प्रगतिशील पाप और पाखण्ड : शंकर शरण

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शंकर शरण

प्रगतिशील लेखक संघ की (प्र.ले.सं.) स्थापना के 75 वर्ष पूरे होने पर हुई एक गोष्ठी में मंच पर प्रेमचंद की बड़ी सी तस्वीर लगी थी। मानो प्रेमचंद ही उसके संस्थापक हों! जबकि वास्तविक संस्थापकों सज्जाद जहीर, मुल्कराज आदि की छवि गायब थी। सन् 1936 में प्र.ले.सं. के एक सम्मेलन की अध्यक्षता जरूर प्रेमचंद ने की थी, मगर वे न उसके संस्थापक थे, न सदस्य। वैसी अध्यक्षता तो नामवर सिंह दर्जनों किस्म की संस्थाओं की कर चुके हैं। एक बार जयप्रकाश नारायण भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) के समारोह में गए थे। गाँधीजी भी। तो इन्हें आर.एस.एस. से जोड़ दिया जाए?

प्र.ले.सं. शुरू से ही कम्युनिस्ट राजनीति का अंग रहा। उसके संस्थापक और नेतागण लेखकों, कलाकारों के बीच कम्युनिस्ट राजनीति के प्रसार का मुख्य काम करते थे। इस से प्रेमचंद का कभी कोई सरोकार न था। मगर झूठ-सच बोल कर एक बार प्रेमचंद को किसी तरह अपने मंच पर बिठाकर कम्युनिस्ट उनका और कई बड़े लेखकों, कवियों का नाम भुनाते रहे हैं।

प्रगतिशीलों के पाखंड का जायजा उनके लेखन से नहीं, उनकी राजनीति से मिल सकता है। वैसे भी उनका लेखन कहकर प्रस्तावों, भाषणों के सिवा कोई विशेष चीज नहीं है। वह भी प्रायः गुम कर दी गई है। क्योंकि पिछले पचहत्तर सालों में लिए गए उनके सभी प्रस्तावों, आवाहनों को सिलसिलेवार देखने का मौका मिल जाए तो आज हँसी आने लगेगी। उनमें ऐसी-ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें हैं। इसीलिए सारे प्रगतिशील अपने नए वक्तव्य छापते हैं, पुराना छिपाते चलते हैं। जैसे कोई चेन-स्मोकर एक सिगरेट से दूसरी सिगरेट जलाता हो। उसी तरह प्रगतिवादी / कम्युनिस्ट संगठन अपनी पिछली घोषणाएं, आवाहन, भविष्यवाणियाँ आदि प्रायः दफन करते चलते हैं। स्वयं जाँच लें – क्या कोई प्रगतिशील भी बता सकता है कि प्र.ले.सं. के दूसरे, तीसरे सम्मेलन कब हुए थे? हुए भी थे या नहीं? या पिछली बार प्र.ले.सं. का कोई औपचारिक प्रस्ताव कब पास हुआ था?

वस्तुतः प्र.ले.सं. के बनने और विघटित हो रहने के बीच की अवधि इतनी छोटी है, कि उसका इतिहास लिखने में प्रगतिवादी प्रोफेसर कर्ण सिंह चौहान को भी पसीने छूट गए! प्रेमचंद के बाद वे ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के लम्बे भाषणों से ही अपनी किताब के पन्ने भर सके। इसलिए प्रगतिशील लेखक संगठन और आंदोलन तो बस इतना ही है। यदि 1936 वाली प्रेमचंद की अध्यक्षता और वक्तव्य हटा दें, तो समस्या खड़ी हो जाएगी कि प्र.ले.सं. का साहित्यिक दस्तावेज कहकर क्या दिखाएं? प्रगतिशील लेखक संघ के होने और न होने में ऐतिहासिक भेद इतना कम है। चौहान साहब की किताब भी यही बताती है। हाँ, अपने को प्रगतिशील कहने वाले लेखक, कवि बहुतेरे हो गए। जैसे अपने को सेक्यूलर, लिबरल कहने वाले असंख्य बुद्धिजीवी हैं।

अब प्रगतिवादी विचारों की कुछ थाह लें। एक बड़े प्रगतिवादी हिंदी लेखक ने किसी संगोष्ठी में कहा कि ‘दुनिया में हर जगह सबसे बड़े राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट ही हुए हैं’। उन्होंने यह भी कहा कि ‘हर राजनीतिक प्रणाली तानाशाही होती है, अतः कम्युनिस्ट शासनों को अलग से तानाशाही कहना ठीक नहीं’। उनके अनुसार मार्क्सवाद का लक्ष्य वही था जो पहले भारतीय शास्त्रों में ‘सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः…’ के रूप में कहा गया। उन्होंने दस मिनट के अंदर ऐसी अनेकानेक बेजोड़ बातें कह डाली। इस एक ही उदाहरण से पता चल जाता है कि आखिर हिंदी वाले प्रगतिवादी कैसे बिना किसी शंका या लज्जा के मार्क्सवाद/ प्रगतिशीलता का बिल्ला आज भी लहराते हैं! क्योंकि उनकी मानसिकता अंधविश्वास और अज्ञान में डूबी है।

राष्ट्रवाद वाली घोषणा ही लें। मोटी सी बात है कि मार्क्सवाद में मूल विश्वास अंतर्राष्ट्रीयतावाद है। मार्क्स ने ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो’ का सांगठनिक कौल दिया था। तदनुरूप सभी कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपने को अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का अंग समझती थीं। उनके बीच राष्ट्रवाद सदैव एक दोष माना गया। इसीलिए शुरू से ही कम्युनिस्टों में राष्ट्रवादी कहलाना गाली जैसा रहा है। मार्क्स के शब्दों में, ‘मजदूरों का कोई देश नहीं होता’। जब देश ही नहीं, तो देशभक्ति कैसी? लेनिन ने भी ‘सेकेंड इंटरनेशनल’ को खारिज कर 1919 में ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ (कोमिंटर्न) इसीलिए बनाया था क्योंकि उनके विचार से यूरोप की कम्युनिस्ट पार्टियां ‘राष्ट्रवादी भटकाव’ की शिकार हो गई थीं।

