नाटक पर मंडराता खतरा

रंगमंच की जब भी हम बात करते हैं तो हमारे जेहन में नाटक, संगीत, तमाशा आदि घूमने लगती है। वास्तव में रंगमंच ‘रंग’ और ‘मंच’ शब्द से मिलकर बना है यानि कि किसी मंच/फर्श से अपनी कला, साज-सज्जा, संगीत आदि को दृश्य के रूप में प्रस्तुत करना। जहां इसे नेपाल, भारत सहित पूरे एशिया में रंगमंच के नाम से पुकारते हैं तो पश्चिमी देशों में इसे थियेटर कहकर पुकारा जाता है। ‘थियेटर’ शब्द रंगमंच का ही अंग्रेजी रूपांतरण है और जहां इसे प्रदर्शित किया जाता है उसे प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला, नाट्शाला या थियेटर/ ओपेरा के नाम से पुकारा जाता है। परन्तु साहित्य की इस महान परम्परा नाटक पर खतरा मंडरा रहा है.

प्रत्येक व्यक्ति के अंदर कोई न कोई कला व प्रतिभा छुपी होती है जिसे बंद कमरे में हो या खुले मंच में उसका प्रदर्शन करते रहते हैं। कुछ दशक पहले नाटकों में नुक्कड़ नाटकों का प्रचलन व्यापक था। गांव हो या शहर, वहां की गलियों में आए दिन नुक्कड़ नाटक देखने को मिल जाया करता था। दुर्गापूजा हो या सरस्वती पूजा यानि कि प्रत्येक पर्व के अवसर पर कहीं नाटक तो कहीं रामलीला तो कहीं कव्वाली जैसा कार्यक्रम का आयोजन किया जाता रहा है लेकिन अब इसका प्रचलन कम होता जा रहा है। आज इन सबके जगह ‘आर के एस्ट्रा’ जैसे अनेकों लड़कियों के डांस ने स्थान ले लिया है। यूं कहे कि आधुनिकता ने रंगमंच को भी नहीं बख्शा है जिससे हजारों वर्ष पूर्व की कला सब लुप्त होते जा रहे हैं। आर्थिक तंगी व इस क्षेत्र में पैसों की कमी की वजह से आज के युग में  नाटक लेखककार की कमी होती जा रही है तो वहीं नाटक के अनेकों कलाकार ने अपनी कला को अब आधुनिकता के लिबास से ढ़क लिया है तो कई अपनी इस विधा को छोड़कर अन्य कार्यों में लिप्त होते जा रहे हैं। इसलिए यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि थियेटर के लिए मुश्किलें बढ़ती ही जा रही है।

नाटक ऐसी विधा है जिसमें कलाकार द्वारा मंचन किया गया दृश्य सीधे दर्शकों के दिल में उतर जाती है। इसमें दृश्य और दर्शकों के बीच सीधा जुड़ाव होता है। इसका प्रारंभ भरत मुनि द्वारा लिखित ‘‘नाट्यशास्त्र’’ यानि कि लगभग 4500 वर्ष पूर्व से ही मानव जाता है। इसमें नाटक के सभी रूपों यथा पार्श्व संगीत, मंच संयोजन, वेश-भूषा, कथ्य आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसे प्रयोगात्मक तौर पर लागू करने का श्रेय भारतेंदु को जाता है जो हिंदी रंगमंच के पिता कहे जाते हैं। लेकिन वर्तमान में ऐसे कई भारतेंदु की आवश्यकता है जो इस विधा पर मंडराते संकट को दूर करने में सफल हो सके।

उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए ही 1961 में नेशनल थियेट्रिकल इंस्टीट्यूट ने अंतर्राष्ट्ीय रंगमंच दिवस की स्थापना की जिससे कि रंगमंच को लगातार प्रोत्साहन मिलता रहे। पहला अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संदेश फ्रांस की जीन काक्टे ने 1962 में दिया था तो वहीं वर्ष 2002 में यह संदेश भारत के प्रसिद्ध रंगकर्मी गिरीश कर्नाड द्वारा दिया गया था।

घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, लालच ने लोगों को अपने चंगुल में लेकर इतना तनाव पैदा कर दिया है कि लोगों की आंतरिक षांति विलुप्त हो गयी और लोग अवसाद से ग्रसित रहते हैं ऐसे में संगीत, नाटक आदि बड़े ही काम आते हैं। इसलिए इन तमाम विधा का मुख्यतः दो ही उद्देश्य होता है एक तो शुद्ध मनोरंजन तो दूसरा जागरूकता। जब कभी हम-आप अवसाद की स्थिति मंे होते हैं तो सबसे पहले संगीत का ही सहारा लेते हैं और अपने अवसाद को कम करने की कोशिश करते हैं लेकिन यदि आप किसी नाटक को देखने चले जाएं तो आपका अवसाद न्यूनतम स्तर तक चला जाता है। ऐसे में लगता है कि नाटक की यर्थाथता अभी भी हमारी जिन्दगी में बहुत है।

लेकिन अब समय आ गया है कि हजारों वर्ष पूर्व की इस रंगमंच को बचाया जाए जिससे इससे जुड़े कलाकार हतोत्साहित न हो सके। इसके लिए आवश्यक है कि रंगकर्मी को अपनी कला को प्रदर्शित करने के लिए लगातार मौका मिलना चाहिए जिससे उन्हें आर्थिक तंगी से सामना न करना पड़े और हमारी नाटक जैसी धरोहर बचा रह सके।

-निर्भय कर्ण

1 COMMENT

  1. आजकल मनोरंजन वह है जिसे हमे परोसा जा रहा है,किसी न किसी माध्यम जैसे सिनेमा,टी वी सीरियल ,मोबाइल के वाट्स अप आदि के जरिये. और इसलिए जो संगीत,नृत्य ,मूर्तिकला ,काव्य मानव के अंतरतम से उद्धभवित होता था ,उस पर मनो कोहरा पड गया। जैसे बजाय घर के भोजन की विभिन्न खाद्य वस्तुओं में रूचि कम हो रही है,और बाजार के फ़ास्ट फ़ूड अधिक पसंद किये जा रहे हैं उसी तर्ज़ पर पारम्परिक नाटक विधा दिनोदिन कम होती जा रही है. इसका कारण है जो व्यक्ति २-३ नाटकों में काम कर चुकता है उसे फिर केवल और केवल अभिनेता की ही भूमिका चाहिए. फिर वह नाटक में झाड़ूवाला,छत्रीलिये हुए, रसोइया, नौकर, की भूमिका करेगा ही नहीं, दूसरे ३-४ नाटक सफल होजाने पर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं बढ़ जाती हैं. नाटक का दिग्दर्शक बना नहीं की बस,वह कलाकार फिर नाटक नहीं करेगा, दिग्दर्शक ही बना रहेगा. आम जनता की जो रूचि विकसित होना चाहिए वह नाटक के क्षेत्र में नहीं हो रही. समाज केवल परोसे जाने वाले व्यंजन और मनोरंजन में संतोष मानता है।

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