडवों की गुणविभूति को प्रावृत कर उन्हें दुखी बना दिया ? एवं वह ऐसा कौन सा गुण है, जिसने कौरवों की दोष राशि को प्रावृत कर उन्हें सुखी बना दिया ? उत्तर थोड़ा अटपटा सा है, अतएव उसके मूल तथ्य  पर पहुंचना थोड़ा कठिन है। भावुकता पाण्डवों का सबसे बड़ा दोष है एवं ‘निष्ठा’ कौरवों का सबसे बडा गुण है। भावुकता ने जहाँ सब पांडवों को उनमे सब गुण रहते दुखी बनाया है, वही सभी तरह के दोष रहते कौरवों को निष्ठा ने सुखी बना दिया। भावुकता वह गुण है जो व्यक्ति को दृढ़निश्चयी नहीं बनाता बल्कि प्रतिज्ञापालन में असमर्थ करता है, देखे अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के यज्ञ संपादित करते समय एक बाम्हन के होने वाले बच्चों की अकाल मौत पर भगवान को भला बुरा कहते समय भावुकता में पड़ उसके होने वाले बच्चे के प्राण बचाने का संकल्प ले अर्जुन उसे बचाने निकला ओर यह शपथ ली की अगर बच्चे को नहीं बचा सका तो अग्नि को अपने प्राण समर्पित कर देगा, आखिर बच्चा मृत्यु को प्राप्त हुआ भगवान ने धर्मराज से बच्चे के प्राण लेकर बाम्हन के घर खुशिया लौटाई ओर अर्जुन के प्राण बचाए। इसी प्रकार अर्जुन ने भावुकता में अपने बेटे अभिमन्यु की मृत्यु के लिए जयधृत को सूर्यास्त से पूर्व मारने की शपथ ली जिसे भी भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माया से बादलों में सूर्य छिपा कर सूर्यास्त दिखा उसके सामने आने पर सूर्य को दिखा उसकी शपथ पूरी करा उसके प्राण बचाए। कुछ प्रसंग में आप भावुकता ओर निष्ठा को लेकर सवाल कर सकते है जहा धर्मराज युधिष्ठिर ने इसी प्रतिज्ञापालन के लिए वनवास के कष्ट हंसते-हंसते सह डाले । अर्जुन ने दृढ़निश्चय के प्रभाव से, निष्ठावान रहते  दुर्द्धर्ष तप के द्वारा ब्रह्मास्त्रादि प्राप्त किए, गुरुद्रोण के प्रतिद्वन्द्वी द्रुपदराज का गर्व तोड़ेते हुए, स्वयंवर में मत्स्यवेध कर द्रौपदी प्राप्त की, शास्त्र परीक्षा में चिड़िया के मस्तक को लक्ष्य बनाया, इस प्रकार कई उदाहरण मिलेंगे जहा पाण्डवों की निष्ठा, उनका प्रतिज्ञापालन अटल और अडिग  है। इस प्रतिप्रश्न में भावुक ओर निष्ठा के देखे थे निष्ठावान सदैव स्व को लक्ष्य बनाए जाने से सदा अपनी चिंता करता है ओर उसे परोपकार से कोई सरोकार नही होता है पांडव अपने प्राणों को दाव पर लगाकर परोपकार करते आए है, उनमें स्वार्थसिद्धि नहीं स्वार्थी निष्ठावान के समक्ष उनकी तुलना अर्थहीन हो जाती है।

      धृतराष्ट्र का युग हर युग में सबक्से बड़ा रहा है ओर अत्यधिक धार्मिक पूर्णअवतार श्रीकृष्ण कि मौजूदगी सहित अन्य एक से एक महावीरों का युग रहा है जो किसी देश-काल में पैदा नही हुये। वे सभी निष्ठा ओर भावुकता के संकल्प, प्रतिज्ञा कि जंजीरों से जकड़े रहे जहां प्रकृतिविरुद्ध अधर्मपथ का समर्थन करने को ये सभी विवश रहे है। विचार उठता है कि धृतराष्ट्र क्या धर्म बुद्धिशून्य थे? नहीं । किन्तु कालदोषात्मक वातावरण दोष से ये अनेक बार अपने मनोभावों में सम-विषम निर्णय लेने में निष्ठा का निर्वहन करने खामोश थे। गुरुद्रोण आखिर अधर्म पथ के युद्ध को स्वीकारने के बाद कौरवों के साथ क्यो शामिल हुये। यही नहीं जब नारी कि निर्लज्जता कि बात आई तो राजपरिवार कि बहू द्रोपति के पक्ष में पूरी सभासदों शिति मौनवृत्ती से तटस्थ दर्शक बन जाना कहाँ कि नैतिकता थी? यह भावुकता का नहीं अपितु उस निष्ठा का भोंडा चरित्र रहा जहा इनके लिए मृत्युतुल्य कष्ट था लेकिन राजभोग का सुख आंखे बंद करके पाने कि विवशता थी ओर दूसरे युधिष्ठिर एक प्रकार से ही क्यों, निश्चितरूप से कौरवों की राज्यप्रतिष्ठा -लक्षणा दुर्बुद्धि को ही परोक्षरूपेण प्रोत्साहित करते रहने वाले परोक्ष निमित्त बनते रहे, बनते ही गए।

