शक्ति-पूजा का विस्मरण – शंकर शरण

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कश्मीर के विस्थापित डॉक्टर कवि कुन्दनलाल चौधरी ने अपने कविता संग्रह ‘ऑफ गॉड, मेन एंड मिलिटेंट्स’ की भूमिका में प्रश्न रखा थाः “क्या हमारे देवताओं ने हमें निराश किया या हम ने अपने देवताओं को?” इसे उन्होंने कश्मीरी पंडितों में चल रहे मंथन के रूप में रखा था। सच पूछें, तो यह प्रश्न संपूर्ण भारत के लिए है। इस का एक ही उत्तर है कि हम ने देवताओं को निराश किया। उन्होंने तो हरेक देवी-देवता को, यहाँ तक कि विद्या की देवी सरस्वती को भी शस्त्र-सज्जित रखा था। और हमने शक्ति की देवी को भी मिट्टी की मूरत में बदल कर रख दिया। चीख-चीख कर रतजगा करना शेराँ वाली देवी की पूजा नहीं। पूजा है किसी संकल्प के साथ शक्ति-आराधन करना। सम्मान से जीने के लिए मृत्यु का वरण करने के लिए भी तत्पर होना। किसी तरह तरह चमड़ी बचाकर नहीं, बल्कि दुष्टता की आँखों में आँखें डालकर जीने की रीति बनाना। यही वह शक्ति-पूजा है जिसे भारत के लोग लंबे समय से विस्मृत कर चुके हैं।

श्रीअरविंद ने अपनी रचना भवानी मंदिर (1905) में क्लासिक स्पष्टता से यह कहा था। उनकी बात हमारे लिए नित्य-स्मरणीय हैः “हमने शक्ति को छोड़ दिया है और इसलिए शक्ति ने भी हमें छोड़ दिया है। … कितने प्रयास किए जा चुके हैं। कितने धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन शुरू किए जा चुके हैं। लेकिन सबका एक ही परिणाम रहा या होने को है। थोड़ी देर के लिए वे चमक उठते हैं, फिर प्रेरणा मंद पड़ जाती है, आग बुझ जाती है और अगर वे बचे भी रहें तो खाली सीपियों या छिलकों के रूप में रहते हैं, जिन में से ब्रह्म निकल गया है।”

शक्ति की कमी के कारण ही हमें विदेशियों की पराधीनता में रहना पड़ा था। अंग्रेजों ने सन् 1857 के अनुभव के बाद सचेत रूप से भारत को निरस्त्र किया। गहराई से अध्ययन करके वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे, कि इसके बिना उनका शासन असुरक्षित रहेगा। तब भारतीयों को निःशस्त्र करने वाला ‘आर्म्स एक्ट’ (1878) बनाया। गाँधीजी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में गलत बात लिखी कि अंग्रेजों ने हमें हथियार बल से गुलाम नहीं बना रखा है। वास्तविकता अंग्रेज जानते थे। कांग्रेस भी जानती थी। इसीलिए वह सालाना अपने अधिवेशनों में उस एक्ट को हटाने की माँग रखती थी। कांग्रेस ने सन् 1930 के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन में भी प्रस्ताव पास करके कहा था कि अंग्रेजों ने “हमें निःशस्त्र करके हमें नपुंसक बनाया है।”

मगर इसी कांग्रेस ने सत्ता पाने के बाद देश को उसी नपुंसकता में रहने दिया! यदि स्वतंत्र होते ही अंग्रेजों का थोपा हुआ आर्म्स एक्ट खत्म कर दिया गया होता, तो भारत का इतिहास कुछ और होता। हर सभ्यता में आत्मरक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र रखना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार रहा है। इसे यहाँ अंग्रेजों ने अपना राज बचाने को प्रतिबंधित किया, और कांग्रेस के शब्दों में हमें ‘नपुंसक’ बनाया! हम सामूहिक रूप में निर्बल, आत्मसम्मान विहीन हो गए। पीढ़ियों से ऐसे रहते अब यह हमारी नियति बन गयी है।

आज हर हिन्दू को घर और स्कूल, सब जगह यही सीख मिलती है। कि पढ़ो-लिखो, लड़ाई-झगड़े न करो। यदि कोई झगड़ा हो रहा हो, तो आँखें फेर लो। किसी दुर्बल बच्चे को कोई उद्दंड सताता हो, तो बीच में न पड़ो। तुम्हें भी कोई अपमानित करे, तो चुप रहो। क्योंकि तुम अच्छे बच्चे हो, जिसे पढ़-लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर या व्यवसायी बनना है। इसलिए बदमाश लड़कों से मत उलझना। समय नष्ट होगा। इस प्रकार, किताबी जानकारी और सामाजिक कायरता का पाठ बचपन से ही सिखाया जाता है। बच्चे दुर्गा-पूजा करके भी नहीं करते! उन्हें कभी नहीं बताया जाता कि दैवी अवतारों तक को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा लेनी पड़ती थी। क्योंकि दुष्टों से रक्षा के लिए शक्ति-संधान अनिवार्य मानवीय स्थिति है। अपरिहार्य कर्तव्य है।

वर्तमान भारत में हिन्दू बच्चों को वास्तविक शक्ति-पूजा से प्लेग की तरह बचा कर रखा जाता है! फिर क्या होता है, यह पंजाब, बंगाल और कश्मीर के हश्र से देख सकते हैं। सत्तर साल पहले इन प्रदेशों में विद्वता, वकालत, अफसरी, बैंकिंग, पत्रकारिता, डॉक्टरी, इंजीनियरी, आदि तमाम सम्मानित पदों पर प्रायः हिन्दू ही आसीन थे। फिर एक दिन आया जब कुछ बदमाश बच्चों ने इन्हें सामूहिक रूप से मार, लताड़ और कान पकड़ कर बाहर भगा दिया। अन्य अत्याचारों की कथा इतनी लज्जाजनक है कि हिन्दुओं से भरा हुआ मीडिया उसे प्रकाशित करने में भी अच्छे बच्चों सा व्यवहार करता है। या गाँधीजी का बंदर बन जाता है।