भारतीय प्रगतिशीलों ने भी सदैव अपने राजनीतिक प्रचार की लाइन वही रखी जो सोवियत संघ या लाल चीन के लिए हितकारी होती। देश उन की गिनती में बहुत पीछे आता था। देश को ‘अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन’ के जुए में जोतने की ही कोशिश मुख्यतः की जाती थी। जो व्यवहार में स्तालिन या ब्रेझनेव, अथवा माओ या देंग की राजनीतिक जरूरतों की पूर्ति का प्रयास होता था। इसी को ‘अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन’ का काम समझा जाता था।

यह तो हुई प्रगतिशीलों की देश-भक्ति का सिद्धांत। अब व्यवहार भी देखें। इतना तो बहुत लोग जानते हैं कि भारतीय कम्युनिस्टों, प्रगतिशीलों ने सोवियत संघ को मदद पहुँचाने के लिए 1942 में अंग्रेजों से सहयोग किया। लेकिन यह कितने लोग जानते हैं कि मजहबी आधार पर भारत को टुकड़ों में तोड़ने का ‘मार्क्सवादी-स्तालिनवादी’ सिद्धांत सबसे पहले स्वयं प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद जहीर ने दिया था? यह बात खुद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने बताई है। (‘द ट्रिब्यून’, चंडीगढ़, 6 नवंबर 2000)

उससे पहले भी भारतीय कम्युनिस्ट कांग्रेस को कमजोर करने और उसका नेतृत्व हड़पने के उद्देश्य से ही काम करते रहे थे। अंग्रेजों से लड़ने का काम संक्षिप्त अवधि के लिए, वह भी अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की लाइन के अनुसार सोवियत निर्देश पर ही हुआ था। अंग्रेजी मासिक सेमिनार पत्रिका की संस्थापक तथा कम्युनिस्ट आंदोलन को सर्वोच्च स्तर पर लंबे समय तक निकट से देखने वाली राज थापर की आत्मकथा ‘आल दीज इयर्स’ (1991) तथा मोहित सेन की आत्मकथा ‘ए ट्रैवलर एंड द रोड – द जरनी ऑफ एन इंडियन कम्युनिस्ट’ (2003) से इस का पूरा अंदाजा लग जाता है। इन्हें पढ़कर कोई भी सोचने पर मजबूर होगा कि क्या कम्युनिस्टों ने देश हित में भी कोई काम किया है?

यूरोपीय देशों में सोवियत संघ के लिए जासूसी करने वाले अधिकांश लोग उन देशों के कम्युनिस्ट ही थे। यहाँ भी यही था। सोवियत गुप्तचर एजेंसी के.जी.बी. के उच्चाधिकारी रहे वसीली मित्रोखिन की बहुचर्चित पुस्तक ‘मित्रोखिन आर्काइव्स’, भाग दो (2005) में भारत संबंधी लज्जाजनक विवरण अधिकांशतः हमारे प्रगतिशीलों से ही संबंधित हैं। जब उन की लालसा देख कर एक के.जी.बी. अधिकारी अलेग कालूगिन की टिप्पणी थी, “ऐसा लगता है कि यह पूरा देश ही बिकने के लिए तैयार है।” ध्यान दें, हमारे नेहरूवादियों या कम्युनिस्टों ने मित्रोखिन विवरणों का खंडन नहीं किया। सब ने यही कहा कि ‘वह पुरानी बातें हैं जिसे याद करने से क्या लाभ!’ यानी बातें सच हैं! वे देश को बेचते रहे थे। कायदे से यह पुस्तक प्रगतिवादियों के मुँह पर करारे तमाचे जैसी थी। उससे यह भी पता चला कि सोवियत संघ या चीन का प्रचार करने में केवल प्रगतिवादी अंधविश्वास न था। उस में ‘जिसका खाएंगे, उसका गाएंगे’ वाला ठोस लेन-देन भी था।

मगर भारतीय मार्क्सवादियों का सबसे बड़ा पाप था – उत्साहपूर्वक भारत का विभाजन कराना। वह केवल सज्जाद जहीर नामक प्रगतिशील लेखक की निजी देन नहीं थी। सन् 1943 में ‘मुस्लिम आत्म-निर्णय का अधिकार’ कह कर भारत विभाजन का मौलिक सिद्धांत प्रगतिशीलों ने ही दिया था। उसके लिए गढ़ी गई विस्तृत ‘अधिकारी थीसिस’ राष्ट्रवाद का दस्तावेज नहीं, बल्कि भारत को तोड़ कर एक इस्लामी पाकिस्तान बनाने, अर्थात मजहबी विभाजन की प्रगतिशील लफ्फाजी थी! उस एक थीसिस ने भारतवर्ष को जितना तबाह किया, उस का कोई दूसरा उदाहरण नहीं।

पाकिस्तान की माँग जरूर इस्लामियों ने की थी। मगर वे लोग इस्लामी अहंकार से अधिक कोई तर्क नहीं जानते थे। रहमत अली, मुहम्मद इकबाल (जिन्हें पाकिस्तान का प्रणेता माना जाता है) आदि की रचनाओं, भाषणों में कहीं कोई सिद्धांत नहीं मिलता। सिवा इस जिद के कि इस्लाम ही एक-मात्र राहे-रस्त है, जिसे दुनिया के ऊपर साम्राज्य कायम करने का खुदाई हक है। अतः शासन तो मुसलमान ही करेंगे, अभी यदि पूरे हिंदुस्तान में नहीं तो फिलहाल जितना हिस्सा अलग करके कर सकते हैं। इसके अलावा पाकिस्तान बनाने का कोई तर्क इस्लामी नेताओं के पास नहीं था। वे खुद को उत्पीड़ित तो क्या – उल्टे मुगल उत्तराधिकारी के तौर पर सदियों से हिंदुस्तान का शासक समझते थे। उन का आक्रोश ही यही था कि जिन हिंदुओं को अंगूठे के नीचे दबाकर रखा, उनके साथ बराबरी कैसी! जिन्ना ने मुसलमानों के ‘मालिक कौम’ (Master race) होने के दावे से अपनी माँगें रखी थी। इसे याद रखें।

