परबुद्ध सम्मेलन 

1
222

मैं दोपहर बाद की चाय जरा फुरसत से पीता हूं। कल जब मैंने यह नेक काम शुरू किया ही था कि शर्मा जी का फोन आ गया।

– वर्मा, पांच बजे जरा ठीक-ठाक कपड़े पहन कर तैयार रहना। दाढ़ी भी बना लेना। एक खास जगह चलना है। वहां से रात को खाना खाकर ही लौटेंगे।

– अरे वाह; आपने अपने जन्मदिन या विवाह की वर्षगांठ पर दावत रखी है क्या ?

– दावत तो है, पर ऐसा कोई अवसर नहीं है।

– फिर..?

– तुम्हें इससे क्या लेना, तुम तो तैयार रहना।

– शर्मा जी, आप तो पहेलियां बुझा रहे हैं। कुछ तो बताइये। मैडम को भी कह दूं क्या ?

– नहीं-नहीं। बस तुम और मैं ही चलेंगे। वहां एक कार्ड पर दो ही लोग जा सकते हैं।

– कोई नाटक है क्या ?

– फिर वही बेकार की बात। तुम तो बस तैयार रहना।

शर्मा जी मेरे अति प्राचीन मित्र हैं। हम एक-दूसरे की बात प्रायः नहीं टालते। अतः मैं पांच बजे से पांच मिनट पहले ही तैयार हो गया। शर्मा जी अपनी गाड़ी कम ही निकालते हैं; पर आज उसे लेकर वे समय से आ गये और हम चल दिये; पर मेरी जिज्ञासा अपनी जगह विद्यमान थी।

– शर्मा जी, कुछ तो बताइये। हम कहां चल रहे हैं ?

– एक विशाल ‘परबुद्ध सम्मेलन’ है, बस वहीं जाना है।

– कोई बौद्ध संत आ रहे हैं क्या ?

– अरे पगले, परबुद्ध सम्मेलन का बौद्ध धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो शहर के कुछ खास परबुद्ध लोगों के लिए है।

इतना कहकर शर्मा जी मुझे एक कार्ड थमा दिया। असल में सत्ता पक्ष के एक बड़े नेताजी के आगमन पर एक ‘प्रबुद्ध सम्मेलन’ रखा गया है। उसे ही शर्मा जी बार-बार ‘परबुद्ध सम्मेलन’ कह रहे थे। सम्मेलन के बाद सामूहिक भोज भी था।

– शर्मा जी, आपने दो साल में हाई स्कूल और तीन साल में इंटर किया था। इसके बाद 40 साल आपने दफ्तर में कलम घिसी। तो फिर आप प्रबुद्ध कैसे हो गये ?

– यही तो तुम्हारे दिमाग का छोटापन है। इसका पढ़ने-लिखने से कुछ संबंध नहीं है। ये तो शुद्ध राजनीतिक कार्यक्रम है।

– पर शर्मा जी, आप तो इस पार्टी में भी नहीं हैं ?

– तुम समय से पीछे चलते हो वर्मा और मैं समय से आगे। मेरी सभी पार्टियों के लोगों से दोस्ती है। जो पार्टी सत्ता में होती है, मैं उसी की चादर ओढ़ लेता हूं। तुम तो आज तक मुझे ऐसी किसी जगह नहीं ले गये; पर मेरा दिल इतना छोटा नहीं है।

कार्यक्रम में पहुंचे, तो मैंने आसपास देखा। अगली लाइन में ‘भारत साइकिल स्टोर’ के मालिक रम्मू भैया बैठे थे। यों तो वे छठी पास थे; पर अपनी जुगाड़ बुद्धि से उन्होंने पैसा अच्छा कमा लिया था। पीछे जमीन के धंधे में मोटा माल बनाने वाले जमीनी नेता सरजू बाबू बैठे थे। उनके बगल में अवैध बूचड़खाने के वैध संचालक अच्छे मियां थे। वे पिछले हफ्ते ही जमानत पर जेल से छूटे थे। यद्यपि हॉल में रोशनी कम थी; पर ऐसे कई लोग और भी वहां दिखे, जिन्होंने किसी न किसी कारण से नाम (?) कमाया है।

निश्चित समय से एक घंटा देरी से नेता जी आये। आधे घंटे तक उनका स्वागत, अभिनंदन और गुणगान हुआ। फिर आधा घंटा वे बोलेे। इसके बाद धन्यवाद ज्ञापन और फिर भव्य भोज।

लौटते हुए मैंने अपनी समस्या फिर शर्मा जी के सामने रख दी कि ये कम शिक्षित और गलत काम करने वाले प्रबुद्ध कैसे हो गये ? शर्मा जी हंसकर बोले, ‘‘प्यारे वर्मा लाल। जो तुम बता रहे हो, वह पुरानी परिभाषा है। इन दिनों तो जिसे सत्तापक्ष वाले मान लें, वही परबुद्ध है।’’

मेरी बुद्धि के चारों कपाट एक साथ खुल गये।

– विजय कुमार

1 COMMENT

  1. श्रीमान विजय जी का यह व्यंग पढ़कर मजा आ गया! आजकल ज्यादातर यही तो हो रहा है! जिनको साठ साठ पेंसठ साल समाज के कार्य में हो गए हैं उन्हें कल परसों ही सत्ता की बदल के बाद सामने आये “राजपूत” (जिसका राज उसके पूत) शिक्षा और ‘मार्गदर्शन’ देते दिखाई देते हैं! भगवान भला करे!

Leave a Reply to ANIL GUPTA Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here