तब अपने ही देश में अपमानित, बलात्कृत, विस्थापित, एकाकी हिन्दू को समझ नहीं आता कि कहाँ गड़बड़ी हुई? उस ने तो किसी का बुरा नहीं चाहा। उसने तो गाँधी की सीख मानकर दुष्टों, पापियों के प्रति भी प्रेम दिखाया। कुछ विशेष प्रकार के दगाबाजों, हत्यारों को भी ‘भाई’ समझा, जैसे गाँधीजी करते थे। तब क्या हुआ, कि उसे न दुनिया के मंच पर न्याय मिलता है, न अपने देश में? उलटे, दुष्ट दंबग बच्चे ही अदबो-इज्जत पाते हैं। प्रश्न मन में उठता है, किन्तु अच्छे बच्चे की तरह वह इस प्रश्न को भी खुल कर सामने नहीं रखता। उसे आभास है कि इससे बिगड़ैल बच्चे नाराज हो सकते हैं। कि ऐसा सवाल ही क्यों रखा? तब वह मन ही मन प्रार्थना करता हुआ किसी अवतार की प्रतीक्षा करने लगता है।

हिन्दू मन की यह पूरी प्रक्रिया बिगड़ैल बच्चे जानते हैं। यशपाल की एक कहानी हैः फूलो का कुर्ता। फूलो पाँच वर्ष की एक अबोध बालिका है। उसके शरीर पर एक मात्र वस्त्र उसकी फ्रॉक है। किसी प्रसंग में लज्जा बचाने के लिए वह वही फ्रॉक उठाकर अपनी आँख ढँक लेती है। कहना चाहिए कि दुनिया के सामने भारत अपनी लज्जा उसी बालिका समान ढँकता है, जब वह खूँखार आतंकवादियों को पकड़ के भी सजा नहीं दे पाता। बल्कि उन्हें आदर पूर्वक घर पहुँचा आता है! जब वह पड़ोसी बिगड़ैल देशों के हाथों निरंतर अपमानित होता है, और उन्हीं के नेताओं के सामने भारतीय कर्णधार हँसते फोटो खिंचाते हैं। इस तरह ‘ऑल इज वेल’ की भंगिमा अपना कर लज्जा छिपाते हैं। स्वयं देश के अंदर पूरी हिन्दू जनता वही क्रम दुहराती है, जब कश्मीरी मुसलमान ठसक से हिंन्दुओं को मार भगाते हैं, और उलटे नई दिल्ली पर शिकायत पर शिकायत ठोकते हैं। फिर भारत से ही से अरबों रूपए सालाना फीस वसूल कर दुनिया को यह बताते हैं कि वे भारत से अलग और ऊँची चीज हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर ‘आजाद कश्मीर’ है, यह बयान श्रीनगर की गद्दी पर बैठे कश्मीरी मुसलमान देते है!

दूसरे प्रदेशों में भी कई मुस्लिम नेता खुले आम संविधान को अँगूठा दिखाते हैं, उग्रवादियों, दंगाइयों की सामाजिक, कानूनी मदद करते हैं। जिस किसी को मार डालने के आह्वान करते हैं। जब चाहे विदेशी मुद्दों पर उपद्रव करते हैं, पड़ोसी हिन्दुओं को सताते-मारते हैं। फिर भी हर दल के हिन्दू नेता उनकी चौकठ पर नाक रगड़ते नजर आते हैं। वे हर हिन्दू नेता को इस्लामी टोपी पहनने को विवश करते हैं, मगर क्या मजाल कभी खुद भी रामनामी ओढ़ लें! उनके रोजे इफ्तार में हर हिन्दू नेता की हाजिरी जरूरी है, मगर वही मुस्लिम रहनुमा कभी होली, दीवाली मनाते नहीं देखे जा सकते। यह एकतरफा सदभावना और एकतरफा सेक्यूलरिज्म भी बालिका फूलो की तरह हिन्दू भारत की लज्जा छिपाती है।

यह पूरी स्थिति देश के अंदर और बाहर वाले बिगड़ैल बखूबी जानते हैं। जबकि अच्छा बच्चा समझता है कि उसने चुप रहकर, या मीठी बातें दुहराकर, एवं उद्योग, व्यापार, कम्प्यूटर और सिनेमा में पदक हासिल कर दुनिया के सामने अपनी लज्जा बचा ली है। उसे लगता है किसी ने नहीं देखा कि वह अपने ही परिवार, अपने ही स्वधर्मी देशवासी को गुंडों, उग्रवादियों के हाथों अपमानित, उत्पीड़ित होने से नहीं बचा पाता। सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों रूपों में। अपनी मातृभूमि का अतिक्रमण नहीं रोक पाता। उसकी सारी कार्यकुशलता और अच्छा बच्चापन इस दुःसह वेदना का उपाय नहीं जानता। यह लज्जा छिपती नहीं, बल्कि और उजागर होती है, जब सेक्यूलर बच्चे मौन रखकर हर बात आयी-गयी करने की दयनीय कोशिश करते हैं। डॉ. भीमराव अंबेदकर की ऐतिहासिक पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ (1940) में अच्छे और बिगड़ैल बच्चे, दोनों की संपूर्ण मनःस्थिति और परस्पर नीति अच्छी तरह प्रकाशित है।

मगर अच्छे बच्चे ऐसी पुस्तकों से भी बचते हैं। वे केवल गाँधी की मनोहर पोथी ‘हिन्द स्वराज’ पढ़ते हैं, जिसमें लिखा है कि आत्मबल तोपबल से भी बड़ी चीज है। इसलिए वे हर कट्टे और तमंचे के सामने कोई मंत्र पढ़ते हुए आत्मबल दिखाने लगते हैं। फिर कोई सुफल न पाकर कलियुग को रोते हैं। स्वयं को कभी दोष नहीं देते, कि अच्छे बच्चे की उन की समझ ही गलत है। कि उन्होंने अच्छे बच्चे को दब्बू बच्चे का पर्याय बना दिया, जिस से बिगड़ैल और शह पाते हैं। कि यह प्रकिया सवा सौ साल से अहर्निश चल रही है। शक्ति-पूजा भुलाई जा चुकी है। यही अनेक समस्याओं की जड़ है।

आज नहीं कल, यह शिक्षा लेनी पड़ेगी कि अच्छे बच्चे को बलवान और चरित्रवान भी होना चाहिए। कि आत्मरक्षा के लिए परमुखापेक्षी होना गलत है। मामूली धौंस-पट्टी या बदमाशों तक से निपटने हेतु सदैव पुलिस प्रशासन के भरोसे रहना न व्यवहारिक, न सम्मानजनक, न शास्त्रीय परंपरा है। अपमानित जीना मरने से बदतर है। दुष्टता सहना या आँखें चुराना दुष्टता को खुला प्रोत्साहन है। रामायण और महाभारत ही नहीं, यूरोपीय चिंतन में भी यही सीख है। हाल तक यूरोप में द्वंद्व-युद्ध की परंपरा थी। इसमें किसी से अपमानित होने पर हर व्यक्ति से आशा की जाती थी कि वह उसे द्वंद्व की चुनौती देगा। चाहे उसमें उसकी मृत्यु ही क्यों न हो जाए।

इसलिए, कहने को प्रत्येक शरद ऋतु में करोड़ों हिन्दू दुर्गा-पूजा मनाते है। इसे शक्ति-पूजन भी कहते हैं। किन्तु यह वह शक्ति-पूजा नहीं, जो स्वयं भगवान राम को राक्षसों पर विजय पाने के लिए आवश्यक प्रतीत हुई थी। जिसे कवि निराला ने अपनी अदभुत रचना ‘राम की शक्तिपूजा’ में पूर्णतः जीवन्त कर दिया है। आइए, उसे एक बार ध्यान से हृदयंगम करें!

