पेगासस: विदेशी मीडिया पर इतना भरोसा क्यों?

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-ः ललित गर्गः-
आम-जनता को गुमराह करने, उसका ध्यान जरूरी मुद्दों से हटाने, सरकार को घेरने के लिये अतार्किक मसलों को हवा देने और संसदीय सत्र में अवरोध पैदा करने की स्थितियां विपक्ष के द्वारा बार-बार खड़ी की जाती रही हैं, जिन्हें लोकतंत्र के लिये उचित नहीं कहा जा सकता। एक बार फिर बजट सत्र में विपक्ष पेगासस के जासूसी यंत्र को लेकर सरकार को घेरने की तैयारी कर रहा है। प्रत्येक सत्र के पूर्व इस तरह की तैयारी अब एक चलन का रूप ले चुकी है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह प्रवृत्ति अब अनियंत्रित होती दिख रही है। यही कारण है कि संसद के पिछले अनेक सत्र विपक्ष के हंगामे की भेंट चढ़ गए। ऐसा लगता है कि यह सिलसिला इस बजट सत्र में भी कायम रहने वाला है। पेगासस को लेकर भारतीय न्यायालय की बजाय विदेशी मीडिया पर अधिक भरोसे से विपक्ष के दुराग्रह को सहज ही समझा जा सकता है।
देश में एक बार फिर पेगासस के जासूसी यंत्र को लेकर काफी चर्चा हो रही है। जिसको लेकर विपक्षी दल लगातार सरकार पर निशाना साध रहे हैं, आक्रामक बने हुए है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक पांच साल पहले भारत सरकार द्वारा इस्राइल के साथ दो अरब डॉलर (करीब 15 हजार करोड़ रुपये) का रक्षा सौदा किया गया था। इसके साथ ही पेगासस स्पाईवेयर की खरीद भी की थी। इस रक्षा डील में भारत ने कुछ हथियारों के साथ एक मिसाइल सिस्टम भी खरीदा था। भारत में इस स्पाईवेयर के जरिए विपक्षी दल के कई नेताओं, पत्रकारों व एक्टिविस्ट की जासूसी करने की बात सामने आ रही है। ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने ज्यों ही यह खबर उछाली मानो भारत के सारे विरोधी दलों को जैसे कोई खजाना मिल गया हो। उन्हें सरकार पर हमले करने के मानो तीक्ष्ण हथियार मिल गया हो। उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि सर्वाेच्च न्यायालय ने इस सारे मामले पर पहले से जांच बिठा रखी है। जब यह मामला संसद के पिछले सत्र में उठ चुका है तो इतना हंगामा हुआ कि संसद ही ठप्प हो गई थी। यहां मूल प्रश्न है जो यही इंगित करता है कि विपक्षी दलों को सुप्रीम कोर्ट से ज्यादा भरोसा उन मीडिया समूहों पर है जिनके बारे में इसे लेकर कोई संशय नहीं कि वे न केवल मोदी सरकार बल्कि भारत के प्रति दुराग्रह से भरे हुए हैं।
‘न्यूयार्क टाइम्स’ का यह दुराग्रह ही है कि पिछली बार की तरह इस बार भी उसने ने पेगासस के जासूसी यंत्र की खबर को ऐसे समय उछाला है जब संसद में बजट सत्र चालु होना है। पिछली बार भी संसद सत्र प्रारंभ होने से कुछ दिन पहले यह मसला उछाला गया था। आश्चर्य की बात है कि विरोध की तीव्रता और दीर्घता के बावजूद पिछली बार भी यह निस्तेज रहा, इस बार भी यह मुद्दा विरोध के लिये विरोध से ज्यादा नहीं कहा जा सकता। पेगासस को लेकर राहुल गांधी ज्यादा ही आक्रामक है, उनका यह आरोप है कि सरकार ने देशद्रोह किया है, बचकाना है। उचित यह होगा कि विपक्ष और विशेष रूप से कांग्रेस इस पर गंभीरता के साथ आत्ममंथन करे कि शोरशराबे की इस राजनीति से उसे हासिल क्या हो रहा है? यदि राहुल गांधी और उनके सहयोगी यह समझ रहे हैं कि संसद में राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर सार्थक बहस करने के बजाय सतही विषयों पर हंगामा करने से कांग्रेस का भला हो रहा है तो यह सही नहीं। चूंकि कांग्रेस राष्ट्र को दिशा देने में सहायक कोई विमर्श खड़ा कर पाने में बुरी तरह नाकाम है इसीलिए जनता के बीच उसकी प्रतिष्ठा गिरती जा रही है और एक के बाद एक कांग्रेसी नेता दूसरे दलों की ओर रुख कर रहे हैं या विभिन्न राज्यों में वह अपना अस्तित्व की समाप्त करने के कगार पर पहुंचा गयी है।
