अच्छा हुआ कि इस पीली रोशनी में
चांद नहा उठा लहरें तट को छोड़ चुकी
और बालों की तरह
करुणा की जमीन लहरा उठी ।
सौदों के उस लड़ाई में उठा हुआ अंगुठा
बार-बार मिमियता रहा कागज के आगे
पूरी दुनिया बवंडर के जाल में
अपनी पहचान खोली थी
और हमारे आंगन का आकाश
पीली रोशनी में गुम हो गया ।
हो जाती है उंगलियां क्षत-विक्षत
सपने भी अकड़ जाते हैं
और हो जाती है लाशें सिक्कों में तब्दील ।
मटकता है रोज मेरा चेहरा
उस तारे के प्रति जिसकी पीली रोशनी
नहीं पहुंचती है मेरे कमरे में
और बन जाती है एक
रहने की मुक्कमल जगह ।
संवेदनाओं के आंच में जब कभी
मानवता की हांडी चढ़ाता हूँ
उधर झोपड़ी जल उठती है
और इधर भाले तन जाते हैं
समझ में यह नहीं आता
समय क्यों नहीं पकती आंच पर
जब नहा उठता है चांद पीली रोशनी से
और नींद के पपटों में चले आते हैं सपने ।
मेरी आंच पीली रोशनी है
या फिर पीली रोशनी ही मेरी आंच है
पता नहीं यह गुत्थी
न जाने कब सुलझेगी ।