किंतु लोकतंत्र और आधुनिकता के दौर में ‘मालिक कौम’ वाले तर्क की बौद्धिक अपील नहीं हो सकती थी। यह हमारे प्रगतिशील मार्क्सवादी थे जिन्होंने ‘राष्ट्रीयताओं की मुक्ति’, ‘राष्ट्रीयताओं का आत्मनिर्णय’ के नाम पर मुस्लिम लीग को एक भारी-भरकम लगने वाला बौद्धिक आधार प्रदान किया। प्रगतिशील लेखक संघ के ‘बन्ने भाई’ सज्जाद जहीर के बाद हरकिशन सिंह सुरजीत ने सिखों के अलग राष्ट्र का सिद्धांत भी दिया। ‘तारा’ टीवी चैनल पर प्रसारित एक इंटरव्यू में सुरजीत ने इसकी स्वयं भी पुष्टि की थी। टीवी पत्रकार शमील द्वारा लिखित पुस्तक सियासत दा रुस्तमे हिंद में भी इसका उल्लेख है।

बंबई में मई 1943 को हुई अपनी पार्टी कांग्रेस में कम्युनिस्टों ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि (1) भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि राष्ट्रों का झुंड है, जिसमें से कई तो बहुत उत्पीड़ित हैं। (2) मुसलमान अभी उत्पीड़ित राष्ट्र नहीं, मगर भविष्य में हो सकते हैं। अतः पाकिस्तान की माँग एक उचित और लोकतांत्रिक माँग है। (3) मुस्लिम लीग का नेतृत्व ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का औजार’ और ‘सामंती-प्रतिक्रियावादी’ नहीं (जो कम्युनिस्ट अब तक कहते आए थे), बल्कि साम्राज्यवाद विरोधी औद्योगिक बुर्जुआ है। (4) मुस्लिम लीग प्रगतिशील है जो केवल मजहबी शब्दावली का सहारा लेती है किंतु वास्तव में मजहब-विरोधी है। इस के मुकाबले कांग्रेस नेतृत्व को ‘पतनशील’ और ‘साम्राज्यवाद से समझौता करने वाला’ बताया गया। पालतू अनुचरों की तरह प्रगतिशील लेखक संघ ने इसी सिद्धांत को तब तक दुहराया, जब तक देश का विभाजन हो नहीं गया!

इस विन्दु पर राज थापर ने उस दौर के कम्युनिस्ट बौद्धिकों से बहुतेरी बहस की थी। यह 1945-46 की बात है। इस पर बहस करते हुए राज का मन होता था कि सब चीजें उठा कर उन पर दे मारें! देखिए किस क्षोभ से उन्होंने लिखा है, “मेरे जबड़े दुःखने लगते थे जब मैं पंजाबी होने का अर्थ समझाती। हिंदू, सिख और मुस्लिमों की साझी भाषा और संस्कृति के बारे में बोलती। मैं आज तक नहीं समझ सकी कि पाकिस्तान के विचार के कम्युनिस्ट समर्थन के पीछे क्या था, किस निहित स्वार्थ ने उन्हें जकड़ लिया था कि उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं, अपनी ऊर्जा को उसके समर्थन में बर्बाद किया जो स्पष्टतः हमारे राजनीतिक जीवन की सबसे प्रतिक्रियावादी प्रवृत्ति थी। और उन सब लोगों में मोहन (कुमार मंगलम), जिसे मैं तब समझती थी कि उस ने मार्क्सवाद के सभी मूल लेखन को चाट लिया है, कैसे वह जिन्ना को वह ढेर सारे बौद्धिक तर्क और समर्थन मुहैया करा सकता था जिस की उसे सख्त जरूरत थी?”

जब देश का विभाजन तय हो गया, और पंजाब तथा दूसरी जगहों पर दंगे भड़क उठे थे, तब कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे एक दिन थापर दंपति (राज और रोमेश थापर) के घर आए। यह 1947 की बात है, जब थापर लंदन में रह रहे थे। राज ने उन से अपना दुःख व्यक्त किया कि हजारों-हजार लोगों का जीवन और संसार नष्ट हो रहा है, बदले व विकृति की आग में तबाह हो रहा है। तब डांगे ने कहाः “चिंता मत करो, राज। हमारे लोगों को खून का स्वाद लेने दो, उन्हें सीखने दो कि खून कैसे बहाया जाता है। इस से क्रांति नजदीक आएगी।” राज आगे लिखती हैं, “मैं तब काँप उठी थी, किंतु आज उस के बारे में सोचते हुए मैं और भी काँप जाती हूँ। कितनी भी बहस के बाद भी उसका (डाँगे का) विश्वास नहीं डिगा था। मैं तब नहीं समझ पाई थी कि साधन और साध्य कितनी नजदीकी से जुड़े होते हैं।“

इस में संदेह नहीं कि भारतीय कम्युनिस्टों द्वारा पाकिस्तान की माँग के ‘सैद्धांतीकरण’ के बाद ही स्थिति गंभीर हुई। लंबे समय तक मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की माँग को बड़े हल्के से लिया जाता था। बहुतेरे मुस्लिम नेता भी इसे केवल कांग्रेस पर दबाव का हथियार मानकर ही चल रहे थे। यह हमारे प्रगतिशील-सेक्यूलर-परमज्ञानी मार्क्सवादी थे जिन्होंने अपने हिंदू-विरोध की परिणति करते हुए पाकिस्तान के लिए एक बौद्धिक आधार गढ़ा। कितनी बड़ी विडंबना है कि जिन मार्क्सवादियों ने इतनी बुद्धि लगाकर भारत का मजहबी आधार पर विभाजन कराया, वे पिछले कई दशकों से ‘धर्म-निरपेक्ष’ बने हुए हैं! जबकि उनकी इस्लाम-परस्ती जस की तस है। इस घातक, पाखंडी, रिकॉर्ड के बावजूद उन्हें सम्माननीय समझा जाता है!

