आजादी का जश्न अभी भी, फीका-फीका लगता,
असफल दिल्ली देख-देख कर दिल अपना यह दुखता
एक नए भारत का फिर से, करना है विस्तार,
जहाँ कुर्सियां अपने जन से, करे हमेशा प्यार.
न वो लाठी चलवाए, न गोली से मरवाए…
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अभिव्यक्ति पर लगे हैं पहरे, उफ़ काले कानून.
लगा है सत्ता के मुँह पर क्यूं, अंगरेजों का खून.
जो विरोध में दिखता उसको, पड़ती अब भी मार..
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लोकतंत्र ये कैसा जो कि लगता बड़ा पराया,
इस पर अब तक पडा हुआ है अँगरेजों का साया.
दमन-चक्र क्यों ख़त्म न होता, मचा है हाहाकार …
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गद्दारों को पाल रहे हम, अपनों को है जेल,
समझा न पाती जनता आखिर, ये है कैसा खेल?
बदलेगा कब सरकारों का, शर्मनाक व्यवहार..
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आजादी का जश्न अभी भी, फीका-फीका लगता,
असफल दिल्ली देख-देख कर दिल अपना यह दुखता.
कब तक धरती माँ पर शातिर बने रहेंगे भार…
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एक नए भारत का फिर से, करना है विस्तार,
जहाँ कुर्सियां अपने जन से, करे हमेशा प्यार.
न वो लाठी चलवाए, न गोली से मरवाए…
पीड़ा की अभिव्यक्ती मार्मिक है. सच्चा कवि तो वही जो वक्त के दृश्यों को बिना भेद-भाव के उकेर सके, अभिव्यक्ती दे सके. चापलूस तो अतीत के अँधेरे में खो जाते हैं और इतिहास के पटल पर कोई निशाँ नहीं छोड़ पाते. आपको साधुवाद, मशाल जलाए रखें.
bahut khoob hai
very heartful pain expressed in this poetry how much independent india has been exploited after independence of last 65 years
अच्छी एवं सामयिक रचना के लिए धन्यवाद् व वधाई .आज कुछ ऐसा ही लिखा जाना चाहिए,जो चिंतन को सही दिशा दे सके.
हार्दिक आभार मित्रों का …………