सत्ता संघर्ष से रू-बरू उत्तर प्रदेश

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उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों से पूर्व राज्य में राजनैतिक तापमान दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। सत्ता संघर्ष  के इस वातावरण ने पूरे प्रदेश में अच्छा-खासा तनाव बना दिया है। साफ प्रतीत हो रहा है कि बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख तथा प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती किसी भी कीमत पर अपने हाथ से सत्ता जाने नहीं देना चाहतीं। परंतु गैर बसपाई दल इसी फरा़ में हैं कि किसी भी तरह से इस बार मायावती को सत्ता से हटा कर ही चैन लिया जाए। ज़ाहिर है सत्ता में बने रहना या सत्ता छोड़ना चूंकि जनता जनार्दन के हाथों में है इसलिए बसपा सहित सभी राजनैतिक दल जनता को लुभाने

के लिए तरह-तरह े हथकंडे भी अपना रहे हैं। यदि सत्तारुढ़ बीएसपी की बात छोड़ दें तो राज्य के अन्य सभी विपक्षी दलों में इस बात की भी होड़ लगी हुई है कि प्रदेश में मायावती तथा बहुजन समाज पार्टी के विकल्प के  रूप में दरअसल असली दावेदार है कौन? कांग्रेस,समाजवादी पार्टी या भारतीय जनता पार्टी?
इसमें कोई शक नहीं कि हमेशा सत्तारूढ़ दल को ही स्वयं को सत्ता में बनाए रखने के लिए सबसे अधिक प्रयास करने होते हैं। सत्तारूढ़ दल चूंकि चारों ओर से विपक्ष के आरोप तथा अपनी अकर्मण्यताओं एवं नष्कि्रियताओं े चलते भारी प्रहार झेल रहा होता है इसलिए उसे समक्ष रक्षात्मक मुद्रा अपनाने की भी ज़बरदस्त चुनौती आ खड़ी होती है। इसे अतिरिक्त विपक्ष द्वारा बताई व गिनाई जाने वाली नाकामियों के जवाब में सत्तापक्ष को अपनी उपलिब्धयों को भी बढा़-चढ़ा कर जनता के  समक्ष पेश करना होता है। सत्तापक्ष अपने शासन काल में जिनती भी लोकहितकारी एवं लोकलुभावनी योजनाएं कार्यान्वित करता है उनका भी बढ़ा-चढ़ा कर ब्यौरा जनता को दिया जाता है। इसे लिए सत्तारूढ़ दल सरकारी फंड का भरपूर दुरुपयोग कर समाचार पत्रों, रेडियो व टेलीविज़न में तथा तमाम स्थानीय व राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में भारी-भरकम विज्ञापन जारी करते हैं। लगभग सभी राज्यों की सरकारें यहां तक कि ेंद्र सरकार भी इस रणनीति का सहारा लेते हुए देखी जा सकती है। इसी संबंध में यहां एक बात का ज़िक्र करना और भी प्रासंगिक होगा। सरकारें भलीभांति यह भी जानती हैं कि चुनाव तिथि की घोषणा होने े साथ ही चूंकि चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती है और इसे बाद कोई भी सरकार अपनी शासकीय उपलिब्धयों से संबद्ध कोई विज्ञापन जारी नहीं कर सकती, किसी नई योजना की घोषणा नहीं की जा सकती, किसी नई योजना का उद्घाटन नहीं किया जा सकता, किसी अधिकारी का स्थानांतरण चुनाव आचार संहिता लागू होने के पश्चात सामान्य परिस्थितियों में नहीं किया जा सकता आदि।
