आज 26 अप्रैल जयन्ती पर
मनमोहन कुमार आर्य
महान कार्य करने वाले लोगों को महापुरुष कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि महापुरुष अमर होते हैं। भारत में महापुरुषों की एक लम्बी श्रृंखला वा परम्परा है। ऐसे ही एक महापुरुष पं. गुरुदत्त विद्यार्थी थे। आप उन्नीसवीं शताब्दी में तेजी से पतन को प्राप्त हो रहे सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति के रक्षक, सुधारक, देश की आजादी के मन्त्रदाता व प्रेरक सहित समग्र सामाजिक व राजनैतिक क्राान्ति के जनक ऋषि दयानन्द के भक्त, अनुयायी और उनके मिशन के प्रचारक, प्रसारक व रक्षक थे। 26 अप्रैल उनकी जयन्ती का दिवस है। उनके देश व जाति पर ऋण से उऋण होने के लिए उन्हें व उनके कार्यों को स्मरण कर श्रद्धांजलि देना प्रत्येक वेदभक्त, ऋषिभक्त, आर्यसमाज के अनुयायी व देशवासी का कर्तव्य है। यदि वह न हुए होते तो आर्यसमाज का इतना विस्तार न होता, डीएवी आन्दोलन जो उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी में देश भर में फैला, वह न हुआ होता और उन्होंने जो साहित्य हमें दिया, उससे आर्यसमाज व देश वंचित रहता।
महर्षि दयानन्द की मृत्यु के बाद आर्यसमाज के आन्दोलन का मुख्य योद्धा बनने वाले इस ऋषिभक्त व वैदिक धर्म के अनुपम प्रेमी का जन्म 26 अप्रैल, सन् 1864 को मुलतान (पाकिस्तान) में श्री रामकृष्ण जी के यहां हुआ था। आप अपने माता-पिता की एक मात्र पुत्र व सबसे छोटी सन्तान थे। आपके पिता एक प्रतिष्ठित अध्यापक थे। पांच वर्ष की अवस्था में आपके पिताजी ने घर पर ही आपको फारसी वर्णमाला का ज्ञान करवाना आरम्भ कर दिया था। बचपन से ही आपकी स्मरण शक्ति गजब थी तथा गणित में प्रश्नों का हल करने की आपमें अदभुद योग्यता थी। लाखों तक की संख्या की गणना वा गुणा भाग आप मौखिक ही कर देते थे। बचपन में आपको उर्दू के वाक्यों की फारसी में पद्य रचना करने का भी अभ्यास हो गया था। बाद में काव्य रचना में आपकी रूचि न रही। अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन तथा पंजाब के प्रसिद्ध धार्मिक नेता मुंशी कन्हैयालाल अलखधारी के सभी मतों व धर्मों में अन्धविश्वासों वा पाखण्डों के खण्डन से प्रभावित होकर आप सन्देहवादी वा नास्तिक बन गये थे। पुस्तकों को पढ़ने में आपकी बालकाल व किशोरावस्था से ही गहरी रूचि थी। आपके जीवनी लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि ‘झंग से मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण करके आप मुलतान के हाई स्कूल में प्रविष्ट हो गये। उन दिनों स्कूल में मुख्याध्यापक बाबू मनमोहन सरकार थे। उन्होंने शिष्य की प्रतिभा को पहचाना। अपने मेधावी शिष्य को नई-नई पुस्तकें देते रहते थे। आपने स्कूल के पुस्तकालय की सब पुस्तकं पढ़ डाली। मुलतान में लहंगा खां के उद्यान में एक विशाल पुस्तकालय था उसका व नगर के अन्य पुस्तकालयों का भी पूरा-पूरा लाभ उठाया। उन्हीं दिनों श्री मास्टर दयाराम जी से Bible in India पुस्तक लेकर ध्यानपूर्वक पढ़ी। इन्हीं मास्टर जी से आपने एक और प्रसिद्ध पुस्तक India in Greece लेकर पढ़ी।’ इस वर्णन से आपकी पुस्तकों के अध्ययन व उनसे ज्ञान प्राप्ति करने की प्रवृत्ति का अच्छा ज्ञान हाता है। आपमें पुस्तकों को पढ़ने का यह शौक जीवन पर रहा। इस प्रकार स्कूली विषयों व इतर ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए आपने विज्ञान में एम.ए. किया और पूरे पंजाब में प्रथम स्थान पर रहे। यह भी बता दें उन दिनों पंजाब में पूरा पाकिस्तान एवं भारत के पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश राज्यों सहित दिल्ली के भी कुछ भाग सम्मिलित थे।
आपने मुलतान में अपने दो घनिष्ठ मित्रों लाला चेतनानन्द व पण्डित रैमलदास की प्रेरणा से 20 जून सन् 1880 को मुलतान के आर्यसमाज की सदस्यता ग्रहण की थी। आर्यसमाज में प्रविष्ट होते ही आपने संस्कृत की आर्ष व्याकरण का अध्ययन आरम्भ किया और कुछ समय में इसमें योग्यता प्राप्त कर ली। मुलतान में ही आप डा. वैलन्टाइन की Easy Lessons in Sanskrit Grammer पुस्तक को पढ़कर ऋषि दयानन्द की ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के संस्कृत भाग को बिना किसी की सहायता के समझने में सक्षम हो गये थे। आपका संस्कृत प्रेम बढ़ता गया और एक समय ऐसा भी आया कि आप अपने घर पर ही संस्कृत की कक्षायें चलाने लगे जिसमें आर्यसमाज के अनुयायियों सहित बड़े बड़े सरकारी अधिकारी भी आपसे संस्कृत व्याकरण पढ़ते थे।
मुलतान में शिक्षा पूरी कर आप सन् 1881 में लाहौर के राजकीय कालेज में प्रविष्ट हुए थे, यहीं से आपने साइंस में एम.ए. किया था और यहीं पर कुछ समय अध्यापन भी किया था। लाहौर में अध्ययन काल में ही आप आर्यसमाज लाहौर के सम्पर्क में आ गये थे। यहां आपके सहपाठियों में लाला जीवनदास जी सहित महात्मा हंसराज और लाला लाजपतराय भी हुआ करते थे। इन सभी ने देश व आर्यसमाज की अविस्मरणीय सेवा की है। ऐसा होते हुए सन् 1883 का वर्ष आ गया था। सितम्बर, 1883 में महर्षि दयानन्द जोधपुर में प्रचार कर रहे थे। वहां 29 सितम्बर की रात्रि को उन्हें दूध में विष दे दिया गया था जिससे वह रूग्ण हो गये। विष इतना प्रभावशाली था कि इससे महर्षि दयानन्द जी का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन बिगड़ता गया। उपचार में भी गड़बड़ी हुई जिससे स्वास्थ्य गिरता चला गया। अक्तूबर के मध्य व अन्तिम सप्ताह में देश भर के आर्यसमाजों में स्वामी जी के रोग का समाचार फैल गया। लाहौर के आर्यसमाज द्वारा अपने दो सदस्यों लाला जीवनदास और पं. गुरुदत्त विद्यार्थी को स्वामी दयानन्द जी की सेवा शुश्रुषा के लिए भेजा गया। यह दोनों साथी 29 अक्तूबर को अजमेर पहुंचे। 29 व 30 अक्तूबर, 1883 के दो दिनों में पण्डित गुरुदत्त जी को महर्षि दयानन्द को अति निकट से देखने का अवसर मिला। उन्होंने रोग की गम्भीरता, शारीरिक कष्ट व पीड़ा तथा महर्षि दयानन्द को उन सबको धैर्य के साथ सहन करते हुए देखा। शरीर की अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में व मृत्यु तक महर्षि दयानन्द ने जिस धैर्य का परिचय दिया तथा मृत्यु के समय व उससे पूर्व के उनके कार्य कलापों से वह अत्यधिक