वस्तुतः जनवरी 1946 में भारतीय कम्युनिस्टों ने अंग्रेजों से भारत के 2 नहीं, बल्कि 17 संप्रभु देशों में विभाजन की माँग की थी!! क्योंकि उस समय के प्रगतिशील विश्लेषण में भारत सत्रह राष्ट्रीयताओं का बेमेल झुंड करार पाया गया था। इस प्रकार, प्रसिद्ध लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास के शब्दों में, “भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत की हत्या कर दी। उस ने मुस्लिम लीग की ऊल-जुलूल और देश-विरोधी माँग को वैचारिक आधार प्रदान कर दिया।”

ऐसा नहीं कि बाद में मार्क्सवादियों ने अपनी पूरी भूल मानी हो। सन् 1987 तक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद लिखते रहे कि “भारत एक बहुराष्ट्रीय देश बना हुआ है”। यानी, इसके कई राष्ट्रों में टूटने, और मार्क्सवादी विद्वता की पुष्टि की संभावना बनी हुई है!! जाने-माने प्रगतिशील अर्थशास्त्री और पूर्व मंत्री अशोक मित्रा कश्मीर को स्वतंत्र करने की वकालत अभी भी कर रहे हैं। उन का लेखन दिखाता है मानो वे असम, नागालैंड, तमिलनाडु जैसे कई अंगों के टूट कर अलग होने की राह ताक रहे हैं। (द टेलीग्राफ, कोलकाता, 7 जुलाई 1999)

भारतीय प्रगतिशीलों के लिए 1942 और 1943-47 कोई पहला या अंतिम देश-द्रोही कारनामा नहीं था। उस से पहले और बाद भी उनकी नीतियाँ कोमिंटर्न या स्तालिन या सोवियत या चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के कहने से तय होती थी। गाँधीजी या कांग्रेस का ‘चरित्र’ हमारे कम्युनिस्ट अपनी अक्ल से नहीं, रूसी या ब्रिटिश कामरेडों के कथन से तय करते रहे।

उनका राष्ट्र-विरोधी चरित्र 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण के समय भी दिखा। यद्यपि कम्युनिस्टों में इस पर मतभेद था। पार्टी टूट भी गई। लेकिन टूटकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बनाने वालों ने चीन को नहीं बल्कि ‘नेहरू की सरकार’ को हमलावर कहा था। उससे पहले भी भारत के कुछ सीमावर्ती क्षेत्रों को चीन का बताते हुए कम्युनिस्टों ने प्रचार भी किया था। अगस्त 1960 के एक अंक में ‘ब्लिट्ज’ साप्ताहिक, जो कम्युनिस्ट समर्थक अखबार ही था, ने यह रिपोर्ट छापी थीः “ऊपरी गढ़वाल में दो गाँव हैं, चान्यी और थान्यी। कम्युनिस्ट पूरे इलाके में जनता को यह बताते घूमे कि यह क्षेत्र चीन का है क्योंकि गाँवों के नाम चीनी लगते हैं। उत्तर प्रदेश के अन्य पर्वतीय जिलों में स्थानीय कम्युनिस्ट भारत सरकार पर चीनी हमले का हौवा खड़ा करने का आरोप भी लगा रहे हैं ताकि अन्य जरूरी समस्याओं, जैसे बेरोजगारी और बढ़ती कीमतें आदि से जनता का ध्यान हटाया जा सके।” (लोक सभा में 31 अगस्त 1960 को हुई चर्चा में उद्धृत।)

जब चीन ने प्रत्यक्ष आक्रमण कर दिया तब कई मार्क्सवादियों का तर्क था कि एक कम्युनिस्ट देश तो आक्रमणकारी हो ही नहीं सकता। जरूर बुर्जुआ नेहरू ने कुछ बदमाशी की होगी। 1962 के बारे में आज भी मार्क्सवादी नेता चुप्पी साध लेते हैं। उनमें चीन-भक्ति आज भी है। जब भी भारतीय सीमाओं में चीनी घुसपैठ की खबर आती है भारतीय मार्क्सवादी मौन रहते हैं। वे कारगिल जैसे संकट में काम आनेवाले इजराइल जैसे मित्र-देश की उग्र निंदा करते हैं। महज इस्लाम-परस्ती में। किंतु भारत पर प्रत्यक्ष और परोक्ष आक्रमण करने, करवाने वाले चीन की आलोचना वे कभी नहीं करते।

कितनी विचित्र बात है कि ऐसे अंध-विश्वासियों, और देश-हित के प्रति आपराधिक उदासीनता बरतने वालों को यहाँ विशिष्ट बुद्धिजीवियों के रूप में प्रतिष्ठा मिलती रही है! वे आज भी, हर विंदु पर, देश की कीमत पर भी चीन के खुले पक्षधर हैं। पीपुल्स डेमोक्रेसी, फ्रंटलाइन या जनवादी, प्रगतिवादी मंचों की पत्र-पत्रिकाओं पर कुछ दिन लगातार नजर रखें। फिर इस विषय पर किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं रहेगी।

