पं. दीनदयाल उपाध्‍याय जयंती पर विशेष- एक कर्मयोगी की जीवन यात्रा

dindayalबाल्यकाल

दीनदयाल उपाध्‍याय का बचपन एक सामान्य उत्तर भारतीय निम्न मध्‍यमवर्गीय सनातनी हिंदू परिवार के वातावरण में बीता। ब्रजभूमि के मथुरा जिले के नंगला चन्द्रभान ग्राम में दीनदयाल उपाध्‍याय के प्रपितामह विख्यात ज्योतिषी पं. हरिराम उपाध्‍याय रहा करते थे। श्री झण्डूराम इनके सहोदर लघु भ्राता थे।

पं. हरिराम उपाध्‍याय के तीन पुत्र थे-भूदेव, रामप्रसाद तथा रामप्यारे। झण्डूरामजी के दो पुत्र थे – शंकरलाल और बंशीलाल।

श्री रामप्रसाद के पुत्र थे श्री भगवती प्रसाद। भगवतीप्रसादजी का विवाह श्रीमती रामप्यारी से हुआ था। वे बड़ी धर्मपरायणा थीं। आश्विन कृष्णा त्रयोदशी संवत् 1973 विक्रमी तदनुसार दिनांक 25 सितंबर, 1916 को भगवती प्रसाद के घर में पुत्रजन्म हुआ। बालक का पूरा नाम दीनदयाल व पुकारने का नाम ‘दीना’ रखा गया। दो वर्ष बाद रामप्यारीजी की गोद में दूसरा बच्चा आया जिसका नाम शिवदयाल व पुकारने का नाम ‘शिबू’ रखा गया।

संयुक्त-परिवार-परम्परा

पं. हरिराम के घर में संयुक्त-परिवार-परम्परा अभी तक अबाध चल रही थी। अत: परिवार बड़ा था। स्वाभाविक रूप से महिलाओं में कलह रहती थी। दीनदयाल अभी ढाई वर्ष के थे। इनके पिता भगवतीप्रसाद उन दिनों जलेसर में सहायक स्टेशनमास्टर थे। उन्होंने गृहकलह को शांत करने के लिए अपनी चाची तथा विमाता को अपने पास जलेसर बुलवा लिया तथा दीना, शिबू व रामप्यारी को राजस्थान के धनकिया नामक ग्राम में भेज दिया जहां रामप्यारी के पिता चुन्नीलाल शुक्ल स्टेशन मास्टर थे। चुन्नीलाल का पैतृक घर अर्थात् रामप्यारी का मायका तथा दीनदयाल का ननिहाल आगरा जिले में फतेहपुर सीकरी के पास गुड़-की-मंड़ई नामक ग्राम में था।

ढाई साल की अवस्था में पितृगृह छूटने के बाद दीनदयाल वापस वहां रहने के लिए कभी नहीं लौटे। उनका पालन-पोषण व विकास एक प्रकार से असामान्य स्थिति में हुआ। वे स्थितियां ऐसी भी थी जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व बुझ जाए, लेकिन दीनदयाल उसी परिवेश से ऊर्जा ग्रहण कर अपने व्यक्तित्व का विकास किया। निश्चय ही उनके जीवन पर उनकी बाल्यावस्था के भरपूर संस्कार थे।

जीवन के दु:खद प्रसंग

मृत्यु का दर्शन जीवितजनों में वैराग्य उत्पन्न करता है। दीनदयाल उपाध्‍याय को बचपन से ही प्रियजनों की मृत्यु का घनीभूत अहसास हुआ। ढाई साल की अवस्था में दीनदयाल अपने नाना के पास आए ही थे कि कुछ ही दिनों में समाचार आया कि उनके पिता भगवतीप्रसाद का देहांत हो गया है। दीनदयाल पितृहीन हो गए व रामप्यारी विधवा हो गई। दीनदयाल की शिशु आंखों ने अपनी विधवा मां की गोद व आंसुओं का तथा दामादविहीन नाना के बेबस व उदास चेहरे का टुकुर-टुकुर अबोध व संवेदनहीन अनुभव ग्रहण किया होगा। पितृहीन शिशु दीनदयाल मां की गोद में बाल्यावस्था को प्राप्त हुए। पर विधवा, शोकाकुल व चिंताकुल रामप्यारी पीड़ा व अपोषण की शिकार होकर क्षयग्रस्त हो गई। उन दिनों क्षयरोग का अर्थ था निश्चित मृत्यु। अभी दीनदयाल सात वर्ष के तथा शिवदयाल पांच वर्ष के ही हुए थे कि दोनों बच्चों को नाना की गोद में छोड़कर रामप्यारी वास्तव में राम को प्यारी हो गई। दीनदयाल पिता व माता दोनों की स्नेह छाया से वंचित हो गए।

