कविता/ पुष्प और इंसान

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पुष्प शोभा है उपवन का.

कली का जीवन है प्रस्फुटित होकर,

पुष्प बनने में.

खिल कर अपनी बहार लुटाने में.

तुम बनने कहाँ देते हो पुष्प को,

बहार उपवन का.

खिलने कहाँ देते हो कली को?

तुम तो तोड़ डालते हो पुष्प को शोभा बनने से पहले.

मसल डालते हो कली को असमय ही.

मत तोड़ो इन फूलों को,

मत मसलों इन कलियों को.

मत बनों कारण इनके असमय विनाश का.

बिखराने दो अपनी सुगंध इन्हें,

जन-जन के मानस में

तुम क्या करोगे इनका?

गुथोगे माला ही न.

पिरोओगे इन्हें धागों में.

चुभाओगे इनके बदन में सुइयाँ.

दिल के टुकडे़-टुकडे़  हो जायेंगे इनके.

क्या सुनाई पडे़गा तुम्हें इनका क्रंदन ?

जख्मों से भर जायेगा इनका ह्रित पटल.

पर दिखाई पडे़गा क्या यह तुम्हें?

तुम नहीं जानते .

व्यर्थ जायेगा इन मासूमों का बलिदान फिर भी.

तुम इसे पहनाओगे किसे?

जवाब दो?

तुम दे नहीं सकते उत्तर .

कयोंकि तुम नहीं हो,

उस नीचता से परे स्वार्थ से उपर.

चली आ रही है परंपरा.

कहीं न कहीं तुम अर्पण करोगे उसे.

पर माला चाहे देवों के सिर चढे,

या बादशाहों के शव पर डाला जाये.

या किसी नेता या अभिनेता के गले का हार बने.

स्वार्थता की निशानी है यह.

नीचता का रूप है यह.

कयों पूर्ण करना चाहते हो.

अपनी मनोकामना ,

किसी मासूम का वलिदान कर?

कौन जानता फिर भी पूर्ण होगी या नही

तुम्हारी मनोकामना?

मेरे कहने से भी तुम मानोगे तो नहीं.

तोड़ोगे हीं फूलों को,

मसलोगे हीं कलियों को.

तुम्हें ध्यान भी है.

शिकार हो गये तुम्हारे स्वार्थ के ,

कितने खिले प्रसून.

मसल डाली गयीं कितनी

मासूम कलियाँ असमय हीं.

सोचा कभी तुमने?

किया तुमने कुछ भी?

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