प्रभावित हुए। इससे उनके हृदय से ईश्वर की सत्ता के प्रति सन्देह के सभी भाव पूर्णतया समाप्त हो गये और वह ईश्वर, वेद और दयानन्द के एक नये स्वरूप वाले शिष्य बन गये। उसके बाद उनके जीवन का एक-एक क्षण महर्षि दयानन्द के मिशन की प्राणप्रण से सेवा में व्यतीत हुआ। लोगों में संस्कृत की अष्टाध्यायी शिक्षा पद्धति का तो वह प्रचार व शिक्षण करते ही थे, महर्षि दयानन्द की स्मृति में बनाये जाने वाले स्मारक, दयानन्द स्कूल व कालेज, के लिए उन्होंने स्वयं को सर्वात्मा समर्पित कर दिया। देश भर का दौरा किया। उपदेशों से आर्यजनता को प्रेरित व प्रभावित किया। लागों ने अपनी सम्पत्तियां व प्रभूत धन उन्हें दिया। सृष्टि के इतिहास में देश में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए लोगों से धन संग्रह कर डीएवी कालेज की स्थापना का यह आन्दोलन अभूतपूर्व आन्दोलन है जिसका बाद में अनेक महापुरुषों व संस्थाओं ने अनुसरण किया। इस आन्दोलन के प्रभाव से डी.ए.वी. स्कूल वा कालेज की स्थापना हुई जिसने देश में शिक्षा के प्रचार व प्रसार सहित देश में जन जागरण व उन्नति में अपनी विशेष भूमिका निभाई है। अत्याधिक कार्य करने व आवश्यकतानुसार विश्राम न करने आदि अनेक कारणों से आपको क्षय रोग हो गया था जिसका परिणाम 19 मार्च, सन् 1890 को 25 वर्ष, 10 माह 24 दिन की आयु में मृत्यु के रूप में सामने आया। पण्डित जी मृत्यु से किंचित भी विचलित नहीं हुए और अपने गुरु ऋषि दयानन्द की भांति धैर्य से ईश्वर के नाम ओ३म् का जप करते हुए अपने प्राण त्याग दिये।
पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी अनेक अवसरों पर आर्यसमाज में उपदेश भी करते थे। जनता में आपके उपदेशों को पसन्द किया जाता था। वह युग ऐसा था कि भाषणों की रिकार्डिंग सम्भव नहीं थी। भाषण को लिखा जा सकता था परन्तु यह दुर्भाग्य ही कहेंगे कि किसी आर्यसमाज व व्यक्ति ने इस दिशा में प्रयास नहीं किया। आज हम उनके उन उपदेशों से पूर्णतया वंचित हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि पण्डित गुरुदत्त जी ने अंग्रेजी भाषा में उपयोगी एवं महत्वपूर्ण साहित्य लिखा है जो सद्यः हमें प्राप्त है। इससे उनकी प्रतिभा का पता चलता है। पं. गुरुदत्त जी के जीवन चरितों में लाला जीवन दास, लाला लाजपतराय, प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी सहित डा. रामप्रकाश द्वारा लिखा गया जीवन चरित प्रसिद्ध है। आर्यकवि वीरेन्द्र राजपूत ने ‘तारा टूटा’ नाम से उनके जीवन व व्यक्तित्व को काव्य में प्रस्तुत कर प्रशंसनीय कार्य किया है। उनके समस्त पुस्तकों व उपलब्ध लेखों का संग्रह गुरुदत्त लेखावली के नाम से अंग्रेजी व हिन्दी अनुवाद सहित उपलब्घ है। इनके अब तक अनेक संस्करण छप चुके हैं। पं. गुरुदत्त जी के कुछ प्रमुख ग्रन्थ वैदिक संज्ञा विज्ञान, ईश-मुण्डक व माण्डूक्य उपनिषदों की व्याख्या, इण्डियन विजडम, जीवात्मा की असितत्व के प्रमाण आदि हैं। वैदिक संज्ञा विज्ञान को आक्सफोर्ड में पाठ्य क्रम में प्रस्तावित किया गया था। हमारा सौभाग्य है कि हमारे पास यह सभी ग्रन्थ उपलब्ध हैं और हमने इन्हें पढ़ा भी है।
