हिन्दुस्तान के राजनीतिक परिदृश्य की चर्चा की जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में आ रहा है कि राजनेता स्थानीय मुद्दों से दूरी बनाये रखना उचित समझ रहे हैं। उनको लगता है कि स्थानीय मुद्दों की चिंता करना सिर्फ स्थानीय कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है जबकि मुद्दे तो मुद्दे हैं, चाहे वे राष्ट्रीय स्तर के हों या स्थानीय स्तर के। राजनीति में पहले कार्यकर्ता का क्रमिक विकास होता था। स्थानीय स्तर से कार्य करते एवं सीखते हुए कार्यकर्ता ऊपर पहुंचता था किंतु आजकल अधिकांश मामलों में देखने को मिल रहा है कि कार्यकर्ता पहले से ही स्वतः विकसित होकर ऊपर से ही जुगाड़बाजी के सहारे आ जाता है इसलिए उसे मुद्दों की समझ नहीं होती है। जब मुद्दों की समझ नहीं होगी तो मुद्दों से वह दूरी बनाकर ही रहेगा। यही कारण है कि आज का राजनीतिज्ञ स्थानीय मुद्दों की जानकारी के अभाव में हमेशा इस प्रयास में लगा रहाता है कि केन्द्रीय नेतृत्व जिन मुद्दों को उभारेगा, उसी के सहारे उसका भी बेड़ा पार हो जायेगा।
राष्ट्रीय स्तर के दलों में यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रही है। जब स्थानीय स्तर के नेता एवं कार्यकर्ता सिर्फ केन्द्रीय घोषणा-पत्रा के मुद्दों की चर्चा करेंगे तो उसका परिणाम क्या होगा? निश्चित रूप से ऐसी स्थिति में क्षेत्राीय दलों का उदय होगा। राष्ट्रीय दल का कार्यकर्ता होने का मतलब यह नहीं है कि उसके कार्यकर्ता स्थानीय समस्याओं एवं मुद्दों से दूरी बनाकर चलें। अकसर देखने में आता है कि राष्ट्रीय दलों के स्थानीय स्तर के नेता इस बात का इंतजार करते हैं कि उनका केन्द्रीय नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों को उठाये और उन पर चर्चा करे। ऐसा करने से क्षेत्राीय एवं स्थानीय मुद्दे दब जाते हैं और पार्टी की हवा बनने लगती है। इसका लाभ बिना कुछ किये या संघर्ष के स्थानीय स्तर के नेताओं को भी मिल जाता है।
जब स्थानीय स्तर के मुद्दे दब जाते हैं या नगण्य हो जाते हैं तो उनका निराकरण नहीं हो पाता है और नासूर की तरह वह समस्या आम जन को कचोटती रहती है। इन सब बातों के कहने का अभिप्राय यही है कि मात्रा मार्केटिंग पर ही आज के राजनीतिज्ञों की निर्भरता बढ़ती जा रही है। हालांकि, राष्ट्रीय पार्टियों में प्रादेशिक चुनावों में इस प्रकार की जन-भावना को अलग-थलग नहीं होने दिया जाता है। राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों के साथ-साथ प्रदेश की समस्याओं एवं मुद्दों का समावेश कर प्रदेश स्तर पर स्वतंत्रा घोषणा पत्रा जारी किया जाता है।
उदाहरण के तौर पर राजधानी दिल्ली को लिया जा सकता है। तमाम राष्ट्रीय मुद्दों के होते हुए भी सीलिंग का मुद्दा भारी पड़ रहा है। दिल्ली के तमाम नेताओं के चेहरे पर उसका तनाव स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है। हालांकि, सीलिंग का मुद्दा बड़ी समस्या है इसलिए उसका समाधान जरूरी है। दिल्ली प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष मनोज तिवारी को सीलिंग तोड़कर परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है किंतु इसके बावजूद इस समस्या से वे पीछे भाग नहीं सकते हैं क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष होने के साथ-साथ वे चुने हुए जन-प्रतिनिधि भी हैं। इस वजह से लोग अपना दुख-दर्द लेकर उनके पास जायेंगे ही और इसका समाधान उन्हें करवाना ही पड़ेगा। देखा जाये तो दिल्ली में ऐसे तमाम पार्षद हैं जो अपना भाषण अमेरिका, पाकिस्तान और चीन से ही शुरू करते हैं और केन्द्र सरकार की सभी उपलब्धियों की चर्चा करते हैं परंतु अपनी उपलब्धियों की चर्चा कम करते हैं किन्तु इससे उनकी नाकामियां छिप नहीं सकती हैं।
