राष्ट्र को समर्पित व्यक्तित्व : श्री गुरूजी

मृत्युंजय दीक्षित

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर जिन्हें सब प्रेम से श्री गुरूजी कहकर पुकारते हैं ऐसे महान व्यक्तित्व का जन्म 19 फरवरी, 1906 को नागपुर में अपने मामा के घर पर हुआ था। उनके पिता श्री सदाशिव गोलवलकर उन दिनों नागपुर से 70 कि0मी0 दूर रामटेक में अध्यापक थे। माधव बचपन से ही मेधावी छात्र थे। उन्होंने सभी परीक्षाएं सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। वे अपनी कक्षा मे हर प्रश्न का उत्तर देते थे अतः उन पर उत्तर देने के लिए तब तक के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया जब तक कि कक्षा का कोई अन्य छात्र उन प्रश्नों का उत्तर न दे दे। वे अपने पाठयक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें भी खूब पढ़ते थे। अध्ययन के अतिरिक्त उन्हें हॉकी, टेनिस, सितार एवं बांसुरी वादन भी अत्यंत प्रिय थे। उच्च शिक्षा के लिए काशी जाने पर उनका संपर्क संघ से हुआ। वे नियमित रूप से शाखा जाने लगे। जब डा. हेडगेवार काशी आये तो उनसे वार्तालाप में माधव का संघ के प्रति विश्वास और दृढ़ हो गया। कुछ समय काशी में रहकर वे नागपुर लौट आये और कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की।इसी समय उनका सम्पर्क रामकृष्ण मिशन से भी हुआ और वे एक दिन चुपचाप बंगाल के सारगाछी आश्रम चले गये। वहां उन्होंने स्वामी अखण्डानंद जी से दीक्षा ली और तत्पश्चात पूरी शक्ति से संघ कार्य में जुट गये। पूरे देश में उनका प्रवास होने लग गया। उनकी योग्यता को देखकर डा. हेडगेवार ने उन्हें 1939 में सरकार्यवाह का दायित्व दिया। 21 जून, 1940 को डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद श्री गुरूजी सरसंघचालक बने। उन्होंने संघ कार्य को गति प्रदान करने के लिए पूरी शक्ति लगा दी। गुरूजी ने संघ को अखिल भारतीय सुदृढ़ अनुशासित संगठन का रूप दिया। पूरे देश में संघ कार्य बढ़ने लगा। परम पूज्य श्री गुरूजी को अपने जीवन में संघ कार्य के विरूध्द दुष्प्रचार का शिकार होना पड़ा। 1947 में देश विभाजन हुआ और 1948 में गांधी जी की हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया और श्री गुरूजी को जेल में डाल दिया गया। आक्षेप को भी श्री गुरूजी ने झेला लेकिन वे विचलित नहीं हुए जो भी जहर उगला गया उसे कण्ठ में धारण कर पीते गये और वे अमृत वर्षा करते गये। श्री गुरूजी का अध्ययन व चिंतन इतना सर्वश्रेष्ठ था कि वे देश भर के युवाओं के लिए ही प्रेरक पुंज नहीं बने अपितु पूरे राष्ट्र के प्रेरक पुंज व दिशा निर्देशक हो गये थे। वे युवाओं को ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रेरित करते रहते थे। वे विदेशों में ज्ञान प्राप्त करने वाले युवाओं से कहा करते थे कि युवकों को विदेशों में वह ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिसका स्वदेश में विकास नहीें हुआ है। वह ज्ञान सम्पादन कर उन्हें शीघ्र स्वदेश लौट आना चाहिए। वे कहा करते थे कि युवा शक्ति अपनी क्षमता का एक एक क्षण दांव पर लगाती हैं। अतः मैं आग्रह करता हूं कि स्वयं प्रसिध्दि संपत्ति एवं अधिकार की अभिलाषा देश की वेदी पर न्योछावर कर दें। वे