मां के देहांत के दो ही वर्ष हुए थे कि वृद्ध व स्नेही पालक, जो अपनी बेटी की अमानत को पाल रहे थे, नाना चुन्नीलाल भी स्वर्ग सिधार गए। यह 1926 का सितंबर माह था। दीनदयाल अपनी आयु के दसवें वर्ष में थे। माता-पिता व नाना के वात्सल्य से वंचित होकर वे अपने मामा के आश्रय में पलने लगे। मामी नितांत उदार, स्नेहिल व मातृवत् थीं, पर दीनदयाल बहुत गंभीर रहते थे। दस वर्ष का दीनदयाल अपने छोटे भाई शिवदयाल की भी चिंता करता था, उसे स्नेह भी देता था।

दीनदयाल सातवीं की पढ़ाई राजस्थान के कोटा नगर में कर रहे थे। यह सन् 1931 था। उन्हें कोटा से राजगढ़ (जिला अलवर) आना पड़ा, क्योंकि उनकी मामीजी का देहांत हो गया था। अपने पालकों की मृत्यु को निहारते दीनदयाल का यह पंद्रहवां वर्ष था।

इसी छोटी आयु में दीनदयाल अपने सहोदर लघु भ्राता शिवदयाल के पालक भी थे। विधता की प्रताड़नाओं ने इनका परस्पर स्नेह अधिाक संवेदनशील व स्निग्धा कर दिया था। अभी तक दीनदयाल ने अपने पालकों की मृत्यु का ही अनुभव किया था। शायद नियति इस बालक को मृत्यु का सर्वागत: दर्शन करवाने पर तुली थी। जब दीनदयाल नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे और अठारहवें वर्ष में थे तब छोटा भाई शिवदयाल रोगग्रस्त हो गया। उसे मोतीझरा हो गया था। दीनदयाल ने अपने छोटे भाई को बचाने की बहुत कोशिश की। सब प्रकार के उपचार करवाए। पर 19 नवंबर, 1934 को शिवदयाल अपने बड़े भाई दीनदयाल को अकेला छोड़कर संसार से विदा हो गया।

अभी भी दीनदयाल पर एक झुर्रियों भरा स्नेहिल आशीर्वाद का हाथ था। वृध्दा नानी दीनदयाल को बहुत प्यार करती थी। हालांकि अपनी पढ़ाई व अन्य पारिवारिक कारणों से वे नानी के पास अधिाक न रह सके थे तो भी नानी-दुहिते में अनन्य स्नेह था। यह 1935 का वर्ष था। दीनदयाल ने दसवीं पास की थी। वे उन्नीस साल के हो गए थे। इसी वर्ष जाड़े के दिनों में नानी बीमार हुई और चल बसीं।

पिता, माता, नाना, मामी, लघु भ्राता और अब नानी की मृत्यु ने दीनदयाल को अनुभवसिद्ध किया। उनकी चेतना मौत के प्रहारों से कुम्हलाई तो नहीं, पर युवक दीनदयाल एक सतेज उदासी का धनी बनता जा रहा था। दीनदयाल की एक छोटी ममेरी बहन थी। बहन-भाई के स्नेह-स्निग्धा रिश्तें की सभी तरलताएं इन दोनों के मध्‍य पूरे तौर पर सुविकसित हुई थी। दीनदयाल आगरा में एम.ए. (अंग्रेजी) की पढ़ाई कर रहे थे। बहन रामादेवी बहुत बीमार हो गई थी। दीनदयाल ने अपनी पढ़ाई छोड़कर रामादेवी की सेवा तथा उपचार के सब साधन जुटाए। पर नियति को यही मंजूर था कि अपनी बहन की मौत का साक्षात्कार भी दीनदयाल को होना चाहिए। बचाने की सब कोशिशों के बावजूद रामादेवी के प्राणपखेरू उड़ गए। यह सन् 1940 था। दीनदयाल चौबीस वर्ष के हो गए थे।

