कुचल दो कुयाशा की शाखाएँ !

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कुचल दो कुयाशा की शाखाएँ,
कुहक ले चल पड़ो कृष्ण चाहे;
कृपा पा जाओगे राह आए,
कुटिल भागेंगे भक्ति रस पाए !

 

भयंकर रूप जो रहे छाए,
भाग वे जाएँगे वक़्त आए;
छटेंगे बादलों की भाँति गगन,
आँधियाँ ज्यों ही विश्व प्रभु लाएँ !

 

देखलो क्या रहा था उनके मन,
जान लो कहाँ रही तव चितवन;
जला दो कन्दरा अँधेरे की,
प्रकाशित कर दो अन्ध गति उनकी !

 

भवकियाँ उनकी गीदड़ों जैसी,
भाँप कब पातीं सिंह की झाँकी;
चूर्ण होना ही नियति है उनकी,
निमित्त मात्र बनो बिन झिझकी !

 

उठा गाण्डीव तान सर मारो,
करो उद्धार उनका संहारो;
विचारो ना ‘मधु’ इशारा पा,
ध्यान से हनन करो चित साये !

 

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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