इसी लिए सरकारें तथा इने रणनीतिकार चुनाव तिथि घोषित होने से पूर्व ही वह सब कुछ कर डालना चाहते हैं जोकि चुनाव तिथि घोषित होने के बाद नहीं कर सकते। ज़ाहिर है उत्तर प्रदेश में भी इन दिनों कुछ ऐसा ही नज़ारा देखा जा रहा है। आए दिन करोड़ों रुपये के विज्ञापन केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि कई अन्य राज्यों के विभिन्न समाचार पत्रों को भी आबंटित किए जा रहे हैं। संपूर्ण पृष्ठ के विज्ञापन कहीं भीतरी पृष्ठ पर तो कहीं अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशित किए जा रहे हैं। स्वर्गीय काशीराम जी की जन्मतिथि को बहाना बना कर राज्य सरकार ने एक विज्ञापन जारी किया है। इस विज्ञापन के माध्यम से मायावती एक तीर से कई शिकार खेल रही हैं। सबसे पहले तो वे स्वयं को काशीराम का उत्तराधिकारी साबित करना चाह रही हैं। दूसरे काशीराम जी की स्मृति में निर्मित शहर, कस्बे स्थल, पार्क तथा कई योजनाओं आदि के बहाने वह अपने विकास कार्यों का भी ढिंढोरा पीट रही हैं। तीसरी बात वह यह भी प्रमाणित करना चाह रही हैं कि बाबा साहब भीमराव अंबेदकर के दलित उत्थान के जिस मिशन को काशीराम जी ने आगे बढ़ाया था अब वही परचम मायावती स्वयं लेकर दलित समाज की मसीहाई कर रही हैं। यहां इसी सिलसिले से जुड़ी एक बात और भी गौरतलब है कि विज्ञापन आबंटन की कृपादृष्टि राज्य सरकार द्वारा उन्हीं समाचार पत्रों पर हो रही है जो या तो निष्पक्ष मीडिया घराने े रूप में अपनी पहचान रखते हैं या सरकारी ढोल पीटने में अपनी महारत रखते हैं। खुदा न ख्वा़स्ता यदि कोई समाचार पत्र किसी विपक्षी नेता से संबद्ध है या प्रतिदिन राज्य सरकार े विरोध का ही बिगुल बजाता रहता है। ऐसे में वह समाचार पत्र राज्य सरकार े गुणगान करने वाले इन भारी-भरकम व बहुमूल्य विज्ञापनों से महरूम है।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले राज्य सरकार के उपलिब्धपूर्ण विज्ञापनों के अतिरिक्त बसपा और भी कई ऐसे तिकड़मबाज़ीपूर्ण विज्ञापन जारी कर रही है जिसका श्रेय मायावती बेवजह लेना चाह रही हैं। उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों रेलमंत्री ममता बैनर्जी ने उत्तर प्रदेश के लिए भी रेलवे से जुड़ी कई योजनाओं की घोषणा की। वास्तव में रेलवे संबंधी किसी भी योजना की घोषणा का श्रेय तो केद्रीय रेलमंत्री को ही जाता है और यदि यह मान भी लिया जाए कि बीएसपी के सांसदों के प्रयासों से ही प्रदेश में रेलवे की कोई नई योजना आई है तो भी अधिक से अधिक इसका श्रेय संयुक्त रूप से दोनों ही राजनैतिक दल या नेता ले सकते हैं। परंतु राज्य सरकार द्वारा जारी एक संपूर्ण पृष्ठ के विज्ञापन में मायावती का फोटो लगाकर नीले रंग के पूरे पृष्ठ के विज्ञापन को इस प्रकार प्रकाशित किया गया गोया मायावती स्वयं रेल मंत्री हों तथा लोकहित के लिए स्वयं उन्होंने ही यह योजनाएं प्रदेश के लिए जारी की हों। पूरे विज्ञापन में कहीं भी न तो संप्रग सरकार को धन्यवाद दिया गया था न ही ममता बैनर्जी या उनकी तृणमूल कांग्रेस को।