मृत्यु ने उनके शिशु, बाल, किशोर व युवा मन पर निरंतर आघात किए। न मालूम उनके चिरप्रशंसित वैरागी जीवन में नियति के इस तथाकथित क्रूर निदर्शन का कितना हाथ था।

सतत प्रवासी

दीनदयाल अक्षरश: अनिकेत थे। शिशु अवस्था के केवल ढाई वर्ष वे अपने पिता के के घर रहे। उसके बाद उनका प्रवासी जीवन प्रारंभ हो गया। वे कभी लौटकर रहने के लिए अपने घर नहीं आए। पारिवारिक कारणों से उन्हें अपने नाना चुन्नीलाल के साथ रहने के लिए धनकिया राजस्थान जाना पड़ा। चुन्नीलाल अपने दो पुत्रों नत्थीलाल व हरिनारायण तथा बाद में दामाद भगवतीप्रसाद (दीनदयाल जी के पिताजी) की मृत्यु से बहुत आहत हुए। उन्होंने नौकरी छोड़ दी तथा वे अपने घर गुड़-की-मँड़ई आ गए। दीनदयाल के नौ वर्ष के होने पर भी उनके अध्‍ययन की कोई व्यवस्था न थी। अत: वे अपने मामा राधारमण, जो गंगापुर में सहायक स्टेशन मास्टर थे, के पास आ गए। यहां वे चार वर्ष रहे। गंगापुर में उस समय कक्षा चार से आगे की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी। अत: 12 जून 1929 को कोटा के एक स्कूल में उनका प्रवेश हुआ। वे वहां ‘सेल्फ सपोर्टिंग हाऊस’ में रहते थे। तीन साल वहीं रहे। तत्पश्चात् उन्हें राजगढ (जिला अलवर) आना पड़ा। मामा राधारमण के चचेरे भाई नारायण शुक्ल का स्थानांतरण सीकर हो गया। एक साल सीकर में रहकर दसवीं कक्षा उत्तीर्ण की। वहां से उच्चशिक्षा के लिए पिलानी गए और दो वर्ष रहकर इंटरमीडिएट किया। यह सन् 1936 था। इसी वर्ष बी.ए. की पढ़ाई के लिए कानपुर गए। यहां दो वर्ष रहकर एम.ए. की पढ़ाई के लिए आगरा गए। यहां राजामंडी में किराए के मकान में रहे। दो वर्ष यहां रहकर 1941 में 25 वर्ष की अवस्था में बी.टी. करने के लिए प्रयाग चले गए। इसके साथ ही उनका प्रवेश सार्वजनिक जीवन में हुआ और वे अखंड प्रवासी हो गए।

25 वर्ष की अवस्था तक दीनदयाल उपाध्‍याय राजस्थान व उत्तर प्रदेश के कम-से-कम ग्यारह स्थानों पर कुछ-कुछ समय रहे। अपना घर, सुविधा व स्थायित्व का जीवन शायद लोगों में मोह उत्पन्न करता है। दीनदयाल का बचपन कुछ यों बीता कि ऐसे किसी मोहजाल की कोई संभावना न थी। सार्वजनिक जीवन में आकर आजीवन बेघर व घुमंतू रहने में प्रारंभिक काल का यह अनिकेती जीवन निश्चय ही उनकी मनसंरचना में सहायक हुआ होगा।

नये-नये स्थान, नये-नये अपरिचित लोगों से मिलना, उनमें पारिवारिकता उत्पन्न करना उन्होेंने बचपन की इस अनिकेत अवस्था में ही सीखा होगा, शायद!

