भ्रष्टाचार के विरूद्ध राजनीतिक अभियान

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प्रमोद भार्गव

वीपी सिंह के बाद यह दूसरा अवसर है कि कोर्इ नवोदित राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाकर आकार लेता दिखार्इ देने लगा है। हालांकि वीपी सिंह पूर्व से ही एक कद्दावर कांग्रेसी थे। और अपने ही दल के तात्कालीन प्रघानमंत्री राजीव गांघी के खिलाफ बोफोर्स तोप घोटालो को देशव्यापी आंदोलन का रूप देकर, उन्होंने जनता दल का कायाकल्प कर प्रघानमंत्री बनने का रास्ता साफ कर लिया था। अरविंद केजरीवाल की न तो कोर्इ राजनीतिक पृष्ठभूमि है और न ही वे किसी राजनीतिक वंश से हैं। इसलिए उनकी लड़ार्इ कठिन जरूर है, लेकिन जिस चतुरार्इ से वे पेश आ रहे हैं, उससे लगता है उन्होंने राजनीतिक डगर पर पांव रखते ही चलना सीख लीया है। वे जनमत में दायरा बढ़ाने के नजरिये से एक साथ दो जुदा छोर थामे हुए हैं। एक छोर पर राबर्ट वाड्रा की चंद सालो में बिना पूंजी के बढ़ी अनुपात हीन संपति है तो दूसरे छोर पर बिजली सत्याग्रह है। वाड्रा दुनिया की बड़ी सियासी हस्ती और संप्रग की अघ्यक्ष सोनिया गांघी के दामाद हैं। जाहिर है उन पर दस्तावेजी साक्ष्यों के साथ हमला बोल के जरीवाल मध्य और उच्च मध्य वर्ग के आकर्षण में आ गए हैं। दूसरे छोर पर अंरविद और उनके दल के सदस्य गरीब बसितयों में जाकर कटे बिजली के तार जोड़ रहे हैं। यह अभियान निम्न और मघ्य वर्ग को लुभा रहा है। यदि मुहिम के इन दोनों छोरों को केजरीवाल दिल्ली विधान सभा के होने वाले चुनाव तक मजबूती से थामे रहे तो सत्ता परिर्वतन की करिशमार्इ उपलबिध उनके हाथ भी लग सकती है।

इंडिया अगेंस्ट करप्शन के अंरविंद, प्रशात और शांति भूषण रांबर्ट वाड्रा पर अभिलेखों के साथ जो अरोप लगाएं हैं और इनके बरक्ष जो सियासी भूचाल उठ खड़ा हुआ है, वह अब लोकसभा चुनाव तक थमने वाला नहीं है। संप्रग सरकार के रोज – रोज हो रहे नए – नए घोटालों के परिदृष्य में मध्यावधि चुनाव की संभावना भी बढ़ रही है। इस हमले से बौखलार्इ कांग्रेस एक ओर तो दावा कर रही है कि यह मामला महज दो व्यापारियों के बीच हुए आर्थिक लेन – देन से जुड़ा है। इसलिए इसकी जांच का कोर्इ औचित्य नहीं ठहरता। दूसरी तरफ यह मामला कांग्रेसियो ने ही विचित्र विरोधामास से खुद जोड़ दिया है। जब यह प्रकरण केवल दो कारोबारियों के बीच हुए लेन – देन का मसला है तो कांग्रेस के प्रवक्ता और मंत्री क्यों बेवजह सफार्इ पेश कर रहे हैं। कानून मंत्री सलमान खुर्षीद ने तो यह कहकर हद की सभी सीमाएं लांघ दीं कि सोनिया गांधी ने हमें मंत्री बनाया है, इसलिए हम उनके लिए जान भी दे सकते हैं। अब खुर्षीद और उनकी पत्नी लुर्इस खुर्षीद का विकलांगो के लिए काम करने वाला गैर सरकारी संगठन खुद गंभीर सवालों के घेरे में है। आरोप है कि इस संगठन ने अधिकारियों के फर्जी दस्तख्त करके विकलांगों को मिलने वाली करोड़ो की धनराशी खुद हड़प ली। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आखिलेश यादव ने इस पूरे मामले पर जांच भी बिठा दी।