चूंकि, वे स्थानीय स्तर के पार्षद हैं तो उनकी प्राथमिकता इस बात को लेकर होनी चाहिए कि उन्होंने क्या काम किया है और जनता के दुख-दर्द में कितना भागीदार रहे हैं? किन्तु पार्षदों को भी यही लगता है कि मोदी जी का ही नाम लेकर चुनावी वैतरणी पार कर लेंगे। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे हर बूथ की समस्याओं को चिन्हित कर उनके समाधान का प्रयास करें। कहने का आशय यही है कि राष्ट्रीय मुद्दों एवं समस्याओं की आड़ में स्थानीय समस्याओं एवं मुद्दों को दबाया नहीं जा सकता है।
वैसे भी देखा जाये तो राष्ट्रीय मुद्दों की बदौलत हवा तो बनाई जा सकती है किंतु इस हवा को स्थायी रूप से बनाये रखने के लिए स्थानीय स्तर की समस्याओं एवं मुद्दों को भी लेकर आगे बढ़ना होगा। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्राी मोदी की जीत में यह बात देखने को मिली कि उन्होंने राष्ट्रीय मुद्दों को खूब उछाला किंतु उन्होंने यह भी नारा दिया कि ‘मेरा बूथ – सबसे मजबूत’। इस नारे को प्रधानमंत्राी आज भी दुहरा रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्राी ने भोपाल की एक चुनावी जनसभा में कहा कि तेज आंधी में चौराहे पर आप ट्यूब लेकर खड़े हो जायें किंतु उसमें हवा तब तक प्रवेश नहीं करेगी जब तक पंप से उसमें हवा नहीं डाली जायेगी। उनके कहने का आशय यह था कि माहौल भाजपा के पक्ष में चाहे जितना भी हो किंतु मतदाता को बूथ पर ले जाकर मत दिलवाने के लिए कार्यकर्ता को मेहनत करनी ही होगी।
परंतु आज के नेता एवं कार्यकर्ता समस्याओं से जूझे बगैर मार्केटिंग के ही सहारे सब कुछ हासिल करना चाहते हैं। कुछ लोग इस रास्ते पर चल कर कामयाब भी हो रहे हैं लेकिन यह दौर कब तक चलेगा, इस संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि मार्केटिंग का भी हमेशा से एक दृष्टिकोण रहा है। मार्केटिंग के तौर-तरीकों में जब तक नयापन एवं बदलाव होता रहता है तब तक मार्केटिंग अच्छी चलती है किंतु जब वह घिसे-पिटे रास्ते पर चलने लगती है तो पिट जाती है। उदाहरण के तौर पर यदि कोई विज्ञापन लोगों को बहुत अच्छा लगता है किंतु मार्केट में यदि उससे अच्छा विज्ञापन आ जाता है तो लोग उसकी तरफ चल पड़ते हैं लेकिन टिकता वह तभी है जब उसकी गुणवत्ता बरकरार रहती है।
इस वर्तमान दौर में राजधानी दिल्ली की बात की जाये तो आम आदमी पार्टी ने अपने घोषणा-पत्रा में राष्ट्रीय, प्रादेशिक मुद्दों के साथ-साथ प्रत्येक विधानसभा का भी अघोषित
घोषणा-पत्रा तैयार किया था, जिसका परिणाम यह रहा कि पार्टी ने 70 में 67 सीटें जीतकर एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया। हर सीट का अलग-अलग घोषणा-पत्रा बनाने से स्थानीय स्तर की समस्यायें सामने आ जाती हैं तो उनका निराकरण भी आसान हो जाता है। राष्ट्रीय मुद्दों की आंधी में स्थानीय मुद्दे भले ही दब जाते हैं किन्तु कुछ समय बाद वे उभरकर फिर सामने आ जाते हैं क्योंकि कोई भी समस्या तब तक नहीं दबती जब तक उसका समाधान नहीं हो जाता है।