सबसे दिलचस्प बात यह कि ऐसी प्रगतिशील पत्रिकाएं जिन विन्दुओं पर भारत सरकार या यहाँ किन्हीं राज्य सरकारों की कटुतम आलोचना करती है, उन्हीं पर चीन सरकार के उससे भी कड़े रुख का कभी जिक्र तक नहीं करती! उल्टे उससे संबंधित बड़े-बड़े समाचार छिपा लिए जाते हैं। जैसे – चीन में वेटिकन से संबंध रखने के आरोप में पादरियों की नियमित गिरफ्तारी, अवैध चर्चों को ढहा दिया जाना, विदेशी मिशनरियों पर कड़ा प्रतिबंध, केवल देशभक्त चर्च को अनुमति, पोप की कटु आलोचना, आदि खबरें भी प्रगतिवादी पत्र-पत्रिकाओं में कभी नहीं आती। जबकि इसी विषय पर तमिलनाडु, राजस्थान या उड़ीसा सरकार के साधारण कानून बनाने मात्र पर सभी प्रगतिवादी आग-बबूला हो उठते हैं! ‘फासिज्म’ ‘फासिज्म’ रटते उनका गला खराब हो जाता है। इसे देश-द्रोह कहें या प्रगतिवाद की लाइलाज बीमारी?

जब निर्वासित चीनी लेखक गाओं जिंग्जियान को नोबल पुरस्कार मिला तो यहाँ लगभग सभी प्रगतिशील पत्र-पत्रिकाओं ने क्रोध प्रकट किया कि इससे बीजिंग को परेशान किया गया! फिर, उदारीकरण, बाजारीकरण, विदेशी निवेश, ईराक युद्ध, इस्लामी आतंकवाद जैसे कई मामलों में चीन सरकार के कदम भारत सरकार के उठाए कदमों से कई गुना स्पष्ट और कठोर हैं। हाल में, बीजिंग ओलंपिक के ठीक पहले चीनी अधिकारियों ने सिंक्यांग में एक मस्जिद ढहा दी। केवल इसलिए क्योंकि उस पर ओलंपिक प्रचार का एक बोर्ड नहीं लगाने दिया जा रहा था (देखें – https://www.reuters.com/article/2008/06/23/us-olympics-mosque-idUSPEK18996820080623)। ऐसे कर्मों के बावजूद हमारे प्रगतिशील हर हाल में चीन के लिए बिछे रहते हैं। जबकि भारत के लिए गहरी घृणा प्रकट करने का मानो मौका ढूँढते रहते हैं। यह है उनकी ‘देश-भक्ति’!

वस्तुतः कम्युनिस्टों को देश से कभी मतलब न था। उन्हें हर हाल में केवल विश्व साम्यवादी सत्ता के लिए जोड़-तोड़-षड्यंत्र करना था। इसीलिए वे देश की चिंता से कभी एकाकार नहीं हुए। अंतर्राष्ट्रीयतावादी सनक में ही उनका ‘मुख्य शत्रु’ संयुक्त राज्य अमेरिका और ‘एकमात्र पितृभूमि’ सोवियत संघ या लाल चीन रहा। जब बार-बार अनुभव से जनता ने यह समझ लिया, तब से लोकतांत्रिक देशों में कम्युनिस्टों की स्थिति एक सीमित संप्रदाय की हो गई। जिस पर देश-हित के लिए कभी भरोसा नहीं किया जा सकता।

समझ के स्तर पर भी अधिकांश प्रगतिशील दशकों पहले के अंधविश्वास में जी रहे हैं। हर विषय को गड्ड-मड्ड करने, गाली-गलौज और निरर्थक चीख-पुकार के अलावा वे कुछ नहीं करते। इसीलिए, सभी तथ्यों, अनुभवों से अनजान हिंदी का प्रगतिशील लेखक आज भी कम्युनिस्टों को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी कह देता है! उसके लिए ‘सबका कल्याण’ ही मार्क्सवाद है। उसने ‘निजी संपत्ति का खात्मा’, ‘पूँजीपति वर्ग का विनाश’, ‘वर्ग-युद्ध’, ‘क्रांतिकारी हिंसा’ आदि संकल्पनाओं के बारे में कभी सुना ही नहीं। कितनी हैरत की बात कि जो सिद्धांत डंके की चोट पर मानवता के एक हिस्से (‘बुर्जुआ वर्ग’ जिसका व्यवहारिक मार्क्सवादी-लेनिनवादी अर्थ भयंकर रूप से विस्तृत है) को खूँरेजी से मिटाने की बात करता है, उसे कोई ‘सबका कल्याण चाहने वाला’ बताए!

सन् 1989 में पूर्वी यूरोप में जनता ने तमाम कम्युनिस्ट तानाशाहियों को रातो-रात गद्दी से खींच उतारा। उन से लोगों को कितनी घृणा थी, इस के रोचक दृश्य सारी दुनिया ने टेलीविजन पर देखे। मगर हिंदी प्रगतिवादी के लिए सभी शासन तानाशाही हैं! उस के लिए सभा-संगठन की आजादी, मुक्त प्रेस, स्वतंत्र न्यायालय, वयस्क मताधिकार आदि के होने या न होने में कोई अंतर ही नहीं पड़ता! हिंदी वाले प्रगतिवादी ऐसे भोलेनाथ हैं। वे कुछ नहीं जानते, इसलिए सब कुछ जानते हैं।

इसी रूप में हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में प्रगतिवादी मंडली हर कहीं, हर विषय पर अनर्गल, किंतु साधिकार प्रवचन देती रहती है। उसे किसी चीज को ठीक से जानने की जरूरत नहीं। बस हर बात पर वामपंथी नेताओं के फतवे सुन कर संतुष्ट। कुछ न जानकर भी सर्व-ज्ञानी होने का अंदाज – ऐसा विचित्र दृश्य हिंदी प्रगतिशील लेखकों के सिवा अन्यत्र दुर्लभ है।