इस मामले में सफार्इ देने की होड़ कांग्रेस प्रवक्ताओं और मंत्रियो तक ही सीमित नहीं रही, कर्नाटाक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज भी इस सफार्इ अभियान की बहती गांगा में डूबकी लगा बेठै। जबकि राज्यपाल संवैधानिक पद है और उसका महत्व दलगत राजनीति से उपर है। लेकिन सोनिया के उपकारों का बदला चुकाने के लिए उन्होंने न तो पद की गरिमा का ख्याल रखा और न ही संवैधानिक मर्यादा का। महज कृतज्ञता प्रकट करने के लिए निंदा अभियान में शामिल हो गए। जबकि वाड्रा पर लगे आरोप गंभीर हैं। उन्हें मुंह – जुबानी झुठलाया नहीं जा सकता।

वाड्रा जब जबरदस्त आर्थिक संकट और अपने परिवार में हुर्इ अकाल मौतों से मानसिक परेशानी में थे, तब उन्होंने 2007 – 08 में मात्र 50 लाख की पूंजी से अपने और अपनी मां के नाम से पांच कंपनियां पंजीकृत करार्इं और 300 से 500 करोड़ के मालिक बन बेठै। भूमि और भवन निर्माण की बड़ी कंपनी डीएलएफ ने उन्हें 65 करोड़ का वापिसी की बिना किसी गारंटी के त्रृण मुक्त कर्ज देने की न केवल अनुकंपा की, बलिक मंहगे पांच प्लैट भी मौजूदा बाजार मूल्य से बेहद सस्ती कीमत में दे दिए। कोर्इ भी पेशेवर व्यापारी बिना किसी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष लाभ के ऐसी कृपा किसी पर नहीं करता।

इस खुलासे के चार दिन बाद केजरीवाल ने यह भी खुलासा कर दिया कि डीएलएफ के मालिक केपी सिंह रांबर्ट वाड्रा पर क्यों मेहरबान हुए। दरअसल हरियाणा में काग्रेस की सरकार है और इस सरकार ने डीएलएफ को अनुचित लाभ पहुंचाया। कानून को ताक पर रखकर 1700 करोड़ रूपये की 350 एकड़ जमीन डीएलएफ को दी। इसमें 75 एकड़ जमीन हरियाणा विकास प्रधिकरण की थी। यही नहीं राज्य सरकार ने किसानों के साथ धोखाधड़ी करते हुए गुडगांव में जो 30 एकड़ जमीन सरकारी अस्पताल बनाने के लिए अधिग्रहण की थी, वह जमीन विशेष आर्थिक क्षेत्र निर्माण के लिए डीएलएफ को स्थानांतरित कर दी। इसी दौरान वाड्रा ने डीएलएफ के 25 हजार शेयर खरीदे और सेज में आधे हिस्से के भगीदार भी बन गए। इससे इस भूमि के अधि्ग्रहण और उसके उपयोग में परिवर्तन के सवाल भी खड़े होते हैं। जो जमीन जन सामान्य के हित पूर्ति की दृष्टि से अस्पताल के लिए अधिग्रहीत की गर्इ, उसके मूल उपयोग में परिवर्तन कारोबारी लाभ के लिए क्यों किया गया ? अब यदि वाड्रा और उन्हें मिले राजनीतिक लाभ से सरकार का कोर्इ बास्ता नहीं है और वाड्रा निर्लिप्त हैं तो डीएलएफ और वाड्रा के व्यापारिक संबंधों की निष्पक्ष जांच कराने में कांग्रेस को क्यों आपतित है ? हरियाणा सरकार का यदि कार्य-व्यवहार नीति सम्मत है तो उसे श्वेत – पत्र में जारी करने में क्या परेशानी है ? सत्ता का दुरुपयोग हुआ है अथवा नहीं यह तो स्वतंत्र जांच से ही तय होगा।