मेधावी छात्र जीवन

स्थितियां जिस प्रकार की रहीं तद्नुसार नौ वर्ष की अवस्था तक उनकी पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। 1925 में गंगापुर में अपने मामा राधारमण के यहां आने पर उनकी शिक्षा प्रारंभ हो सकी। घर में कोई अन्य विद्यार्थी नहीं था। पढ़ाई का वातावरण नहीं था। गृहदशा पारिवारिक आपदाओं के कारण बहुत क्लांत व तनावभरी थी। सुविधाएं कुछ न थीं। दीनदयाल दूसरी कक्षा के छात्र थे। उनके मामा राधारमण बहुत बीमार पड़ गए। दीनदयाल मामा की सेवा के लिए उनके उपचारार्थ उनके साथ आगरा गए। परीक्षा के कुछ ही दिन पूर्व राधारमण वापस गंगापुर आए। दीनदयाल ने परीक्षा दी। वे कक्षा में प्रथम आए। मामा की सेवा करते हुए ही उन्हाेंेने तीसरी व चौथी की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसी काल में उनके मेधावी विद्यार्थी होने का परिवार व विद्यालय के लोगों को अहसास हुआ।

कक्षा 5 से 7 की पढ़ाई कोटा में कर उन्होंने 8वीं कक्षा के लिए राजगढ़ में प्रवेश लिया। अंकगणित में उनकी अद्भुत क्षमता का परिचय मिला। जब वे नवीं में थे तो कहते हैं कि दसवीं के विद्यार्थी भी उनसे गणित के सवाल हल करवाया करते थे। लेकिन अगले ही वर्ष उन्हें अपने मामाजी के स्थानांतरण के कारण सीकर जाना पड़ा। उन्होंने दसवीं की परीक्षा कल्याण हाई स्कूल सीकर से दी। वे न केवल प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए वरन् समस्त बोर्ड की परीक्षा में वे सर्वप्रथम रहे। सीकर के तत्कालीन महाराजा कल्याण सिंह ने उनहें तद्निमित्ता स्वर्ण पदक प्रदान किया, 10 रूपए माहवार छात्रवृत्ति व पुस्तकों आदि के लिए 250 रूपए की राशि पारितोषिक के रूप में दी।

उन दिनों पिलानी उच्च शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र था। दीनदयाल इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए 1935 में पिलानी चले गए। 1937 में इंटरमीडिएट बोर्ड की परीक्षा में बैठे और न केवल समस्त बोर्ड में सर्वप्रथम रहे वरन् सब विषयों में विशेष योग्यता के अंक प्राप्त किए। बिरला कॉलेज का यह प्रथम छात्र था जिसने इतने सम्मानजनक अंकों से परीक्षा पास की थी। सीकार महाराजा के समान ही घनश्यामदास बिड़ला ने एक स्वर्णपदक, 10 रूपये मासिक छात्रवृत्तिा तथा पुस्तकों आदि के खर्च के लिए 250 रूपए प्रदान किए।

सन् 1939 में सनातन धर्म कॉलेज, कानुपर के प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करने के लिए सैंट जॉन्स कॉलेज में प्रवेश लिया। एम.ए. प्रथम वर्ष में उन्हें प्रथम श्रेणी के अंक मिले। बहन की बीमारी के कारण एम.ए. उत्तरार्ध्द की वे परीक्षा न दे सके। मामाजी के बहुत आग्रह पर वे प्रशासनिक परीक्षा में बैठे। उत्तीर्ण हुए। साक्षात्कार में भी वे चुन लिए गए। पर, उन्हें प्रशासनिक नौकरी में रूचि न थी। अत: बी.टी. करने के लिए प्रयाग चले गए। इसके साथ ही उनका प्रवेश सार्वजनिक जीवन में हुआ और वे अखंड प्रवासी हो गए।

निर्भीक एवं सेवाभावी

बाल्यावस्था में जब दीनदयाल केवल सात-आठ वर्ष के थे, एक बार उनके घर पर डाकुओं ने आक्रमण कर दिया। एक डाकू ने उनकी मामी को धकेलते हुए तथा दीनदयाल को गिराकर उनकी छाती पर पांव रखकर घर के आभूषण्ा मांगे। दीनदयाल ने डाकू के पांव के नीचे दबे-दबे ही कहा, ‘हमने सुना था कि डाकू गरीबों की रक्षा के लिए अमीरों का धन लूटते हैं, किंतु तुम तो मुझ गरीब को भी मार रहे हो।’ डाकू सरदार पर अबोध बालक की निर्भयता का असर हुआ। वह गिरोह लेकर वहां से चला गया।