युवाओं से अपनी पढ़ाई की ओर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा करते थे। वे युवाओं को विदेशी संस्कृति का अंधानुकरण न करने के लिए भी प्रेरित करते थे। श्री गुरूजी को प्रारम्भ से ही आध्यात्मिक स्वभाव होने के कारण सन्तों के श्री चरणों में बैठना, ध्यान लगाना, प्रभु स्मरण करना ,संस्कृत व अन्य ग्रन्थों का अध्ययन करने में उनकी गहरी रूचि थी। उनका धर्मग्रन्थों एवं विराट हिन्दूु दर्शन पर इतना अधिकार था कि एक बार शंकराचार्य पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया था जिसे उन्होंने सहर्ष अस्वीकार कर दिया। श्री गुरूजी को अनेकों आध्यात्मिक विभूतियों का प्यार व सानिघ्य प्राप्त था। श्री गुरूजी का राष्ट्रजीवन में भी अप्रतिम योगदान था। संघ कार्य करते हुए वे निरंतर राष्ट्रचिंतन किया करते थे। जब कभी भारत की एकता, अखण्डता की बात होगी तब-तब गुरूजी की राष्ट्रजीवन में किये गये योगदान की चर्चा अवश्य होगी। चाहे स्वतंत्रता के बाद कश्मीर विलय हो या फिर अन्य कोई महत्वपूर्ण प्रकरण। श्री गुरूजी को राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा की भारी चिंता लगी रहती थी। उनके अनुसार भारत कर्मभूमि, धर्मभूमि और पुण्यभूमि है। यहां का जीवन विश्व के लिए आदर्श है। भारत राज्य नहीं राष्ट्र है। राष्ट्र्र बनाया नहीं गया अपितु यह तो सनातन राष्ट्र है। श्री गुरूजी द्वारा प्रदत्त महान विचार पुंज तेजस्वी भारत राष्ट्र की परिकल्पना की सृष्टि करता है। श्री गुरूजी की आध्यात्मिक शक्ति इतनी प्रबल थी कि ध्यान इत्यादि के माध्यम से उन्हें आने वाले संकटों का आभास भी हो जाता था। श्री गुरूजी निरंतर राष्ट्र श्रध्दा के प्रतीकों का मान, रक्षण करते रहे। वे सदैव देशहित में स्वदेशी चेतना स्वदेशी व्रत स्वदेशी जीवन पध्दति, भारतीय वेशभूषा तथा सुसंस्कार की भावना का समाज के समक्ष प्रकटीकरण करते रहे। वे अंग्रेजी तिथि के स्थान पर हिंदी तिथि के प्रयोग को स्वदेशीकरण का आवश्यक अंग मानते थे। गौरक्षा के प्रति चिंतित व क्रियाशील रहते थे। श्री गुरूजी की प्रेरणा से ही गोरक्षा का आंदोलन संघ ने प्रारम्भ किया। विश्व भर के हिंदुओं को संगठित करने के उददेश्य से विश्व हिंदू परिषद की स्थापना की गयी। विद्या भारती के नेतृत्व में अनेकानेक शिक्षण संस्थाओं का श्री गणेश हुआ। उनकी प्रेरणा से सम्भवतः सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसा ही कोई क्षेत्र छूटा हो जहां संघ के आनुषांगिक संगठनों का प्रादुर्भाव न हुआ हो। श्रीगुरूजी अपने उदबोधनों में प्रायः यह कहा करते थे कि यदि देश के मात्र तीन प्रतिशत लोग भी समर्पित होकर देश की सेवा करें तो देश की बहुत सी समस्यायें स्वतः समाप्त हो जायेंगी। श्री गुरूजी ने लगभग 33 वर्षों तक संघ कार्य किया और पूरे देश भर में फैला दिया उनकी ख्याति पूरे देश में ही नहीं अपितु विश्व में भी फैल चुकी थी। 1970 में वे कैंसर से पीड़ित हो गये। शल्य चिकित्सा से कुछ लाभ तो हुआ पर पूरी तरह नहीं। इसके बाद भी वे प्रवास करते रहे । अपने समस्त कार्यों का सम्पादन करते हुएश्री गुरूजी ने 5 जून, 1973 को रात्रि में शरीर छोड़ दिया।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here