साफ है, अरविंद घोटालों के पर्दाफाश की बुनियाद पर राजनीतिक दल खड़ा करने की कवायद में दृढ़ संकल्प के साथ लग गए हैं। दल को दिल्ली में विस्तार देने व जनमत अपने पक्ष में करने की शुरुआत उन्होंने बिजली सत्याग्रह के बहाने कर दी है। भाजपा की बजाए अरविंद विपक्ष की भूमिका में आ गए हैं। उनके इस निष्चय को दाद देनी होगी कि उन्होंने उदारवादी आर्थिक सुधार की विषम परिस्थितियों में व्यवस्था को बदलने के लिए राजनीतिक कदम आगे बढ़ा दिए हैं। उनकी राजनीतिक क्रियाशीलता की प्रयोगशाला में दिल्ली विधानसभा क्षेत्र होगा। इसमें हलचल लाने के लिए अरविंद और उनके सहयोगियों ने गरीब बसितयों में जाकर कटे बिजली के तार खुद जोड़ना शुरु कर दिए हैं। ये वे कनेशन हैं जो बिल की राशि ज्यादा आने के कारण गरीब जमा नहीं कर पाए और विधुत विभाग ने कनेशन काट दिए। अब यह मुहिम एक आंदोलन का हिस्सा बनती जा रही है और इसे बड़े पैमाने पर आम आदमी का समर्थन भी मिल रहा है। बिजली की यह लड़ार्इ जरुर रंग लाएगी। क्योंकि इस लड़ार्इ में वे नेता और दल के रुप में अन्य नेताओं और दल की तुलना में भिन्न दिखार्इ दे रहे हैं। उनकी कार्यप्रणाली उन्हें सीधे आमजन और उसकी समस्या से जोड़ती है।

केजरीवाल ने जो दृष्टि-पत्र पेश किया है, उसमें न तो हवार्इ कल्पनाएं है और न ही देश को न्यूयार्क या शंघाई देने के थोथे मिथक हैं। मसलन सत्ता हाथ आर्इ तो वे भ्रष्टाचार खत्म करके व सरकारी खर्चों पर लगाम लगाकर अराजक हो चुकी मंहगार्इ को काबू करेंगे। विधायक और सांसद कर्इ एकड़ों के सरकारी बंगलों की बजाय छोटे घरों में रहेंगे। उन्हें कोर्इ सुरक्षा भी नहीं दी जाएगी। जन लोकपाल लाने के साथ वे चुनाव सुधार की दृष्टि से निर्वाचित प्रतिनिधि को वापिस बुलाने का अधिकार भी मतदाता को देने की पैरवी कर रहे हैं।

कर्इ राजनीतिक विष्लेशक उनके दृष्टि-पत्र पर सवाल भी उठा रहे हैं कि चुनाव में कालेधन का बेतहाशा इस्तेमाल होता है ? केजरीवाल दल के लिए धन कहां से जुटाएंगे या वे उसी राह के मुसाफिर बन जाएंगे, जिस पर दूसरे दल चलकर दमकते हैं। यदि वे ऐसा करते हैं तो उनके और अन्य राजनीतिक दलों में फर्क कहां रह जाएगा ? उनके पास तो केवल साख की पूंजी है, वह भी लुट जाएगी। लेकिन इधर रेखांकित करने वाली बात यह है कि निर्वाचन आयोग सख्त हुआ है। उसकी सख्ती के चलते अनर्गल प्रचार-प्रसार, मतदाताओं की खरीद-फरोख्त और पेड न्यूज पर अंकुश लगा है। ऐसे में जनता की भी जवाबदारी बनती है कि कोर्इ व्यकित गांधीवादी सिद्धांत की अवधारणा को लेकर राजनीति की जमीन पर उतर रहा है तो क्यों न पूंजी आधारित प्रलोभनों से निर्लिप्त रहकर मतदाता अपने मत व समर्थन का सदुपयोग करें। जिससे संभावनाषी, पारदर्षी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पलीता न लगे।

1 COMMENT

  1. samay aa gaya hai ki janta apni bhalai khud kare. iske liye kejriwal ek achcha madhayam hai. bhagwan v usi ki madad krte hai jo apni madad khud karta. aaj janta apni aankhe band kr leti hai. to aane wale samay me uski koi madad nhi krega.kyoki andhe ki madad ki jati. aankho wali ki koi madad nhi krta.

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