26 COMMENTS

  1. आदरणीय श्री शरण
    मैंने आपके लेख का अंग्रेजी अनुवाद किया है जिसे अपने दोस्तों के साथ फेसबुक पर साझा करने के लिए आपकी अनुमति चाहता हूँ.
    साझा करने के समय आपके लेख का लिंक दूंगा, और आपके प्रति आभार व्यक्त करते हुए ही अनुवाद पोस्ट करूंगा,
    आपकी अनुमति की प्रतीक्षा में

    गौरव प्रतीक

  2. मैंने तो सोचा था कि इस लेख पर अब इतनी टिप्पणियाँ हो गयी है कि शायद अब नयी टिप्पणी देने की गुंजायश ही न रहे पर सुनील जी आपने जब यह लिखा कि
    “क्या भारत देश की सेना १९६२ में शास्त्र से सुसज्जित नहीं थी. फिर भी क्यों एक शक्ति संपन देश की बहुत बुरी हार हुई. १९६२ की हार दुनिया की शर्मनाक हारो में से एक है.”
    तो आपने भारतीय इतिहास के ऐसे पन्ने को पलट दिया जो बहुत पुराना तो नहीं है ,पर बहुत शर्मनाक है.अगर अमेरिका ने सही समय पर हस्तक्षेप नहीं किया होता तो शायद यह और शर्मनाक हो जाता.आज तो यह साबित हो चूका है कि चीन कमसे कम अरुणांचल प्रदेश को तो अपने कब्जे में ले लेना ही चाहता था,जिसको वह आज भी अपने देश का हिस्सा मानता है.सच पूछिए तो हमारी सेना उस समय सशस्त्र नहीं थी.सेना किसी भी युद्ध के लिए उस समय तैयार नहीं थी.गोली,बारूद और आधुनिक हथियारों की कौन कहे,सेना के पास सर्दी सहन करने युक्त वर्दियां भी नहीं .थी.सोवियत संघ जो उस समय हमारा सबसे बड़ा मित्र माना जाता था,इस युद्ध में हमारा साथ देने या पक्ष लेने से इनकार कर चुका था.भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का एक बड़ा हिस्सा खुले आम चीन के समर्थन में खड़ा हो गया था.इसी मतभेद के कारण उसी समय कम्युनिस्ट पार्टी के दो हिस्से हो गए थे,रूस समर्थक और चीन समर्थक.खैर उससे दो लाभ तो अवश्य हुए,एक तो हम आने वाले युद्ध केलिए जो ठीक तीन वर्षों बाद आया तैयार हो गए और दूसरे कम्युनिस्ट पार्टी का असली चेहरा भी सामने आ गया.ऐसे तो प्रश्न यह भी उठता हैकि हम यद्ध के लिए तैयार क्यों नही थे तो यह ऐसा प्रश्न है जिसके उत्तर के लिए उस समय के सरकार के साथ ही विपक्ष को भी कठघरे में खड़ा करने की नौबत आ जायेगी.

  3. श्री आर सिंह जी ने मेरे कहे को पढ़ा. धन्यवाद. श्री सिंह जी का कहना ठीक है की सिर्फ हन्दू धर्म से जोड़ना सही नहीं होगा. मैंने तो एक उद्धरण दिया था. उसी उद्धरण में मैंने अहिन्षा के बारे में भी लिखा था की कैसे एक पंक्ति से पुरे राष्ट्र को कायर और कमजोर दिखने की कोशिश की गई है.
    .

    * मैंने कहा की शक्ति संतुलन बना रहेगा अगर सभी के पास छमता के अनुसार हतियार हो. अमेरिका के पास पचासों हजार परमाणु हतियार है किन्तु वोह एक छोटे से देश पर भी सीधे हमला नहीं कर सकता है. कूट निति चलनी पड़ती है. अगर हमारे पास तोप है और हम जिसको मरने जा रहे है उसने सब्जी काटने का चाकू भी निकल दिया तो हम थोडा तो डरेगे. यहाँ १०० या ०१ का प्रशन है है, मुद्दा शक्ति संतुलन का है.

    * क्या भारत देश की सेना १९६२ में शास्त्र से सुसज्जित नहीं थी. फिर भी क्यों एक शक्ति संपन देश की बहुत बुरी हार हुई. १९६२ की हार दुनिया की शर्मनाक हारो में से एक है. यह अलग बात है की यह हार दिल्ली की अदूरदर्शिता और सरकारी कार्य प्रणाली के कारण हुई.

    * सिर्फ सेना ही क्यों आम आदमी में भी देश प्रेम की भावना जाग्रत करनी होगी. स्वतंत्रता दिवस के साथ साथ हमें स्मरण दिवस, पराक्रम दिवस, शोर्य दिवस को भी मनाया जाना चैये जब पुरे देश में अंग्रेजो, और भी अन्य आक्रमण करिया के जुल्मो की पिक्चर, पुरे देश को दिखाई जाय ताकि कम से कम एक दिन तो हमारी जनता के खून में उबाल आये. सबक इतिहास से सीखा जाता है. हमारे यहाँ सच्चा इतिहास है ही कहाँ. इतिहास की किताबे लिखवाई गई है.

    * एन सी सी के साथ साथ नैतिक और चारित्रिक सिक्षा भी दी जाय. एन. एस एस और स्काउट गाइड की भी सिक्षा भी अनिवार्य की जाय.

    * स्कूल में एन सी सी, एन एस एस और स्काउट गाइड के नंबर जोड़ने से वाकई अच्छे परिणाम आयेंगे.

