कविता

कविता : मर्द और औरत – विजय कुमार

मर्द और औरत

 

हमने कुछ बनी बनाई रस्मो को निभाया ;

और सोच लिया कि

अब तुम मेरी औरत हो और मैं तुम्हारा मर्द !!

 

लेकिन बीतते हुए समय ने जिंदगी को ;

सिर्फ टुकड़ा टुकड़ा किया .

 

तुमने वक्त को ज़िन्दगी के रूप में देखना चाहा

मैंने तेरी उम्र को एक जिंदगी में बसाना चाहा .

 

कुछ ऐसी ही सदियों से चली आ रही बातो ने ;

हमें एक दुसरे से , और दूर किया ….!!!

 

प्रेम और अधिपत्य ,

आज्ञा और अहंकार ,

संवाद और तर्क-वितर्क ;

इन सब वजह और बेवजह की बातो में ;

 

मैं और तुम सिर्फ मर्द और औरत ही बनते गये

इंसान भी न बन सके अंत में …!!!

 

कुछ इसी तरह से ज़िन्दगी के दिन ,

तन्हाईयो की रातो में ढले ;

और फिर तनहा रात उदास दिन बनकर उगे .

 

फिर उगते हुए सूरज के साथ ,

चलते हुए चाँद के साथ ,

और टूटते हुए तारों के साथ ;

 

हमारी चाहते बनी और टूटती गयी

और आज हम अलग हो गये है ..

 

बड़ी कोशिश की जानां ;

मैंने भी और तुने भी ,

लेकिन ….

 

न मैं तेरा पूरा मर्द बन सका और न तू मेरी पूरी औरत !!

खुदा भी कभी कभी अजीब से शगल किया करता है ..!!

है न जानां !!