मोदी रूपी उजाले पर कालिख पोतने की विपक्षी दलों की कोशिशंे लगातार हो रही है, जो उनके बुद्धि के दिवालियापन को दर्शाती है। इस प्रकार की स्वार्थप्रेरित, राष्ट्र तोड़क, उद्देश्यहीन, उच्छृंखल, विध्वंसात्मक विरोध से किसी का भी हित सधता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। इस तरह का विरोध कोई नई बात नहीं है, न ही उससे उन व्यक्तियों अथवा संस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिनकी ऐसी आलोचना की जाती है। यह तो समय, शक्ति, अर्थ एवं सोच का अपव्यय है। विभिन्न राजनैतिक दलों, कांग्रेस एवं वामपंथी दल ऐसा कोई अवसर नहीं छोड़ते जब वे मोदी की छवि को तार-तार न करते हो। यह तो सर्वविदित है कि मोदी को बदनाम करने की लगातार कोशिश हो रही है, लेकिन इन विरोधों के बावजूद वे और उनका व्यक्तित्व अधिक निखार पाता रहा है।
पेगासस के जासूसी यंत्र एवं अन्य मुद्दे ऐसे मुद्दे हैं जिनके जरिये कांग्रेस एवं विपक्ष पिछले सत्रों में भी हंगामा करके संसद के समय की बर्बादी कर चुका है। क्या यह उचित नहीं होगा कि विपक्ष इसकी तैयारी पर ज्यादा ध्यान दे कि आगामी बजट पर संसद के दोनों सदनों में कोई ठोस चर्चा कैसे हो? बजट की कमियों को किस तरह दूर किया जाये? भले ही विपक्ष यह संदेश देने की कोशिश कर रहा हो कि वह किसानों की समस्याओं को हल करने के लिए व्यग्र है, लेकिन सच्चाई यह है कि उसने तीनों कृषि कानूनों पर जैसा रवैया अपनाया और ऐसी परिस्थितियां पैदा कीं कि सरकार को अनिच्छापूर्वक इन कानूनों को वापस लेने के लिए बाध्य होना पड़ा, उसके बाद विपक्षी दल यह कहने के अधिकारी नहीं रह जाते कि वे किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए प्रयत्नशील हैं। विपक्ष एवं कांग्रेस चाहे जो दावा करे, सच यह है कि वह देश का ध्यान भटकाने वाली राजनीति की राह पर चल निकले हैं और इसका उदाहरण है एक बार फिर पेगासस प्रकरण को तूल देने की तैयारी। अभी यह अंधेरे में है कि सरकार ने इस्राइल से यह जासूसी यंत्र खरीदा भी है या नहीं और इस यंत्र से उसने विरोधी नेताओं, पूंजीपतियों, पत्रकारों और महत्वपूर्ण नागरिकों की किसी तरह की जासूसी की भी है या नहीं। यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला भी हो सकता या सरकार के द्वारा यह यंत्र खरीदना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये जरूरी आवश्यकता भी हो सकती है। आखिर जब इस प्रकरण की जांच सुप्रीम कोर्ट की समिति कर रही है तब फिर विपक्षी दल इस जांच समिति की रपट की प्रतीक्षा करने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं?
हमारे राजनीतिक दलों का कलेवर ही कुछ ऐसा हो गया है कि वहां सच और झूठ की शक्तियों के बीच परस्पर संघर्ष चलता रहता है। कभी झूठ और कभी सच ताकतवर होता रहता है पर असत्य का कोई अस्तित्व नहीं होता और सत्य कभी अस्तित्वहीन नहीं होता। राजनीतिक दलों की सत्य के प्रति तड़प सार्वजनिक/सामूहिक अभिव्यक्ति कर्म के स्तर पर हो तो लोगों की सोच में आमूल परिवर्तन खुद-ब-खुद आयेगा। एक समानता दोनों में है कि न झूठ छुपता है और न सत्य छुपता है। दोनों की अपनी-अपनी चाल है। कोई शीघ्र व कोई देर से प्रकट होता है। झूठ जब जीवन का आवश्यक अंग बन जाता है तब पूरी पीढ़ी शाप को झेलती, सहती और शर्मसार होकर लम्बे समय तक बर्दाश्त करती है। झूठ के इतिहास को गर्व से नहीं शर्म से पढ़ा जाता है। आज हमें झण्डे, कलश और नारे नहीं सत्य की पुनः प्रतिष्ठा चाहिए। हर लड़ाई झूठ से प्रारम्भ होती है पर उसमें जीत सत्य से ही होती है। झूठ कभी भी सत्य का स्थान नहीं ले सकता, वह सदैव निस्तेज रहता है। झूठ के पंख होते हैं, पांव नहीं। यह बात राजनीतिक दलों को समझ क्यों नहीं आती?
यह विडम्बना है कि सत्य जब तक जूतियां पहनता है झूठ नगर का चक्कर लगा आता है। झूठ के सांड को सींग से नहीं पकड़ा जाता, उसकी नाक में नकेल डालनी होती है। जीवन के प्रत्येक क्षण में इससे लड़ना होता है। जीवन में झूठ का उन्मूलन ही सत्य का संस्थापन है। लेकिन राजनीतिक दलों में इतना साहस एवं निस्वार्थता नहीं है कि वे सत्य को पकड़कर झूठ को प्रकट कर सके। अक्सर वे अपने स्वार्थों के लिये झूठ को पकड़कर सत्य को ढंकते रहे हैं, यही राजनीतिक दलों की बड़ी विडम्बना है, जो लोकतंत्र को कमजोर करती है। ऐसी ही स्थिति पेगासस को लेकर हो तो कोई आश्चर्य नहीं?

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