    * देश में सर्वोच्च प्रतियोगी परीक्षा में भी अन्य नंबर जुड़ने चाइये – देश को बहुत ज्यादा फायदा होगा. मेरा लेख है https://ias-minimum-age.blogspot.com

    एक बार फिर से श्री शंकर शरण जी को इतना अच्छा लेख लिखने के लिए धन्यवाद. श्री आर सिंह जी को लेख की टिपण्णी पढने के लिए धन्यवाद.

  4. अपना शौर्य तेज भुला यह देश हुआ क्षत-क्षत है।
    यह धरा आज अपने ही मानस -पुत्रों से आहत है।
    अब मात्र उबलता लहू समय का मूल्य चुका सकता है।
    तब एक अकेला भारत जग का शीश झुका सकता है।
    एक किरण ही खाती सारे अंधकार के दल को।
    एक सिंह कर देता निर्बल पशुओं के सब बल को।
    एक शून्य जुड़कर संख्या को लाख बना देता है।
    अंगार एक ही सारे वन को राख बना देता है।
    मै आया हूँ गीत सुनाने नही राष्ट्र-पीड़ा के।
    मै केवल वह आग लहू में आज नापने आया
    मै राष्ट्र-यज्य के लिए तुम्हारा शीश मांगने आया

    आलोक राष्ट्र का पश्चिम की बदली में अटक गया है।
    अन्धकार की राह पकड़कर सूरज भटक गया है।
    सहना कोई अन्याय यह कायरता का सूचक है।
    यह किसी राष्ट्र की जनशक्ति की जड़ता का सूचक है।
    मात्र अहिंसा तो ऋषियों का आभूषण होती है।
    par राज मार्ग पर कायरता का आकर्षण होती है।
    हिंसा के प्रतिशोधों को तो युद्ध किए जाते है।
    प्रस्ताव अमन के वीरों द्वारा नही दिए जाते है।
    इस कायरता के संस्कार है रोपे जिसने मन में।
    वह भावः अहिंसा के मन से मै आज काटने आया।
    मै राष्ट्र-यज्य के लिए तुम्हारा शीश मांगने आया

  5. ऐसे इस लेख के पक्ष और विपक्ष में बहुत टिप्पणियां हुई हैं.मैं अपनी टिप्पणियों में लिखे हर शब्द पर कायम रहते हुए अपने उसी विचार को थोडा आगे बढाना चाहता हूँ जिसमे मैंने स्कूलों में एन सी सी ट्रेनिंग केबारे में लिखा था.मेरा मानना है कि स्कूलों में सैनिक शिक्षा अनिवार्य कर दीजिये और उसमे प्राप्त कुशलता को परीक्षा में प्राप्त अंक से जोड़ दीजिये.अन्य किसी कदम की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी.

  6. एक बेहद उम्दा लेख . आर्म्स एक्ट पर विचार सटीक हैं .अन्य देशों में ऐसी कोइ पाब्म्दी नहीं है , यहां से भी यह हटाना चाहिए .
    हर्जाने के साथ ही बाइज्जत बरी लोग हों.
    क्षेत्रपाल शर्मा

  7. सुनील पटेल जी अभी तक मैंने तटस्त रह कर टिप्पणी करने की कोशिश की थी,पर आपने इस प्रश्न को ऐसे मोड़ पर ला दिया है कि मुझे यह पूछने पर वाध्य होना पड़ा है कि इस देश में हिन्दू है कौन?हिन्दू इतने तबको में बटे, हुए हैं कि हिंदुत्व की परिभाषा देना भी कठिन कार्य हो गया है.फिर भारत जैसे देश में किसी एक तबके को हथियारों से लैस करना,चाहे वह दिखावेपन के लिए बहुसंख्यक तबका ही क्यों हो, न संभव है न व्यवहारिक.आधुनिक युग में देश की सुरक्षा के लिए सेना को मजबूत बनाने की आवश्यता है न की देश के एक खास तबके को हथियारबंद करने की. आज फिर मैं दुहराता हूँ कि यह लेख और इस पर बहस आधुनिक युग केलिए बकवास और समय की बर्वादी के सिवा कुछ नहीं है.

  8. श्री शंकर सरन जी ने बिलकुल सही कहा है. सच कडवा होता है. ३३ करोड़ देवी देवता के हिन्दू धर्म में कोई भी देवी देवता कायरता की शिक्षा नहीं देता. सभी कर्म करने को कहते है. किन्तु हाय रे …… अहिन्षा.

    दुनिया में किसी भी देश में कभी भी कोई भी आजादी बिना अस्त्र शास्त्र के नहीं मिली किन्तु इस देश को तो बिना खड्ग बिना ढाल के गाँधी जी ने आजादी दिला दी. कुछ समय बाद तो चन्द्र शेखर, भगत सिंह, नेताजी के नाम भी इतिहास से मिटा दिए जायेंगे इनकी जगह भोंदू, चिकने चुपड़े युवराज टाइप के लोगो की जीवनी पढाई जायगी. हो सकता है जिन्होंने ने आजादी के लिए अपनी जाने कुर्बान कर दी उन्हें लुटेरे, आतंकवादी के रूप में दर्शाया जाय. जिस देश में सच्चा इतिहास पढाया ही नहीं जाता हो वहां कुछ भी संभव है.

    एक सच्ची बात कही है आदरणीय शरण जी ने आर्म एक्ट. बिलकुल सही है. जब हर घर में शास्त्र होंगे तो समाज में संतुलन बना रहेगा. हम कायर तो बना ही दिए गए. जिस को सच्चा इतिहास ही पता नहीं होगा उनके खून में उबल कहाँ से आएगा.

    अंग्रेजो के ३ विरुस – चाय, क्रिकेट और अंग्रेजी. चाय (दूध और शक्कर का काढ़ा) ने लोगो का हजम ख़राब कर दिया. क्रिकेट ने पसीना बहाना ख़त्म करवा दिया (झक मरने की तरह सुबह से शाम तक खेलते रहो). अंग्रेजी का तो कहना ही क्या. हमारे सामने पिद्दी से देश भी अपना सारा कम उनकी भाषा में करते है किन्तु हमारे देश में तो अंग्रेजी अनिवार्य है.

    श्री शंकर शरण जी को इस लेख के लिए बहुत बहुत बधाइ.

  9. आज एक मुसलमान छाती ठोककर कर कहता है कि “मै एक सच्चा मुसलमान हूँ”, पर हमें खुद के हिंदू होने पर शर्म आती है, हाथ में कलावा तक नहीं बाँधते क्योंकि इससे हम सांप्रदायिक हों जायेंगे……मुसलमान जालीदार टोपी पहनकर शान से निकलते हैं, पर हमें तिलक तक लगाने में शर्म आती है……..गलती किसी और की नहीं, हमारी ही है………वास्तव में हम कायर हैं, और मुझे ये कहने में कोई शर्म नहीं, क्योंकि यही वास्त्विकता है……..