निस्संदेह, ऐसे प्रगतिशील लेखक, कवि भी हुए जिन्होंने अपनी सदिच्छाओं को मार्क्सवाद पर आरोपित किया। वे स्वयं भले, सादगी पसन्द, किन्तु फिर भी अंधविश्वासी थे और अनजाने झूठी बातों व घातक राजनीति का प्रचार करते रहे। अपने से ‘ऊपर’ किन्हीं प्रगतिवादी, मार्क्सवादी नेताओं पर भरोसा कर। लेकिन, जैसा निर्मल वर्मा ने कहा है, जिन लोगों ने भी मार्क्स, लेनिन आदि के लेखन तथा कम्युनिस्ट देशों के यथार्थ को सचमुच पढ़ने-समझने का कष्ट किया, वे मार्क्सवाद और प्रगतिवाद से निश्चित रूप से दूर होते गए। हिंदी बौद्धिकता में आज भी प्रगतिवाद की प्रतिष्ठा का रहस्य निर्मल जी की इसी टिप्पणी में छिपा हुआ है।

प्रगतिवादियों की बौद्धिक दयनीयता की परीक्षा कोई स्वयं कर सकता है। उनके पास प्रायः तथ्य के नाम पर अंधविश्वास मिलता है। इसीलिए उनकी शब्दावली और तर्क भंडार अत्यंत सीमित है। वाजपेई सरकार ‘फासिस्ट’ थी। बस। मनमोहन सरकार ‘अमेरिकी इशारे’ पर काम करती है। सारा विश्लेषण हो गया! किसी नापसंद सरकार का कोई अच्छा काम ‘जनता का ध्यान बँटाने’ के लिए है। हर केंद्रीय बजट से ‘जनता की बदहाली’ बढ़ेगी। प्रगतिवादियों का आलोचक वाला हर व्यक्ति अपनी हैसियत के अनुसार साम्राज्यवादी, पूँजीवादी या हिंदूवादी ‘एजेंट’ है। लेखक का नाम देखते ही रचना ‘जनविरोधी’ या ‘सांप्रदायिक’ करार दे दी जाती है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति की हर चर्चा ‘भगवाकरण’ का प्रयास है, आदि। इन सीमित, बने-बनाए निष्कर्षों के अंतहीन दुहराव के सिवा प्रगतिशील बौद्धिकता का कोई और नमूना नहीं मिलेगा। रचनात्मक लेखन में जिन प्रगतिशील लेखक, कवियों की रचनाएं प्रतिष्ठित भी हुईं, वह उनकी अपनी प्रतिभा थी। प्रगतिवादी निष्ठा ने उनकी प्रतिभा को हानि ही पहुँचाई। अन्यथा मुक्तिबोध या नागार्जुन और अच्छे रचनाकार हुए होते।

जहाँ तक प्रगतिवादी विश्लेषणों की बात है तो सात-आठ दशक के प्रगतिवाद के बाद भी एक भी पुस्तक नहीं दिखाई जा सकतीं, जो सत्य की कसौटी पर टिक सकी हो। न सोवियत, न चीनी, न भारतीय। सब के सब ‘वैज्ञानिक विश्लेषण’ कूड़ेदान में फेंके जा सुके हैं। रोमिला थापर, बिपन चंद्र, रामविलास शर्मा जैसे बड़े मार्क्सवादी भी इसके अपवाद नहीं। इनके कथनों को एक दूसरे से अलग करना; यहाँ तक कि स्वयं उनके अपने ही पिछले लेखन, भाषण से भिन्न कर पाना निहायत मुश्किल काम है। सदैव एक सी बातें, अंधविश्वास, तर्क, कुतर्क, फतवे, लांछन, खोखली भविष्यवाणियाँ और इतिश्री। यह सीमित शब्दावली और निराधार व्यापक प्रस्थापनाएं देने की आदत केवल अंधविश्वास और अज्ञान का फल हैं। इसीलिए सारे मार्क्सवादी ‘विश्लेषण’ कूड़े में चले गए। हमारे प्रगतिवादियों के हाथ में आज दिखाने के लिए कुछ नहीं है। छिपाने के लिए असंख्य पाप हैं। चाहे इस देश की उदार हिन्दू जनता उनसे रूसियों, जर्मनों की तरह कठोरता से हिसाब नहीं लेती।

विश्व-प्रसिद्ध लेखक हावर्ड फास्ट ने सटीक कहा था, “यदि हम समाजवाद के देवत्व को थोड़ा भी समझना और इस की व्याख्या करना चाहते हैं, तो निश्चय ही शुरुआत यह समझने से करनी पड़ेगी कि यहाँ हम किसी समाज विज्ञान की, या वैज्ञानिक विचार और गतिविधि की चर्चा नहीं कर रहे हैं। बल्कि यहाँ हमारा सामना नंगे आतंक, अविश्वसनीय क्रूरता और भयानक अज्ञान से है।” (द नेकेड गॉडः द राइटर एंड द कम्युनिस्ट पार्टी)। फास्ट ने अपने देश संयुक्त राज्य अमेरिका और दुनिया भर के प्रगतिशील लेखकों और कम्युनिस्ट आंदोलन को बड़े निकट से लंबे समय तक देखा था। ऐसे लेखक और अवलोकनकर्ता की बात जरा ध्यान से गुननी चाहिए।

[लेखक की पुस्तक ‘बुद्धिजीवियों की अफीम’ (वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर) के एक अंश पर आधारित.]