बहरहाल नई-नई योजनाओं की घोषणा करने तथा उन्हें प्रचारित करने में जहां मायावती इस समय अपनी पूरी शक्ति झोंक रही हैं वहीं विपक्षी दलों में भी इस बात की होड़ लगी हुई है कि मायावती के विकल्प के रूप में प्रदेश की सत्ता का असली दावेदार कौन है? इसमें कोई दो राय नहीं कि मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी ही प्रदेश में कभी पहले स्थान पर थी जो मायावती के सत्ता में आने के बाद मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में चली गई थी। परंतु गत संसदीय चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी द्वारा राज्य में किए गए तूफानी दौरों के परिणामस्वरूप अप्रत्याशित ढंग से 22 लोकसभा सीटें जीतकर समाजवादी पार्टी की राज्य में नंबर दो होने की दावेदारी को सीधी चुनौती दे डाली। समाजवादी पार्टी के लिए सबसे शर्मनाक व चिंता जनक स्थिति उस समय उत्पन्न हुई जबकि गत वर्ष िफरोज़ाबाद लोकसभा सीट से मुलायम सिंह यादव की बहू तथा अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव कांग्रेस प्रत्याशी तथा पूर्व समाजवादी पार्टी नेता राजबब्बर से बुरी तरह चुनाव हार गईं। इस चुनाव परिणाम ने तो समाजवादी पार्टी की चूलें ही हिलाकर रख दीं।
अब जैसे-जैसे विधानसभा चुनावों को समय करीब आता जा रहा है समाजवादी पार्टी पुनः स्वयं को इस स्थिति में लाने का प्रयास कर रही है कि सपा ही बसपा का विकल्प समझी जा से तथा अपने आपको नंबर दो की स्थिति में बऱरार रख से। पिछले दिनों समाजवादी पार्टी द्वारा राज्य में तीन दिवसीय आंदोलन छेड़ा गया। इसमें हज़ारों सपा कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए तथा कई स्थानों पर राज्य की पुलिस द्वारा इन प्रदर्शनकारियों े मनोबल को तोड़ने े लिए तथा इन्हें तितर-बितर करने े लिए खूब लाठियां भांजी गई तथा आक्रामक रुख अख्तियार किया गया। इन तीन दिवसीय प्रदर्शनों े माध्यम से सपा ने जहां प्रदेश की जनता को यह बताने की कोशिश की कि मायावती सरकार अराजकता का प्रतीक है वहीं प्रदर्शनकारियों पर हुए लाठीचार्ज े प्रति भी अपनी बेचारगी का इज़हार किया। दूसरी ओर मायावती ने भी पुनः प्रदर्शन करने पर ऐसी ही कार्रवाई किए जाने की भी चेतावनी दी है।
इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी भी जनता को इमोशनल ब्लैकमेल करने के तमाम तरीके अपना रही है। कभी वरूण गांधी की शादी अति धार्मिक तौर-तरीे से शंकराचार्य े आश्रम में करवा कर यह संदेश देने की कोशिश की जाती है कि फायर ब्रांड भाजपा सांसद वरूण गांधी पूर्णतया धार्मिक हैं तथा वैदिक रीति-रिवाजों को मानने वाले हैं। तो कभी वे अपने मतदाताओं को विवाह भोज देकर जनता के मध्य अपनी लोकपि्रयता अर्जित करना चाहते हैं। इसी प्रकार भाजपा उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में मौजूद अल्पसंख्यक मतदाताओं को भी अपनी ओर आकर्षित करना चाह रही है। भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी द्वारा बाबरी मिस्जद विध्वंस को लेकर दिए गए उनके पश्चात्ताप पूर्ण बयान को भी इसी नज़रिए से देखा जा सकता है। परंतु हकीकत तो यही है कि भाजपा अपने तमाम प्रयासों व रणनीतियों के बावजूद अभी भी इस स्थिति में नहीं है कि वह राज्य में नंबर दो होने की राजनैतिक हैसियत तक स्वयं को पहुंचा से। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में छिड़े इस सत्ता संघर्ष में चुनाव का समय आने से पूर्व जनता को अपनी ओर आकर्षित करने े लिए अभी और भी न जाने कितनी रणनीतियां अपनाई जाएंगी तथा नए राजनैतिक समीकरण भी बनेंगे।

 

 

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