  10. आदनीय आर0 सिंह जी आपके विचारों में दम है। हिन्दू किस कारण कमजोर हुआ इसपर वहस करने या करवाने वाले अभिजात्य हिन्दू हैं। हमें तो आज इस विषय पर बहस करनी चाहिए कि जो लोग अपने को हिन्दुत्व के झंडावरदार घोषित कर रहे हैं उनके पूर्वज हिन्दुत्व के लिए कितना लडे। इस देष में ब्राह्मण, राजपूत और अन्य अभिजात्य जातियां सदा विदेषी आक्रांताओं के साथ सांठगांठ करती रही है। इतिहास गवाह है कि जब मुस्लिम आक्रांता इस देष में आये तो इसी देष के अभिजात्य लोगों ने उसका स्वागत किया। कुमाउं के राजा जब वहां के बांह्मणों की बात नहीं मानते तो ब्राह्मण समुदाय नेपाल के राजाओं से संधि कर कुमाउं पर आक्रमण करवाता रहा है। इतिहास में इसके कई प्रमाण मिल जाएंगे आपको। आज जिस हिन्दुत्व को हम अपना रहे हैं उस हिन्दुत्व के लिए लडने वाली जाति आज भी समाज के सबसे कमजोर जातियों में गीनी जाती है। आपको पता है गया के विष्णुपद मंदिर की रक्षा चांद और बहुआर नामक दो दुसाधों ने की जिसके बंषजों को ब्राह्मणों ने मुस्लमानों के कहने पर अस्पृष्य घोषित कर दिया। दुसाध शैलेस मोरंग का राजा था जो अपने शासन काल तक मुस्लिम आक्रांताओं को मिथला में प्रवेष तक नहीं करने दिया लेकिन बाद में राजपूतों ने मुगलों के साथ संधि कर इस क्षेत्र को भी अपने कब्जे में लिया। इस देष में शक्ति की कमी नहीं रही है और न ही शक्ति साधकों की ही लेकिन देष का समझौतावादी जमात सदा देष के साथ गद्दारी करता रहा है। ऐसे ताकतवर जातियों का इतिहास भी योजनाबद्ध तारीके से घालमेल कर दिया गया। आज इस दिषा में बहस की जरूरत है। दूसरी बात भारत में इस्लाम और ईसाइयत दोनों को अभिजात्य धर्मांतरित तबका नेतृत्व दे रहा है। कही आने सुना है कि जुलाहा या धुनिया का लडका किसी मस्जिद का इमाम होता है। हर कही शेखजादे ही इमाम होते हैं। यही स्थिति चर्चों की भी है। इसलिए आज तो इन विषयों पर कहस होनी चाहिए। सिंह साहब जब इतिहास के परतों को लोकगीतों के माध्यम से जानने का प्रयास करेंगे तो आपको आष्चर्य होगा।

  11. ॥परोपदेशे पांडित्यं॥
    बडोंसे सुनी हुयी बात==>{सेक्युलरों को जाननी चाहिए।}
    स्वतंत्रता के बाद के दिनो में, ईलाहाबाद में, एक कृषकों की सभा में नेहरु जी का भाषण हुआ था। छोटी इन्दिरा जी भी मंच पर उनके साथ बैठी थी।

    और नेहरूजी नें भाईचारे के स्वरो में, निर्वासितों को, पाकीस्तानी मुसलमानों के, अत्याचारों को भूल जाने की बात कही थी।
    उसी सभा में, सिंध पाकीस्तान से आए हुए एक निर्वासित सज्जन बैठे थे।
    भाषण समाप्त होनेपर, बालिका इंदिरा जब मंचसे नीचे आयी, तो इस वृद्ध सज्जन नें उसका मुख प्रेमसे चूम लिया।
    नेहरू जी ने, यह देख, बडे क्रोध से उस वृद्ध को जोरदार थप्पड मार दी।
    तब वृद्ध न कहा था, कि अभी आप हमारी बेटियों के बलात्कारियों को क्षमा कर देने का, मशवरा दे रहे थे, तो अब क्या हो गया?
    मैं ने तो छोटी इन्दिरा (बच्ची) को सात्विक प्रेम से चुमा था। पर आप उसे भी सह ना सकें?
    यह है सेक्युलर बर्ताव।
    परोपदेशे पांडित्यं।

  12. मेरी टिप्पणी के बाद अन्य टिप्पणियाँ भी आई हैं ,पर अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि उसमे भी घिसी पिटी दलीलें दी गयी है. न कोई ठोस सुझाव दिया गया है और न मेरे द्वारा दिए गए सुझाओं पर गौर किया गया है.डाक्टर राजीव कुमार रावत ने मेरी एक बात का अनुमोदन अवश्य किया है कि हमारी कायरता का अंग्रेजों द्वारा किये गए तथाकथित निरस्त्रीकरण का कोई सम्बन्ध नहीं है.आवश्यकता है उन कारणों का पता लगाने की,जिसके चलते हम खानदानी कायर हैं,जैसा की डाक्टर रावत ने कहा है.उन्होंने आगे भी बहुत कुछ कहा है,पर समाधान वे भी नहीं दे सके हैं.मैं फिर इस बात को दुहराता हूँ कि हिन्दुओं के बच्चों के हाथों में हथियार पकडाना इस समस्या का निदान नहीं है.ज्यादा उम्मीद है कि वे हथियार अगड़ो और पिछडो के आपसी झगड़े निपटाने के काम आयेंगे या फिर दलितों और दूसरों के बीच खूनी संघर्ष के कारण बनेंगे.

  13. शंकर शरण जी बिना रुके थके इस सद कार्य को अंजाम तक पहुचाये जन जन तक सच्चे सेकुलरिज्म को पहुचने में अपना योगदान जरी रखे

    सेकुलर होना ना तो कोई बुराई न तो पाप है. किन्तु इतना सेकुलर हो जाने में कहा की भलाई है की एक व्यक्ति आपकी पुत्री के साथ व्यभिचार करे और आप सेकुलर सेकुलर जपते रहे केवाल और केवल स्कुलारिज्म के लिए

    किन्तु कुछ तथा कथित लेखक बीके हुए विचारक केवल सेकुलर सेकुलर की बिना वजह रट लगाये रहते है क्योकि सत्य अर्थो में इन्हें स्वयम पता नहीं होता आखिर सेकुलरिज्म है किस बाला का नाम .ऐसे लोगो से पूछा जाना चाहिए क्या ये अपनी पुत्री पत्नी बहन के साथ हुए किसी प्रकार के व्यभिचार को सेकुलारिजम के नाम पर समर्थन करते है
    जिस किसी को आज सेकुलर बनाने की जरूरत है उसके सामने किसी तरह की बात करने में इन बेवकुफो की नानी मरती है .
    अन्यथा जब किसी धर्म विशेष में गैर धर्म की अबला पर किये गए व्यभिचार बलात्कार को पुन्य कर्म बताया जाता है तब इनका सेकुलरिज्म कहा चला जाता है शोध का विषय है . .