किसी भी महापुरुष पर एक लेख में उनके जीवन व कार्यों को समग्रतः पुस्तुत किया जाना सम्भव नहीं होता। इसके लिए तो उनके समस्त साहित्य का अध्ययन करना ही उपयुक्त होता है। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी का जीवन बहुआयामी जीवन है जो मनुष्य को शून्य से सफलता के शिखर पर ले जाता है। इनके जीवन व कार्यों का अध्ययन कर हम अपने जीवन की दशा व दिशा निर्धारित करने में सहयता ले सकते हैं। ईश्वर व वेद की शिक्षाओं सहित ऋषि दयानन्द, समस्त आर्य महापुरुषों व पं. गुरुदत्त जी के जीवन के अनुसार जीवन व्यतीत करना ही उनके प्रति श्रद्धांजलि व जीवन के लिए लाभकारी हो सकता है। पाठक पण्डित गुरुदत्त जी पर उपलब्ध सभी ग्रन्थों को पढ़े, ऐसा करना उनके लिए कल्याणकारी व यश प्रदान करने वाला होने के साथ आत्म सन्तोष व शान्ति प्राप्त करने में सहायक होगा।
‘मैंने स्वामी दयानन्द को देखा: गोस्वामी दामोदर शास्त्री’
महर्षि दयानन्द के जीवन काल में अनेक लोग उनके सम्पर्क में आये और उनके व्यक्तित्व व उनकी ज्ञानमयी प्रतिभा से आलोकित व प्रभावित हुए। ऐसे कुछ उदाहरण वेदवाणी पत्रिका के सम्पादक पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने पत्रिका के मार्च, 1985 अंक में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का एक लेख ‘‘ऋषि दयानन्द के जीवन की कुछ अप्रकाशित घटनाएं” प्रकाशित कर दिए हैं। यहां हम प्रथम दो उदाहरण पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।
उदाहरण 1
श्री पं. धर्मदेव जी देहरादून वाले चार पांच वर्ष काशी में पिद्या प्राप्त करते रहे। उन्होंने ‘काशी के विद्वान् और ऋषि दयानन्द’ एक लेख 1936 ई. में दिया था। ‘प्रकाश’ उर्दू साप्ताहिक में छपा था। दुःख की बात है कि यह लेख अधूरा छपा था। इसमें आपने लिखा कि आपके गुरु और काशी के ‘प्रमुख’ विद्वान गोस्वामी दामोदर शास्त्री जी ने एक बार उन्हें बताया कि वह काशी शास्त्रार्थ में उपस्थित थे। महर्षि दयानन्द का मुख ब्रह्मचर्य के तेज से चमक दमक रहा था। वह धारा प्रवाह संस्कृत बोलते थे। मुख ऐसे चमक रहा था जैसे सूर्य। बोलते हुए ऐसे लगते थे जैसे सिंह गर्जना कर रहा हो। उनके भाषण से सन्नाटा छा जाता था। उनकी जैसी संस्कृत काशी का कोई पण्डित न बोल सकता था। वह बहुत बड़े पण्डित थे, इसमें कोई सन्देह नहीं।
उदाहरण 2
काशी शास्त्रार्थ के प्रत्यक्षदर्शी एक अन्य विद्वान् (जिनका नाम देना पं. धर्मदेव जी छोड़ गये) के सामने पं. अखिलानन्द के विचार सुनकर किसी ने ऋषि को गाली दे दी तो वह क्रोधित हो गये। उस दिन कुछ पढ़ाया ही नहीं। उन्होंने भी तब कहा कि काशी शास्त्रार्थ में उनकी ओर कोई देख भी न सकता था। वह (दयानन्द) अकेला निर्भीक घूमता था। वह ब्रह्मचारी निष्कलंक था।
यह दोनों घटनायें हमें अच्छी लगी। पाठकों को भी पसन्द आयेंगी, ऐसी आशा करते हैं। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी और पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का यथायोग्य सत्कारपूर्वक हार्दिक धन्यवाद।