मुख्यमंत्राी बनने से पहले केजरीवाल ने जब बिजली का तार जोड़ा तो लोगों के मन में यह बात नहीं आई कि कानून का उल्लंघन हो रहा है बल्कि दिल्लीवासियों के मन में यह बात अधिक आई कि हमारी समस्याओं के समाधान हेतु कोई तो आगे आ रहा है। इसी प्रकार जब श्री मनोज तिवारी ने सील तोड़ी तो लोगों को ऐसा लगा कि सीलिंग की समस्या से निजात दिलाने के लिए कोई तो आगे आ रहा है। हो सकता है कि भविष्य में बूथ स्तर पर समस्याओं को चिन्हित कर उनके निराकरण की मांग उठने लगे। कम्युनिष्ट पार्टियों का तो वजूद ही इसी बात पर निर्भर रहा है कि उन्होंने हमेशा स्थानीय स्तर की समस्याओं पर ध्यान फोकस किया है किंतु अब तो यही देखने में आ रहा है कि कोई भी राजनेता यदि काम कर रहा है तो उसकी इच्छा समस्याओं के समाधान में कम होती है और इस बात में अधिक
होती है कि वह समस्याओं का समाधान करते हुए दिखे।
कहने का आशय यह है कि लोग काम के लिए कम और नाम के लिए अधिक प्रयास कर रहे हैं। पहले राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बारे में कहा जाता था कि क्षेत्रा में उनका काम बोलता है किंतु अब तो नाम बोलता है। नाम बुलवाने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।
आज के नेता क्षेत्रा में एक हजार रुपये का कंबल बांटते हैं तो दस हजार रुपये प्रचार में खर्च कर देते हैं। एक भगोना खिचड़ी बांटकर सैकड़ों फोटो खिंचवा डालते हैं। कुल मिलाकर कहने का मतलब भी यही है कि वर्तमान परिदृश्य में देखने को मिल रहा है कि नेता काम करें या न करें किंतु काम करते हुए दिखना चाहिए। आजकल तो यह भी देखने में आ रहा है कि बड़े नेता स्थानीय स्तर की बैठकों में जाना भी पसंद नहीं करते हैं। शायद उनको लगता है कि स्थानीय स्तर की बैठकों में जाने से उनका कद घट जायेगा तथा साथ ही साथ स्थानीय स्तर की समस्याएं सुलझाने के लिए प्रसाद स्वरूप मिल जायेंगी।
दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्राी श्रीमती शीला दीक्षित ‘आरडब्ल्यूए’ की बदौलत अपनी पकड़ बनाने में बहुत कामयाब हुई थीं और इसी की बदौलत वे दिल्ली में अपने को लगातार 15 वर्षों तक जमाये रखीं। बिजली-पानी जैसी समस्या को यदि उन्होंने ठीक से नियंत्रित किया होता तो संभवतः वे आज भी दिल्ली की मुख्यमंत्राी होतीं। कहने का आशय यही है कि अरविन्द केजरीवाल ने चाहे जितने भी राष्ट्रीय मुद्दों को उभारा हो किंतु आम आदमी पार्टी ने स्थानीय मुद्दों का भी पूरा ध्यान रखा। श्रीमती शीला दीक्षित के समय में एक बात यह भी देखने को मिली कि उन्होंने छठ पूजा समितियों, कांवड़ समितियों एवं अन्य धार्मिक समितियों के माध्यम से कांग्रेस पार्टी एवं अपने आप को काफी मजबूत किया।
हिन्दुस्तान के जितने भी क्षेत्राीय दल हैं, उनके ऊपर यह आरोप लगता रहता है कि वे राष्ट्रीय मुद्दों के बजाय क्षेत्राीय मुद्दों को अधिक तरजीह देते हैं। राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए राष्ट्रीय मुद्दों का उठना एवं लोगों के मन में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करना बहुत अच्छी बात है किंतु इसके साथ ही स्थानीय समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। राष्ट्रीय मुद्दों के साथ स्थानीय मुद्दों का भी निराकरण बहुत जरूरी है। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि स्वाभाविक नेतृत्व का विकास किया जाये।
क्षेत्राीय दलों का वजूद ही इस बात पर निर्भर करता है कि वे स्थानीय मुद्दों को अधिक तरजीह देते हैं और उन दलों के कार्यकर्ता क्षेत्राीय समस्याओं के समाधान के लिए जूझते नजर आते रहते हैं। राष्ट्रीय दलों के कार्यकर्ताओं को भी इस दिशा में अपना ध्यान केंदित करना होगा क्योंकि स्थानीय स्तर की समस्याओं का समाधान करना ही होगा और इन समस्याओं का निदान वही कर सकता है जिसमें नेतृत्व का विकास संघर्ष के द्वारा और स्वाभाविक रूप से हुआ हो।