    जबकि सारा हिन्दू समाज जन्मजात सेकुलर सहनशील सत्य अर्थो में कायर भी होता है ये बात गाँधी के चमचो को अच्छी तरह पता है अपवादों को छोड़ कर.
    .इसी लिए ये मूर्ख लेखक बीके हुए विचारक सेकुलरिज्म के नाम पर हिन्दुओ को सदा से ही गरियाते आ रहे है

    .
    इन तथाकथित सेकुलरो की बोलती या यू कहो इनकी बिकी हुयी कालमो की स्याही वाही क्यों चुक जाती है .जहा सेकुलर होना सबसे बड़ा गुनाह बताया जाता है वो भी धर्म के नाम पर .
    लानत है ऐसे लेखको पर
    इतना कुछ होने के बाद भी कुछ अविवेकी हिन्दुओ को लगातार सेकुलर बनो सेकुलर बनो कह कर क्या साबित करना चाहते है

  14. मित्रो,
    जैसा मैंने पहले भी एक टिप्पणी में लिखा था कि हम भारत वासियों को अपनी गंदगी,गरीबी,गलतियों से प्यार हो गया है और कोई भी विश्लेषण हमें डरा देता है इसलिए हम बचते फिरते हैं- खानदानी समस्य़ा है। निर्मम चीड़ फाड़ कर निदान नहीं करते- यही हाल हमारी इस चिंता में भी है- एक बहुत सही विषय उठाया गया है शक्ति पूजा का विस्मरण- इसे भी बौद्धिक ले उड़ेगे और मटियामेट कर देंगे- अरे इसीलिए तो कोई दयानंद सरस्वती दूसरा नहीं पैदाहुआ क्योंकि किसी ने यह सोचने की हिम्मत ही नहीं की कि इस शिवलिंग पर चूहा——– – – – – ? सोमनाथ मंदिर के पुजारी महाकाल प्रतिमा से चिपट गए- अरे कायरो भगवान शंकर का त्रिशूल उठाया होता तो आज देश और दुनिया का इतिहास दूसरा होता, जिस दर्रे से सबसे पहले आक्रमणकारी आए थे क्या आप जानते हैं उसकी चौ़ड़ाई क्या है , मात्र एक घुड़सवार के गुजरने की– और यह कायरता की महिमामंडनी परंपरा हमें हमारे वर्तमान तक लाती है कि हम एक आंतकवादी को छोड़ने के लिए कांधार तक जाते हैं कितनी ही मांओं के दूध,कितनी सुहागिनों के सिंदुर को लजाते हैं, आज भी शहीदों को कलंकित करते हैं -रामदेव अन्ना को गरियाते हैं- और दुर्गा पूजा मनाते हैं, शिवरात्रि मनाते हैं, जन्माष्टमी मनाते हैं- कजरारे कजरारे , मुन्नी बदनाम हुई, शीला की जबानी की धुनौं पर । मैं किसी भी वाद की चर्चा नहीं करुगां और न कोई व्यक्तिगत आरोप है – सब को अपनी अपनी बात कहने का हक है- लेकिन यह सच है कि आज हमें ऐसे ही विचारोत्तेजक एवं विशल्ष्णात्मक लेखों की आवश्यकता है ये जितने भी कायर दयालुता की बात करने वाले हैं न- इन्होंने अपने जीवन में कुछ नहीं खोया – सुविधाभोगी जमात है इसलिए क्रांति की बात भी इनकी सुविधाओं मे खलल डालती है क्योंकि ये सदियों से शेष को मूर्ख बनाकर शासन करते आए हैं , तुरंत ही इनको भय सताने लगता है किसी आक्रोश या नंगे स्वर को सुनकर । मैं परम धार्मिक हूं, आस्तिक हूं, गांधी जी का सम्मान करता हूं परंतु प्रश्नों से मुहं चुराने वाला भगोड़ा नहीं हूं, इन के देवताओं की छवि इतनी कमजोर क्यों हैं हमारे यहां के एक दल की तरह जिसमें राजा रानी कुवंर साहब के ऊपर चर्चा नहीं की जा सकती । भाई यह ब्रिटेन नहीं है- लोकतंत्र है और अब आदमी समझदार हो रहा है- तो निश्चित ही अपनी भूलों को देखेगा पहचानेगा और आगे की सही राह बनाएगा-कुछ की नींद खराब होगी उन्हें चिल्लाने दो-आप ऐसे ही अच्छे लेख लिखते रहिए।

  15. (१)हिंसक की हिंसा के सामने अहिंसक की अहिंसा==>कसाई के सामने आँखे मुन्दी गौ ने प्रस्तुत होने जैसी है। यह आत्म हत्त्या ही कही जायगी।
    (२) असहिष्णु लोगों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार, सहिष्णुता के धीरे धीरे {सिकुडते सिकुडते } अन्त में ही परिणत होगा। प्रमाण: अखंड जम्बु द्वीप से —>१/३ कश्मिर गया —>अफगानिस्तान गया—>पाकीस्तान गया—>बंगलादेश गया—-कश्मिर से हिन्दू भगाया गया और ??????
    (३) सहिष्णुता का परिणाम—> पाकीस्तान और बंगलादेश से हिन्दु खदेडा गया, पर भारत में मुसलमान पाकीस्तान से भी अधिक खुश है।
    (४) और स्वतंत्र भारत में भी हिन्दू कश्मिरसे भी भगाया गया है।
    (५)रावण के पुतले जलाते हो। पर कभी एक रावण को भी जलाकर दिखाओ ना, एक अपवाद रुप ही सही,—> चलो ज़रा रावण को एक थप्पड मार कर ही, राम (जन्म)नौमी, मनाओगे तो क्या श्री लंका की सेना, आप पर आक्रमण करेगी?

