विविधा

यु.एस.हिंदू संगठक डॉ.महेश मेहता का प्रवासी भारतीय सम्मान

डॉ. मधुसूदन

सूचना: यह आलेख *यु एस ए का हिन्दू संगठन शिल्पी* का दूसरा भाग माना जाएँ।
संघ की संस्कार सीप से भी कभी कभी ऐसा रत्‍न-मौक्तिक निकलता है। “याची देही याची डोळा”(इसी देह की इन्हीं आँखों से) मैंने जो एक ही व्यक्ति में, निकटता से देखा है;वही प्रामाणिकता से, लिखा है।–डॉ. मधुसूदन
(एक) प्रवेश:

डॉ. महेश मेहता इस जनवरी ९, २०१७ को बंगळुरू में प्रवासी भारतीय सम्मान से सम्मानित होंगे। वें भारत माँ के ऐसे सुपुत्र हैं, जिनके सम्पर्क में आना मेरा परम सौभाग्य रहा।
ऐसा व्यक्तित्व जिसका हमारे बीच बसना एक सकारात्मक ऊष्मा और ऊर्जा का अनुभव कराता है।
संगठन में, कठिनातिकठिन परिस्थितियाँ आयी, जिनसे यह भारतपुत्र जूझता गया; कभी हार नहीं मानी। इन्दिरा का आपात्काल; फलस्वरूप भारतीय ऍम्बसी द्वारा कार्यकर्ताओं के पास्पोर्ट जप्त होना; उसी आपात्काल में, ना. ग. गोरे, सुब्रह्मण्यम स्वामी, मकरन्द देसाई इत्यादि नेताओं का अमरिका भर प्रवास; ऐसे अनगिनत प्रसंगों और समस्याओं से, अमरिका का बृहद्‌ हिन्दू संगठन मार्ग निकालते निकालते आगे बढा है। और, आज इस व्यक्ति की प्रेरणा और कर्मठ योगदान से, अनेक भारत हितैषी संस्थाएँ खडी हैं।

यह सहिष्णु हिन्दुत्व का विस्तृत संगठन अनेक समस्याओं से जूझता, मार्ग निकालकर, आगे बढता रहा, उसके कर्णधार नेता का नाम है; डॉ. महेश मेहता।
आपकी अर्धांगिनी श्रीमती रागिणी जी का भी पूरा पूरा समर्पित योगदान इस सम्मान का बडा कारण (अंग) है। इस लिए इस सम्मान में मुझे आप दोनों का सम्मान प्रतीत होता है।
विगत चार दशकों में, अनगिनत, अघोषित और अनचाही कठिन समस्याएँ आती गयी; जिनका एक कुशल योद्धा की भाँति, चारों दिशाओं से आते प्रहारों का षटपदी के पैंतरे से प्रतिकार करने के लिए, जिस व्यक्ति ने अपना सर्वस्व दाँव पर लगाया; उस व्यक्ति का सम्मान मेरी दृष्टि में वर्षों पहले अपेक्षित था।
आज, शासन ने एक सर्वथायोग्य व्यक्ति को सम्मानित कर हम सभी कार्यकर्ताओं का भी सम्मान किया है। इस अवसर पर,मैं डॉ. महेश मेहता और श्रीमती रागिणी मेहता दोनों का एक प्रत्यक्षदर्षी भागी के नाते अभिनन्दन करता हूँ। साथ साथ इस सम्मान से जुडी कुछ व्यथा भी है; जिसे मैंने अंतिम परिच्छेद में दर्शाया है।

(दो) निरहंकारी सकारात्मक व्यवहार:

नवागंतुक को आकर्षित करता है, कार्यकर्ता का निरहंकारी, सकारात्मक, और पारिवारिक भावात्मक व्यवहार; जो संघ संस्कार की पहचान और देन है। {इस निखालिस पारिवारिक भाव का अनुभव ही मुझे तुरंत संघ स्वयंसेवक पहचानने में सहायक होता है।} परदेशों में, हमारी संगठन आधारित संस्थाए, संघ द्वारा  संस्कारित और समर्पित कार्यकर्ताओं के बल पर खडी हो पाई।