      पाण्डवों का सम्पूर्ण जीवन ही इन उदाहरणों का प्रतीक बना हुआ है जिसमें भावनात्मक संतुष्टि के लिए उन्होंने जो किया उसका जगत में दूसरा उदाहरण नही मिलता है। धूतकर्म में कभी किसी ने अपनी पत्नी को दाव पर नहीं लगाया था, अपने भाइयों को जुए में नहीं हारा था, जबकि जुए का कोई नियम नहीं था, धर्मभीरु युधिष्ठिर भावुकता में अपने अनुज पुत्र दुर्योधन के बनाए सारे नियम ओर शर्तें मानता गया ओर प्रतिज्ञा पालन करते समय भावुकता में भूल गए ओर अपना राज्य दाव पर लगाने से साथ भाइयों ओर पत्नी को भी हार गए। प्रत्यक्ष प्रभाव से प्रभावित युधिष्ठिर ने यो स्वयं अपना भी अनिष्ट किया, साथ ही सदोष से प्रभावित धर्ममय बने हुए अन्य पांडवों को भी दुखी बनायां । प्रत्यक्षानुगता भावुकता में पड़कर पांडव यह सब करते रहे इसलिए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भावुकता ही सारे सांसारिक दुखों का मूल कारण है । भावुकता ओर निष्ठा के स्वरूप का दिग्दर्शन करने कि इस चेष्टा में वर्तमान मानव के परितोष का कारण नहीं तलाशा जा सकता है ,आवश्यकता है कि आज के मानव कि स्थितितत्व, सापेक्षतत्व का समन्वय कैसे किया जाए इस पर विचार आवश्यक है।

भावुकता और निष्ठातत्वों को जानने को तत्पर हो तो ज्ञात होता है कि जो अपनी इन्द्रियजन्य ज्ञान के अनुसार चलता है वह मनुष्य भावुक होता है एवं जो विवेकज्ञान के आधार पर चलता है वह निष्ठावान् कहलाता है। मनन करने वाला व्यक्ति भावुक होता है ओर बुद्धिमानी करने वाला विवेकजन्य परोक्षज्ञान से प्रभावित निष्ठावान होता है। तथ्यज्ञान प्रत्यक्षपराध को न सहने वाला भावुक ओर उसकी उपेक्षा करने वाला निष्ठावान होता है। शिक्षज्ञान युक्त व्यक्ति भावुक ओर सहजज्ञान युक्त निष्ठावान है। विद्वान् मानव भावुक है, समझदार मानव निष्ठावान् है। ज्ञानी मानव भावुक है, मूर्ख मानव निष्ठावान् है।आज भारत में जिस  भावुकता का दिग्दर्शन कराया जा रहा है उस भावुकता ने वर्तमान मानव को विशेषतः हिन्दू-मानव को संत्रस्त बना रखा है। देखा जाए तो सम्पूर्ण विश्व एक ‘स्थिति भाव है, जिसके लिए संसार है जिसमें वर्तमान काल को सर्वोपरि मानते हुये सभी अपने मन के अंदर इसकी मूल प्रतिष्ठा किए भावुकता का आधार निर्मित किए है जिसका विवेचन ओर विश्लेषण करना सहज नहीं है।

      प्रातः स्मरणीय धर्मराज युधिष्ठिर को नितान्त भावुक प्रमाणित करने का एकमात्र उत्तरदायी बनाने, एवं मानने का महत्‌पातक जरूर किया जा रहा है, उन संस्मस्णीय धर्मराज धर्म की सगुणमूत्ति युधिष्ठिर की चरमसीमानुगता धम्मनिष्ठा लक्षणा धर्मभावुकता के अनुग्रह से ही शेष पाण्डुपुत्रों के यशः शरीर आज तक अक्षुण्ण बने हुए हैं। धर्मभावना के दृष्टिकोण से युधिष्ठिर न केवल महामानव ही थे, अपितु अतिमानव थे, आधिकारिक अवतार मानवसमतुलित धर्म के सगुण अवतार थे। वे अपनी इस धम्मानुगति में अनन्यनिष्ठा से प्रणत- भाव द्वारा आस्था श्रद्वापूर्वक तल्लीन थे। अर्जुन की तरह ‘करिष्ये वचनं तथ’ रूप से युधिष्ठिर धर्ममान्यता के सम्बन्ध में किसी भी अन्यप्रेरणा अन्यशक्ति से प्रभावित होने के लिए स्वप्न में भी सहमत न थे। यही कारण था कि, गुरुद्रोण वध प्रसंग पर बासुदेवकृष्ण के महतोभावुकता की चरम सीमात्मिका ‘निष्ठा’ का उपक्रम स्थान मानी गई है। अपनी आत्यन्तिक धर्मभावुकता, किंवा सनो- ऽनुगता धर्मभावना से ही आत्मबुद्धयनुगता सत्य-धर्मनिष्ठा से सत्य-धर्मनिष्ठ बन जाने वाले अतिमानव धर्मराज युधिष्ठिर इसी धर्मनिष्ठा के बल पर सदेह स्वर्गारोहण में समर्थ हुए थे, जबकि इनके अन्य अनुज, और द्रौपदी मध्ये मध्य में ही विश्राम ग्रहण कर चुके थे। इसी सांस्कारिकी दृढ़तमा धर्मभावना के प्रभाव से स्वर्गारोहण करते समय इनके पावनतम शरीर से संलग्न वायुदेवता पवित्र हो गए थे, जिस पवित्र वायु के संस्पर्शमात्र से यामी यातनाएँ सहन करने वाले प्रेतलोकस्थ प्रेतभावापन्न इनके बन्धु क्षणमात्र के लिए शान्ति-स्वस्ति के भोक्ता बन गए थे । ऐसे धर्मनिष्ठ, अतएव नितान्तनिष्ठ, यावज्जीवन अनन्यरूप से इस निष्ठातन्त्र के उपासक बने रहने वाले लोकदृष्ट्या ‘भावुक भी प्रतीयमान युधिष्ठिर को, इस धर्ममूत्ति अतिमानव को ‘भावुकता’ होने के लिए प्रायश्चित्त का भागी बनना पड़ा।

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