  16. मैं अगर इस लेख को कोरा बकवास कहूं तो आप सब लोगों को जो इस लेख की प्रशंसा के पूल बाँध रहे हैं और श्री शंकर शरण जी को बहुत बुरा लगेगा न.सच पूछिए तो मुझे भी बहुत बुरा लग रहा है यह जान कर कि एक अच्छा पढ़ा लिखा व्यक्ति समाज में जहर फैला रहा है और अन्य लोग बिना समझे बुझे उसका समर्थन कर रहे है.शंकर शरण जी आप किस शक्ति की उपासना की बात कर रहे हैं और उससे किसका भला होने की उम्मीद कर रहे हैं? आप हिन्दू बच्चों को क्या बनाना चाहते हैं?,गली का गुंडा या मवाली?पढाई के बदले उनके हाथ में क्या देना चाहते हैं?आपने लिखा है कि अंग्रेजों ने भारत को निरस्त्र किया तो उसके पहले के आक्रमणकारियों के हाथों हिन्दुओं के हार का क्या कारण है?आपने ने गांधी के तथाकथित पोथी के बारे में भी कुछ लिखा है और हिंद स्वराज्य को पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने का रोना रोया है.मुझे नहीं मालूम की हिंद स्वराज्य किस पाठ्यक्रम का अंग है?ऐसे भी हिंद स्वराज बच्चों के पढने की चीज नहीं है.आप जैसे विद्वान भी जब उसको नहीं समझ पाए तो बच्चे क्या ख़ाक समझेंगे?एक बात आपको बता दूं ,गांधी की हत्या तो हमने १९४८ में की पर उनके सिद्धांतों की तिलांजलि तो हम उसके पहले ही दे चुके थे नहीं तो इतना भ्रष्टाचार और लुच्चापण इस देश में आता हीं नहीं.
    आपने बहुत सी अन्य बातें भी लिखी हैं जो मुझे एक दिग्भ्रमित व्यक्ति की बकवास से ज्यादा कुछ नहीं लग रही है.
    अगर शक्ति सम्पन्नता की वकालत ही करनी है तो उसके साथ अनुशासन की भी वकालत कीजिए ,जिसके अभाव में जिन स्कूली छात्रों के हाथ में हथियार है वे समाज के कोढ़ साबित हो रहे हैं.
    अगर आवश्यकता है कि छात्र छात्राओं को बिना किसी भेद भाव के शक्तिमान और अनुशासित बनाया जाए तो स्कूलों में एन.सी.सी को फिर से शुरू कराइए और नवजवानों के लिए कुछ दिनों तक सेना में रह कर देश की सेवा को अनिवार्य काराइये इससे शक्ति भी आयेगी और अनुशासन भी आयेगा.बच्चों के हाथों में तमंचे तो न पकदाइये और वह भी केवल हिन्दू बच्चों के हाथोंमें .आप तो शायद यह समझ रहे हैं कि आप इससे हिन्दुओं का भला कर रहे हैं,पर मेरे ख्याल से आप हिन्दुओं के शत्रु जैसा व्यवहार कर रहे हैं.मुझे तो यह लेख हिन्दुओं के खिलाफ एक षड्यंत्र जैसा लग रहा है.अभी स्कूलों में हथियार लेकर जाने और गुंडा गर्दी में हिन्दुओं के लड़के ही आगे हैं .उनको और बढ़ावा तो न दीजिये.

  17. सम्माननीय शंकर जी आपके आलेख से जैन साहब और सिन्हां जी ज्यादा खफा हैं। पता नहीं क्यों वे गांधी की उस चार पन्ने वाली किताब को दुनिया का महाग्रंथ घोषित करने पर तुले हैं। याद रहे हिन्द स्वराज में दुनिया की सारी समस्या का समाधान नहीं है। कुछ समाधान जरूर है जिसे इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन हर मर्ज के लिए हिन्द स्वराज का हवाला दें यह भी ठीक नहीं है। जैन साहब ने अपने जैन दर्षन को ही एक बार फिर से स्थापित करने का प्रयास किया है। हर का अपना नजरिया है। कुछ लोग जीव को जीव का भोजना मानते हैं तो कुछ लोग जीव को जीव का जीवन मानने वाले भी हैं। हम हिन्दू दोनों में सहमत हैं लेकिन याद रहे वन में वही वृक्ष काटा जाता है जो सीधा होता है। टेढे मेढे वृक्ष को कोई नहीं काटता। फिर बलि अजापुत्रों की ही होती है, सिंह या फिर हाथी को बलि के लिए नहीं लाया जाता। इसलिए दुनिया में जिंदा रहने के लिए ताकत तो चाहिए ही हां उस शक्ति के उपयोग पर विचार होना चाहिए। उसका उपयोग कहां किया जाये। जैन साहब को याद होगा जब बाहुंबलि ने अपने अपने छोटे भाई को मल्लयुद्ध में परास्त कर छमा कर दिया था। शक्ति की अराधना तो सत्य है लेकिन उसके प्रयोग पर संजीदगी से विचार होना चाहिए। कमजोर और दुर्बल पर धौंस जमाना कतई नीति सम्मत नहीं है लेकिन पषुता एवं विकृत मानसिकता को परास्त करने के लिए शक्ति की उपाषना तो जरूरी ही है। एक सिद्धांत यह भी है कि शक्ति संचय के लिए है उसका प्रदर्षन कतई नहीं होना चाहिए। याद रहे कोई गुड से मरे तो फिर विष देने की क्या जरूरत है। सिन्हा जी ने कहा है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से इस देष में हिन्दुओं से ज्यादा गैर हिन्दू माने गये हैं। सिन्हा साहब इसका हिसाब देना चाहेंगे। यह भी सत्य है कि साम्प्रदायिक दंगों से ज्यादा लोगों को साम्यवादी अपराधियों ने मारा है। अब यह भी साबित हो गया है कि मुस्लिम चरमपंथियों को भी साम्यवादियों ने ही उक्साया है। इसका कोई जवाब है सिन्हा साहब तो प्रस्तुत करें। तथ्यों की मिमांषा होती है अनरगल प्रलापों पर विवाद से कुछ मिलने वाला नहीं है। शंकर जी ने जो लिखा वह सत्य के आसपास तक है। विवाद तो कर सकते हैं लेकिन बिना शक्ति के न तो जैन साहब चल सकते और न ही सिन्हा साहब।