इसी प्रकार 1917 में ममेरी बहन रामा के बीमार होने पर उसकी सेवा के लिए न केवल अपनी एम.ए. की पढ़ाई छोड़ दी वरन् जब डॉक्टर व वैद्यों के उपचार से कोई लाभ न हुआ तो स्वयं अध्‍ययन कर उसको निसर्गोपचार दिया पर वे उसे भी बचा न सके।

राजगढ़ व सीकर में उनकी अध्‍ययन-क्षमता की धाक तो जम ही गई थी, लेकिन दीनदयाल में इस कारण अहम नहीं वरन् कमजोर छात्रों के प्रति करूणा का भाव उत्पन्न हुआ। पिलानी में कमजोर छात्रों को पढ़ाने के लिए उन्होंने जीरो एसोसिएशन का निर्माण किया जिसमें कमजोर विद्यार्थियों को पढ़ाने की व्यवस्था थी।

स्थितियां ऐसी थीं ही नहीं कि दीनदयाल के उपद्रवों को कोई सहता। तो भी बालसुलभ चांचल्य तो उनमें था ही। लेकिन एक बार यदि किसी ने उनको टोक दिया तो फिर वे किसी ऐसी घटना की पुनरावृत्तिा नहीं होने देते थे। उनके ममेरे भाई व उनकी मामी अभी भी उनके इस स्वभाव को याद करते हैं। स्वाभाविक है, जिस प्रकार की स्थितियां थीं उसमें उनका चांचल्य उपद्रवकारी बने, इसकी कोई संभावना न थी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संपर्क

दीनदयाल उपाध्‍याय जब 1937 में बी.ए. की पढ़ाई के लिए कानुपर गए तब अपने सहपाठी बालूजी महाशब्दे के माध्‍यम से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए। वहीं उनकी भेंट संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार से हुई। श्री बाबासाहब आपटे व दादाराव परमार्थ इनके छात्रावास में ही ठहरते थे। इनकी दीनदयाल से बहुत बातें होती थी। स्वातंत्र्य वीर सावरकर जब कानुपर आए तो दीनदयाल जी उन्हें शाखा आमंत्रित कर ‘बौध्दिक वर्ग’ करवाया। कानुपर में सुंदरसिंह भंडारी भी उनके सहपाठी थे। कानपुर के इस विद्यार्थी जीवन से ही पं. दीनदयाल उपाध्‍याय का सार्वजनिक जीवन प्रांरभ हो जाता है।

1937 के बाद 1941 तक वे छात्र रहे। 1941 में प्रयाग से बी.टी. की परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन उन्होंने नौकरी नहीं की, गृहस्थी भी नहीं बसाई। कानुपर, आगरा व प्रयाग में अध्‍ययन के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नागपुर मे ग्रीष्मावकाश में 40 दिन तक चलने वाला ‘संघ शिक्षा वर्ग’ का प्रशिक्षण प्रथम वर्ष 1939 में द्वितीय वर्ष 1942 में प्राप्त किया। संघ के शारीरिक कार्यक्रमों को दीनदयाल उपाध्‍याय बहुत ठीक प्रकार नहीं कर पाते थे, लेकिन बौध्दिक परीक्षा में वे प्रथम आए। इस संदर्भ में श्री बाबासाहब आपटे लिखते हैं:

‘पं. दीनदयाल जी ने उत्तर पुस्तिका में कई हिस्से पद्यबद्ध लिखे थे, किंतु वह केवल तुकबंदी नहीं थी अथवा केवल कल्पना का विचार भी नहीं था। गद्य के स्थान पर पद्य का माध्‍यम अपनाया गया था। विवेचन नपेतुले शब्दों में था और वर्कशुद्ध था। मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।’

अपनी पढ़ाई पूर्ण करने तथा संघ का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद पं. दीनदयाल उपाध्‍याय राष्ट्रीय स्वयंसेकवक संघ के प्रचारक बन गए। वे आजीवन संघ के प्रचारक ही रहे। संघ के माध्‍यम से ही वे राजनीति में गए, भारतीय जनसंघ के महामंत्री बने, अध्‍यक्ष रहे तथा एक संपूर्ण राजनीतिक विचार के प्रणेता बने।

