—विनय कुमार विनायक
रोज-रोज न जाने
कितनी कविताएं मर जाती!
तुम वैनतेय बनकर
उड़ेल दो दसियों अमृत कलश
पर दूर्वा बन लहलहा नहीं पाती कविताएं!
ढेर अंकुरित हो चुके होते बीज जेहन में
जो तुम्हारी वजह से ही
निकाल नहीं पाती कोंपले!
जरा सोचो क्या बिना हरी-भरी पतियों के
कभी फला-फूला है कोई पौधा?
कविता कोई चीज नहीं होती ऐसी
जिसे उपजा लें बंजर भूमि में
या खरीद लें किसी हाट-बाजार से!
कविता नहीं फसल धरती धन की तरह,
कविता नही किसी जैविक गर्भ की थाती!
कविता का कोशगत अर्थ नहीं कोसना
अपने भाग्य को या काल्पनिक दुश्मन को!
कविता नहीं तुकबंदी, नहीं दिमागी कसरत
गजल सा कहीं का रोड़ा कहीं लाकर जोड़ा!
कविता नहीं होती प्रेमिका को बेवफा कहना
और खुद को पाक साफ कहकर वाहवाही लेना!
कविता है नित नवीन सुधार आत्मिक दशा की,
पहली कविता उगी थी क्रौंच मिथुन की व्यथा से!
कविता नहीं उगती व्याध में, पक्षी को घायल कर
हक जताने से, कविता होती व्याधिग्रस्त को कायल कर
बुद्ध की तरह करुण तिमारदारी से रोग भगाने पर!
कविता है कालिदास की अंत:अक्षर साधना
कविता मरा-मरा जपते डाकू के दिल से
राम-राम की अराधना में उतरती महाकाव्य सा!
कविता अंकुरित होती हमेशा मानव उर में,
किन्तु प्रस्फुटित होती नहीं दूषित मनोभूमि में!
आईने की तरह जरूरी है
आत्मा से धूल की परतें हटाते रहना
कविता जन्म लेती सहृदय अंत:करण में!
कविता देश-धर्म-संस्कृति की नहीं खिलाफत
कविता की भावभूमि होती धर्म-संस्कृति को
अंध विश्वास की रुढ़ी के रोड़े से हिफाजत!
कविता निसृत नहीं मंदिर-मस्जिद जाने से!
कविता जन्म लेती रोते बच्चे को हंसाने से!
उजड़े बेघर मानव की बस्ती को बसाने से!
कविता का धर्म नहीं धमकाना बंदूक के जैसा!
कविता कभी भी हो सकती नहीं संगीन की भाषा!
कविता सर्वदा दिल से निकलती बनके दिलाशा!
—विनय कुमार विनायक