और इन कार्यकर्ताओं के  विशुद्ध व्यवहार से प्रभावित होकर, दूसरे भारत-हितैषी भी जुडते चले गए, साथ वे भी जुडे, जो अन्य संस्थाओं के छिछले पद-लोलुप व्यवहार से निराश हो चुके  थे।
अमरिका में आज ऐसे उत्तरदायित्व निर्वहन करने वाले निष्ठावान अग्रगण्य कार्यकर्ता हैं, जो, संघ में कभी गये नहीं थे; पर आज परिषद और अन्य भारत हितैषी संस्थाओं के उत्तरदायी पदों पर समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं।
संस्कार संघ का ही है; पर यहाँ फैला है; कुछ अलग रीति से।
बदला  हुए देश, काल, और परिस्थिति, देखकर विभिन्न संगठनों का कुछ स्वीकरण (Adopt), एवं अनुकूलन (Adapt) करते हुए विवेकपूर्ण संगठन का बहु-आयामी विस्तार हुआ है।
ऐसा, देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप बदलाव करनेवाला  सामूहिक नेतृत्व हमें आरंभ से ही मिल पाया; इसे अद्भुत मणिकांचन योग ही कहा जाएगा।
इस मणिकांचन योग में अनुभवी और समर्पित व्यक्तित्वका लाभ अमरिका के हिन्दु संगठनों को अनायास और अविरत प्राप्त होता रहा। ऐसे सामूहिक नेतृत्व में जिस व्यक्तिका प्रमुखता से, निर्विवाद नाम लिया जाएगा वो नाम है डॉ. महेश मेहता।

(तीन)सहिष्णु हिंदुत्व 
सहिष्णु हिंदुत्व, *कृण्वन्तो विश्वमार्यम्* एवं *सर्व-समन्वयवादी और सुसंवादी विश्वबंधुत्व* की विचारधारा से ओतप्रोत है। विचारधारा का वैशिष्ट्य तो था ही, पर उसको कार्यान्वित करने इस अमरिका में कुछ अनुकूलन, स्वीकरण एवं आधुनिकता के ढाँचे में प्रस्तुत करने की प्रतिभा आवश्यक थी। जिसे इस कर्मठ और कुशाग्र बुद्धि संघ स्वयंसेवक ने आकलन कर देश काल परिस्थिति के अनुरूप बदलाव सहित अपनाया; और प्रस्तुत किया।

एक भारत भक्त ग्रहस्थाश्रमी  का ऐसा योगदान निकटता से अनुभव करनेका सौभाग्य मुझे मिला है। यह  प्रस्तुति भी एक हिमशैल के(Tip of the Iceberg) शिखर का  दॄश्य-अंश ही है। और मेरी अपनी दृष्टि और जानकारी से सीमित है, पर जो मुझे मेरी निकट दृष्टि में दिखाई दिया, उसीकी  प्रस्तुति  है।

परिषद के युवा-शिविर, विश्व हिन्दू परिषद, हिन्दू परम्परा दिवस, विश्व विद्यालयों में   हिन्दू स्टुडंट्स कौन्सिल का प्रसार, एकल विद्यालय की सर्वतोमुखी प्रशंसा,  इत्यादि, इत्यादि (क्षमा करें: सभी के नाम भी मेरे लिए एक अनावश्यक बौद्धिक व्यायाम होगा।) ऐसी  अनेक उपलब्धियों के माध्यम और यशस्विता से से हिन्दुत्व अभिव्यक्त हो रहा है।

(चार) हमारा सांस्कृतिक समन्वयवाद (साम्राज्यवाद नहीं) 

हमारी अद्वितीय सांस्कृतिक विशेषता, वास्तविक पहचान, और पराविद्या की उपलब्धि है; हमारा सांस्कृतिक समन्वयवाद है; जो संसार में अद्वितीय है।
यह *सांस्कृतिक समन्वयवाद* हमारी विशेषता है। कुछ लेखक इसे *सांस्कृतिक साम्राज्यवाद* कहते हैं; जो गलत है; और गलत और भ्रामक संदेश भेजता है। सामान्य मनुष्य साम्राज्यवाद शब्द से ही भ्रान्त धारणा बना लेता है।भारत में भी यही भ्रान्ति उफान पर है।
इसे *सांस्कृतिक बंधुत्ववाद* कहा जा सकता है; पर ऐसा शब्द प्रयोग भी हमारे *समन्वयी सिद्धान्त* को प्रकट नहीं कर सकता।
वास्तव में हमारा समन्वय, दर्शन आधारित है। द्रष्टाओं ने इसे उच्चातिउच्च आध्यात्मिक (आत्मा से भी ऊपर पहुंच कर) ऊंचाईपर अनुभव किया था।