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  1. आप शायद कम्यूनिस्टों को अच्छी तरह नही जानते मैं भले कम्युनिस्ट नही हूं लेकिन उन्हें अच्छी तरह जानता हूं अगर वे नही होते तो साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद इतनी जल्द और शायद कभी खत्म नही होने वाला था यहाँ तक कि दूसरा महायुध्द भी उनकी वजह से ही समाप्त हुआ और अब भी तीसरे की संभावना भी उनकी वजह से टल जाती है यह सब रूस में हुई करा्न्ति का ही परिणाम है

  2. प्रगतिशील लेखक संघ से सम्बंधित यह लेख मात्र जन्म के अंधों का हाथी है| मेरा शंकर शरण जी से अनुरोध है कि अपने कुशल शोध कार्य द्वारा तथाकथित भारत स्वतंत्रता के पूर्व आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के अतिरिक्त अन्य शेष अंगों, किसान सभा व कांग्रेस सोशियलिस्ट पार्टी का वृतांत कर समय के अंधों को पूर्ण हाथी से अवगत करवाएं|

    • मैंने मुल्कराज को थोडा सा पढ़ा है .खुशवंत सिंह से भी घटिया लेखक है .

  3. प्रगतिशील लेखक संघ की विधिवत स्थापना यदि १९३६ मेंहुई है तो मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ,पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मार्क्स वाद का प्रभाव हिंदी साहित्य पर बहुत ज्यादा रहा है और आज भी है.किसी रचना की गुणवता को किसी पथ या वाद विशेष से जोड़ना ऐसे भी लेखकीय अधिकारों पर ही नहीं ,बल्कि उसकी साधना पर भी आघात है एक अच्छा लेखक,कवि या अन्य कोई कलाकार ,केवल कलाकार होता है,उसे किसी भी वाद या पंथ से नहीं बांधा जा सकता.यशपाल या राहुल संस्किरितियायन की रचनाओं को केवल इसी लिए कम नहीं आंका जा सकता कि वे साम्यवाद या मार्क्सवाद से पूर्ण प्रभावित थे.ऐसे भारत में बहुत से कवि या लेखक हुयें है जिनकी अपनी दुनिया थी.जयशंकर प्रसाद की गिनती भी उन्हीं रचनाकारों में की जा सकती है,पर जब उन्होंने” विराम चिह्न” नामक कहानी लिखी थी तो वाम पंथ से अधिक दूर नहीं थे.इसी तरह के अनेक उदाहरण हैं.अतः आप किसी को हिंदी साहित्य से इसीलिये अलग नहीं कर सकते ,चूंकि रचनाएं साम्यवाद या मार्क्सवाद की ओर झुंकी हुई है.मैंने अपनी टिप्पणी में जेपी के आन्दोलन का भी जिक्र किया था.उसपर कोई प्रतिक्रिया न देख कर मुझे थोड़ी हैरानी हुई .
    ऐसे मुझे शायद अन्वेषण करना पड़े कि उस समय के प्रगतिशील लेखक इस तरह की किस गोष्ठी के साथ थे.कहीं ऐसा तो नहींहै कि उस समय की अनौपाचारिक गोष्ठी को ही १९३६ में विधिवत प्रगति शील लेखक संघ या कोई अन्य नाम दिया गया हो.
    ऐसे भी प्रेमचंद का सम्पूर्ण जीवन ऐसे तूफानों के बीच गुजरा है कि उनको किसी भी गोष्ठी या संश्था के साथ जुड़ने का अवसर था या नहीं प्रमाणिक रूप से यह भी नहीं कहा जा सकता.

  4. आर. सिंह जी। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना १९३६ में हुई, और प्रेमचंद का निधन भी १९३६ में हुआ। अब हिसाब करें कि प्रेमचंद कितने उसके ‘सक्रिय सदस्य’ थे! अन्य जिन लेखकों का नाम आपने गिनाया है उनमें कई मार्क्सवाद-समाजवाद से प्रभावित थे, जो प्रगतिशील लेखक संघ का सदस्य या कार्यकर्ता-नेता होने से बिलकुल जुदा बात है। केवल पक्के साम्यवादी ही प्रगतिवाद से ज्यादा समय तक जुड़े रहे, अन्य सभी अच्छे हिन्दी लेखक-कवियों ने जल्द ही पहचान लिया कि संगठित प्रगतिवाद कम्युनिस्ट राजनीति का मुखौटा है। जिसे निराला, पंत, प्रसाद से लेकर अज्ञेय, निर्मल वर्मा तक उन सभी रचनाकारों ने ठुकराया जो साहित्य को राजनीति का पिछलग्गू नहीं मानते थे।