  18. श्री बी. के. सिन्हा जी। गाँधीजी ने भी एक बार यह सच लिख दिया था। बीस पेज लंबे उन के लेख का शीर्षक था, Hindu-Muslim Tension: Its Cause and Cure । इस में एक उप-शीर्षक ‘The Bully and the Coward’ के अंतर्गत गाँधी ने विस्तार से लिखा कि मुसलमान प्रायः गुंडे होते हैं और हिन्दू कायर। आप अपनी टिप्पणी की तुलना गाँधी के अपने ही शब्दों में लिखी इस बात से करके देखें, “My own experience confirms the opinion that the Mussalman as a rule is a bully, and the Hindu as a rule is a coward. I have noticed this in railway trains, on public roads, and in the quarrels which I had the privilege of settling. Need the Hindu blame the Mussalman for his cowardice? Where there are cowards, there will always be bullies. They say that in Saharanpur the Mussalmans looted houses, broke open safes and, in one case, a Hindu woman’s modesty was outraged. Whose fault was this? Mussalmans can offer no defence for the execrable conduct, it is true. But I, as a Hindu, am more ashamed of Hindu cowardice than I am angry at the Mussalman bullying.” (यंग इंडिया, 29 मई 1924)।

  19. आदरणीय शंकर जी आपका लेख बेहद सटीक एवं उम्दा है, पर कुछ लोगों को पच नही पा रहा है, मैं तो इसे बेहतरीन लेख कहूंगा आगे भी लिखते रहे, कुछ लोग हिन्दू नाम से सेकुलर टिप्पणी करने से बाज नहीं आते हैं उनकी तरफ ध्यान ना दे.

  20. भगत सिंह कोई वामपंथी या दक्षिणपंथी नहीं थे। उनके नेता चंद्रशेखर आजाद और सहयोगी सच्चिदानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जैसे लोग थे। उन सबकी विचार-दृष्टि विदेशी शासकों से हथियारों से लड़ने की थी। यह उद्देश्य कम्युनिस्ट विचार नहीं था। फिर एकाध कम्युनिस्ट पुस्तिकाएं उलट लेने से कोई वामपंथी नहीं कहा जा सकता। नहीं तो राजनीति शास्त्र के सारे प्रोफेसर वामपंथी कहे जाते। फिर 24 वर्ष की आयु में तो भगत सिंह बलिदान हो देह-त्याग कर चुके थे। अतः 20-22 की आयु में एक सामान्य युवा कितना राजनीतिक दर्शन जान पाता और कोई समझ बनाता है, यह अनुमान किया जा सकता है। भगत सिंह को वामपंथी बताने का दुष्प्रचार केवल कम्युनिस्टों ने किया। भगत सिंह के मित्रों, परिजनों ने यह कभी न कहा। कम्युनिस्ट तो निराला, प्रेमचंद और भगतसिंह तक किसी भी बड़ी हस्ती पर ‘कब्जा’ करके अपनी नीच राजनीति को प्रतिष्ठित बताने की चेष्टा करता रहा है। कोरी विज्ञापनबाजी, जिसमें अनैतिकता भी है। क्योंकि एक दिवंगत विभूति का दुरुपयोग अपना घटिया माल बेचने के लिए किया जाता है।

  21. बहुत हीं शोधपूर्ण और विचारोतेजक लेख लिखा है शरण साहब ने..उन्हें मैं अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं…

  22. लेखक अपने भ्रांतिपूर्ण विचार सदा से रखता आया है इस बार तो उसने बापू पर ही हमला कर दिया उंके हिंद स्वराज पर उंगलिया उठाई हिंद स्वराज एक दार्शनिक रचना है जिस पर रस्किन की अन टू द लास्ट और लिओ तालस्ताय का प्रभाव देखा जा सकता है राम की शक्ति पूजा निराला की काव्य रचना है कोई एतिहासिक तथ्य नहीं खुद दुर्गा पूजा भी कई परम्पराओं का घालमेल है मूल रूप में यह अनार्यों द्वारा किया गया धार्मिक कृत्य है आर्यों ने इसे कभी मान्यता नहीं दी कुछ लोग ऋग्वेद की देवी सूक्त को इससे जोड़ कर देखते है पर वह ऐसा नहीं है दुर्गादेवी पुराणों की उत्पत्ति है जो सर्वप्रथम मार्कंडेय पुराण और देवी भगवत में उल्लेख की गयी. पुराण स्वयं पंद्रह सौ साल पुरानी रचना है खैर मुख्य विषय पर आया जाय देश में आजादी के बाद जितने भी दंगे फसाद हुए है उसमे हिन्दुओं की संख्या से ज्यादा गैर हिन्दुओं के मरने वालों की संख्या रही है अब कोई यह बताये की हिन्दू जैसा निरीह और अच्छे बच्चे के पास हत्या करने के लिए हथियार कहाँ से आये क्या जादू मंतर का प्रयोग किया गया जिससे एक झटके में ये सारे लोग मारे गए कहते है हिन्दू अच्छे बच्चे है वे किसी को नहीं सताते है तो फिर अपने स्क्रिप्चर्स पर नजर डाल ले अगर उसकी और ध्यान दिया जाय तो न जाने कितने मानवाधिकार योग बनाने पड़ जाय कुछ लोगों को disinformation की तकनीक ज्यादा लुभाती है और वे प्रबुद्ध भारतियों के निगाह में आ जाते है उनकी बकवास पर ध्यान भी नहीं देते .
    बिपिन कुमार सिन्हा

  23. शंकर जी एक उम्दा और शक्तिशाली लेख |शक्ती से ही संसार भक्ति करता हे |मिसाइल में अब्दुलकलाम का भी ये ही सूत्र वाक्य हे |कुछ दुष्टों को आपकी दिखाई शक्ती में भी खोट नजर आ रहा हे ?शायद “‘लाल रंग का मोतियाबिंद हुवा हे “‘इस लिए लाल ही लाल नजर आ रहा हे |

  24. लेखक महोदय , हमारे लिए आपने यह प्रेरणा संप्रेषित की, इसके लिए हार्दिक धन्यवाद्.
    आपका लेख व विचार प्रशंशनीय व अनुकरणीय है .
    छत्तीसगढ़ में शक्तिपूजा गावों में चैत्र नवरात्र में होता है , यहाँ बलि प्रथा भी मानी जाती है , घर घर में विशेषतया बड़े बेटे के विवाह होने पर कुलदेवी की नवरात्र के रूप में पूजा की जाती है .
    साथ ही बाना लिया जाता है , गालों में बाजुओं में जीभ में त्रिशूल रूपी बाना घुसाकर देवता को मनाया जाता है

  25. शंकर शरण जी का लेख बहुत ही सुंदर जानकारी पूर्ण एवं सटीक है और हमे इससे सबक लेना चाहिए |धन्यबाद इस सुंदर लेख के लिए |

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