भारतीय सार्वजनिक किंवा राजनीतिक क्षेत्र से पं. दीनदयाल का संपर्क 1937 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्‍यम से ही हुआ। तब श्री उपाध्‍याय 21 वर्ष के नवयुवा थे। तत्कालीन भारतीय राजनीति में क्र्रांतिकारियों व कांग्रेस के प्रयत्नों के साथ कभी उनका संपर्क नहीं हुआ। संघ के स्वयंसेवक के नाते ही दीनदयालजी ने इन आंदोलनों को देखा। उन्होंने संघधारा को ही अपनी जीवनधारा बनाना स्वीकार किया।

संघप्रचारक एवं दृष्टि पथ

1937 से 1941 तक तो दीनदयाल उपाध्‍याय छात्र ही थे। वे अध्‍ययन करते हुए परिश्रमपूर्वक संघ कार्य करते थे। दादाराव परमार्थ, बाबासाहब आपटे एवं भाऊराव देवरस के संपर्क ने उनहें अपना जीवन संघ कार्य के लिए समर्पित करने को उत्प्रेरित किया। अपना छात्रजीवन पूर्ण करने के बाद उन्होंने 1942 में संघ के प्रचारक के रूप में अपने आपको समर्पित कर दिया। दीनदयाल उपाध्‍याय का प्रत्यक्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यकाल 1937 से 1951 तक, सामान्यत: चौदह वर्ष रहा। 1937 से 1947, यह दस वर्ष का काल आजादी के आंदोलन का काल था। 1948 से 1951, भारतीय जनसंघ की स्थापना के पूर्व की प्रमुख घटनाओं का काल था। आजादी एवं विभाजन का आगमन, महात्मा गांधी की हत्या, संघ पर प्रतिबंध, संघ द्वारा सत्याग्रह और प्रतिबंध से मुक्ति, संविधान-निर्माण व भारतीय गणतंत्र की स्थापना, देशी राज्यों का एकीकरण व नवीन राजनीतिक दलों का निर्माण – इस दौरान दीनदयाल की भूमिका संघ के स्वयंसेवकों एवं प्रचारक की रही। हालांकि।

वर्ष 1952 में वे जनसंघ में शामिल हुए और अ.भा. महामंत्री नियुक्त किए गए, इस पद पर वे 1967 में पार्टी अध्‍यक्ष बनने तक प्रतिष्ठित रहे।

डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के बाद उन्होंने पार्टी को मजबूत करने का दायित्व संभाला और इस श्रम-साध्‍य कार्य में अद्भुत सफलता प्राप्त की। अपने अथक परिश्रम से उन्होंने भारतीय जनसंघ को विशिष्ट राजनीतिक दल बनाने में अहम भूमिका बनाई।

दीनदयालजी ने ‘पांचजन्य’ साप्ताहिक तथा लखनऊ से ‘स्वदेश’ (दैनिक) का संपादन किया। उन्होंने हिन्दी में एक उपन्यास ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ लिखा और बाद में हिन्दी में ही ‘शंकराचार्य’ जीवनी लिखी। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार की मराठी जीवनी का अनुवाद किया।

11 फरवरी 1968 को त्रासद परिस्थितियों में उनकी मृत्यु से देश को अपार क्षति हुई, जो अपूरणीय थी।

4 COMMENTS

  1. अन्तोदय के सृजक पं. जी से हमारे पारिवारिक सम्बन्ध रहे है . बरेली से अंतिम बैठक कर ही गए थे और मुगलसराय पर मृत पाए गए . आज उस गुदडी के लाल को उसके ही लोग सिर्फ २५ सितम्बर को ही याद करते है

  2. आपने महान दीनदयाल जी के बारे मैं विस्तृत जानकारी दी इसके लिए आभारी हूँ |

    दीनदयाल जी ने जिस प्रकार की त्रासदी झेल कर शिखर तक आये वो अद्भुत है | उनके जैसा महान राजनीतिज्ञ का असमय जाना भारतीय और जनसंघ के लिए अच्छा नहीं रहा |

    ऐसे महापुरुष को मेरा नमन |

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