  5. शंकर शरण जी आप एक तरफतो दूसरों के पूर्वाग्रह की निंदा करते हुए नहीं थकते ,वही आपका प्रत्येक लेखन पूर्वाग्रह से ग्रसित रहता है.इस लेख के सम्बन्ध मैं चर्चाआपके इस उदाहरण से आरम्भ करता हूँ. आपने लिखा है कि “एक बार जयप्रकाश नारायण भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) के समारोह में गए थे” तो आपकी जानकारी के लिए मैं बता दूं कि जय प्रकाश जी के सम्पूर्ण क्रांति का भार जिन कन्धों पर था उसमे सबसे शक्तिशाली कंधा आर.एस.एस. कथा.जेपी ने उस दौरान एक नहीं अनेकों बार आर.एस.एस को संबोधित किया था.आर एस एस की उस आन्दोलन में क्या भूमिका थी यह आपको यदि नहीं ज्ञात है तो उसपर शोध कीजिये
    अब आते हैं ,प्रगति शील लेखक संघ और उसके साम्यवाद के साथ सम्बन्ध के विषय पर .प्रेमचंद अपने जीवन काल में इसके एक सक्रिय सदस्य रहे थे और सच पूछिए तो वे साम्यवादी विचारधारा से भी प्रभावित थे. उन्नीस सौ बीस से उन्नीस सौ पैंतालिस के बीच बुद्धिजीवियों पर,ख़ास करके हिंदी उपन्यास कारों ,कहानीकारों और कवियों पर एक तरह से रूसी साम्यवाद का जादू चढा हुआ था.कविता का पूर्ण प्रगति वाद साम्यवाद से प्रभावित है.सुमित्रानंद पन्त सरीखे कवि भी जो छायावाद के चार स्तंभों में से एक थे जब प्रगति वाद की और मुड़े तो उनकी कविताओं में साम्यवाद की स्पष्ट झलक दीखने लगी.आगे चाहे कोई लेखक के रूप में हों या कवि के रूप में ,वे सब साम्यवाद से पूर्ण प्रभावित थे.यशपाल और राहुल संस्किरीत्यायन जैसे परसिद्ध हिंदी लेखक तो पूर्ण साम्यवादी थे.दिनकर जैसे राष्ट्रवादी कवियों की कविताओं में भीसाम्यवाद की झलक है.इनमे से अधिकाश लोग प्रगति शील लेखक संघ से कहीं न कही कभी न कभी अवश्य जुड़े रहे हैं.अगर मार्क्सवाद या साम्यवाद को हिंदी लेखन से पूर्णतः अलग कर दिया जाये तो कुछ वर्षों की रचनाओं में तो शायद शुन्य होने की नौबत आ जाये.ऐसे मैं अपने को साम्यवाद या मार्क्स वाद का एक बहुत बड़ा आलोचक मानता हूँ,पर इस सत्य को मै झुठला नहीं सकता.पैंतालीस के बाद भी हिंदी लेखन पर मार्क्सवाद का प्रभाव रहा है और आज भी है.जब भीकिसी रचना में समाज के पिछड़े हुए लोग अन्याय के विरुद्ध शस्त्र उठाते हैं तो उनको मार्क्सवाद से अलग नही किया जा सकता.

  6. प्रगतिशील लेखकों ने और कुछ किया या न किया हो, एक काम तो उन्होंने कर हि दिया है, वह है हिन्दी कथा, कहानी और उपन्यास और कविता को जनमानस से काट देना। इतना तो मानना ही पड़ेगा कि वे संगठित हैं और हिन्दी को क्षति पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। अकविता और अकहानी की इन्होंने ऐसी प्रथा का श्रीगणेश और पोषण किया कि हिन्दी भाषी जनता ने कहानी-कविता पढ़ना ही छोड़ दिया। दुर्भाग्य से देश में कांग्रेस का शासन लंबे समय से रहा है। इन परगतिशील लेखकों ने सत्ता की चाटुकारिता करके सभी साहित्यिक संस्थाओं पर कब्जा कर लिया। ये लोग सभी प्रतिष्ठित पुरस्कारों की बन्दरबांट भी बड़ी आसानी से करके घटिया लेखकों को भी रातोरात ख्याति दिला देते हैं। इनके आदर्श कवि हैं धूमिल जो लिखते हैं – एक गधा तीन टांग पर खड़ा हो मूत रहा था…………..। धूमिल को ये लोग जय शंकर प्रसाद की बराबरी में खड़ा करने की लगातार असफल कोशिश करते आ रहे हैं। इनका सहित्यिक व्यभिचार हिन्दी को अपूरणीय क्षति पहुंचा चुका है। इसका एक मुख्य कारण है – राष्ट्रवादी लेखकों का असंगठित होना।

    • बिपिन जी बात से १००% सहमत. राष्ट्रवादी लेखको को एक मंच पर लाकर ही हिन्दी, हिन्दू-हिन्दुस्तान के प्रति निष्ठावान साहित्यकारों को सही सम्मान मिल सकता है और प्रगतीशील धंधेबाजो से मुक्ति मिल सकती है.

  7. एक विचारोत्तेजक लेख. यह तथाकथित प्रगतीशील लेखन (कम्युनिस्टी लेखन) का CT Scan है…बिलकुल तार्किक और अधिकृत. लेखक की पैनी और कुचल लेखनी को नमन.
    एक और आग्रह है कि प्रगतीशीलता के धंधेबाजो के प्रतिरोध में रास्त्रवादी लेखको/ बुद्धिजीवियों के मंच को मजबूती से खडा करना जरूरी है. हम लोग लिखने में माहिर हैं लेकिन मजबूत संगठित नहीं हैं. वही ये कथित प्रगतीशील चार लेने लिखते हैं और जिंदगीभर राजनीतिक धंधेबाजी और अकादामीबाजी करते रहते हैं. नतीजन ये ही छाए रहते हैं..लोगो को आकर्षित करते हैं. और असली साहित्कार नेपथ्य में चला जाता है. हिन्दी साहित्य की अवदशा में प्रमुख हाथ इन कथित प्रगतीशीला/जनवादी लेखको का ही हैं.

  8. “कमनिष्ठों” कहिये, “कमीनिस्टों” कहिये या कुछ और कहिये… उधार की विदेशी मानसिकता और सिद्धांत लेकर जीने वाले “सो कॉल्ड बुद्धिजीवी”, अन्ततः इस्लाम अथवा कांग्रेस की गोद में जा बैठने को ही अभिशप्त हैं…

    बंगाल और केरल में हिन्दुओं की हालत देखकर महसूस होता है कि कांग्रेस और वामपंथ साथ मिलकर और आपस में विरोध करके भी हिन्दुओं की कितनी दुर्दशा कर सकते हैं…

  9. मार्क्‍सवादियों ने हिंदी साहित्‍य का बेड़ा-गर्क कर दिया है। आज जरूरत है कि हिंदी साहित्‍य को तुलसी, कबीर, कालीदास, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, दिनकर, विद्यानिवास मिश्र, विष्‍णुकांत शास्‍त्री जैसे साहित्‍यकारों के वैचारिक अधिष्‍ठान से जोड़ा जाए। विचारशील लेख के लिए शंकर शरण को बधाई।

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