चेहरा
इस धुन्धिआये
खंडित सहस्त्र दरारों वाले
दर्पण में
मुझे अपना चेहरा
साफ़ नही दीखता . . .
जब कभी अखंडित
कोने से
दीख जाता है
तो …..
कहीं अहम
तो कहीं
स्वार्थ की
बेतरतीब
लकीरों से कटा- पिटा
होता है . . .
चलचित्र
चलचित्र तेरे
हवा में
छल्लेदार धुएं से
बन रहे हैं
और बन कर
मिट रहें हैं …
चाहती हूँ
दबोच लूं
यह छल्लेदार धुयाँ
जो मेरा
अंतर जला कर
बाहर निकला
प्यार कर के
काहिर निकला ….
मगर कैसे
प्यार का चलचित्र
तुम्हारा
झूमता है
दिन रात
इस मैं –
मैं जिसे
सुकुमार सपना
बनाये देखती हूँ ….
चाहे वह दबी
चिंगारी की
बची सी राख है
पर मैंने
बनाया उसे
कल्पना से …
वह चलचित्र
आज केसे
मिट रहा है
उर मेरा बिंध
रहा है . . . 1
तुम्हारा घर
हल्की -हल्की
धुंध में
छिपे हुए
ये साफ़ -सुथरे
सभ्यता जनित
ऊँचे -ऊँचे घर
आस पास पंक्ति-बध
चीड -खुर्मानी
और
सेबों के दरख्त ..
हरी हरी बनावटी
कालीन की तरह
बिछी हुई डूब
करीने से लगी हुई
फूलों की क्यारियाँ
छोटे-छोटे जंगलों के
सीमित घेरे में
उठी हुई निस्तब्ध
फूलों की बेलें ..
किसी द्र्श्य-जनित
चित्र की मूर्ति का
आभास देते हैं …
ऐसे में
सूदूर काश्मीर में
बसे- तुम्हारे
दो कमरों वाले
छोटे से घर-
बाहर इसी तरह
हूबहू उट्ठा हुआ
कोहरा –
हरी हरी
बिछी हुई दूब
बेतरतीब पेड़ों की
कतारें .-
स्वतंत्र उगी हुई
फूलों की लतरें
मेरे मानस में
उभर आती हैं …
महकता हुआ
तुम्हारी रसोई से
उठता
सुवास भरा धुयाँ –
एक चहकती हुई सी
तुम्हारी साभार भरी- आवाज
आज भी मेरे जहन में
कहीं मुझे अपनेपन से
उपर नीचे तक
सरोबार कर जाती है …
मेरे अंदर
प्रकृति का एक
अनछुया सा
सोंदर्य जनित सोहार्द
उड़ेल जाती है ….1