पर इसे साम्राज्यवाद कहना उसे संकुचित कर देता है।वह साम्राज्यवाद कदापि नहीं, निश्चित नहीं है। स्थूल रूप से हिन्दुत्व कहीं झगडों का कारण नहीं बना है। उलटे हिन्दू हर जगह भाईचारे से स्थानिक समस्याओं को सुलझाने में सहायक हुआ है।
इसी का प्रमाण है; आज अमरिका में मॅसॅच्युसेट्ट्स स्टेट के राज्यपाल प्रति-वर्ष हिन्दू परम्परा दिवस की घोषणा बडे आदर-गौरव से, वर्षों से करते आ रहे हैं। अन्य स्थानों, राज्यों या देशों का भी ऐसा ही  अनुभव है। ( विस्तार प्रस्तुत आलेख के लिए गौण विषय है।)
मुझे महेश जी के जो गुण अनुभव से, स्पष्ट दृष्टिगोचर हुए उस  विषय में संक्षेप में कहना चाहता  हूँ। महेश जी का अदम्य आत्मविश्वास, निडर नेतृत्व, निर्णय क्षमता, शत्रु की कूटनैतिक चाल का चतुर अनुमान, निर्णय की दृढता, और हार न स्वीकारने की वृत्ति, प्रभावी व्यक्ति को भी प्रभावित करने की क्षमता, और साथ, परिवार को काम में प्रवृत्त करने की क्षमता, देखी-परखी- और जानी है।

वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमर्हति ॥
यह आपकी  प्रिय सुभाषित पंक्तियाँ है।पहली पंक्ति ही अधिकतर उनसे सुनी हुयी है।
वे अपना विशेष अर्थ भी लगाते थे।
स्वयं के लिए कठोर पर अन्यों के लिए कुसुमवत मृदु होनेका आदर्श प्रस्तुत करते थे।
वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमर्हति ॥
महा पुरुषों के चित्त के विषय में कहा गया है।
वह वज्र से भी अधिक कठोर और फूल से भी अधिक कोमल होता है।
लोकोत्तर महापुरुषों के चित्त को जानने में कौन समर्थ है !

(पाँच) पारिवारिक भाव

कार्यकर्ता तन-मन-धन समर्पित होता है। संघ सिद्धान्त समझे या ना समझे ऊष्माभरा  पारिवारिक भाव, कार्यकर्ता को प्रेरित करता है। सर्वोच्च अधिकारी भी निम्न श्रेणी के कार्यकर्ता को आस्था से, सुनते हैं। और, उदार व्यवहार करते  हैं। यशका श्रेय देते हैं; और दोषों का संवेदना सहित अकेले में संकेत। सराहना सभी के सामने, दोष अकेले में। यह संघका पारिवारिक संस्कार है; जो, समरसता पैदा करता है। समरसता बिना, समता थोपी नहीं जा सकती। इसी संघ-समरसता की सराहना, ना. ग. गोरे जी ने उनके अपने समाजवादी कार्यकर्ताओं के सामने भी की थी। मुझे भी, स्व. गोरे जी का आतिथ्य करनेका सौभाग्य मिला था, जब आपात्काल के अंतराल में वे अमरिका आये थे। मैं उन्हें कुछ स्थानों पर सभाओं में भाषणों के लिए ले गया था। आते-जाते बातचीत होती थी, मेरा मराठी में वार्तालाप भी उन्हें  निकटता अनुभव कराता था।

आपको संघ में हर प्रकार के योगी मिल जाएंगे। सभी बुद्धिवादी नहीं होते, पर न्यूनाधिक मात्रा में सभी कर्मयोगी होते हैं। स्वभावतः कुछ भक्तियोगी, कुछ ज्ञानयोगी भी होते हैं। संघ आध्यात्मिक संस्था नहीं है, पर उसके अनेक कार्यकर्ता भी कम आध्यात्मिक नहीं है। कुछ साधु सन्तों से तो बिलकुल कम नहीं पर, कुछ विशेष ही आध्यात्मिक होते हैं ।

अनेक आध्यात्मिक साधु संतों की जितनी आव-भगत करनी पडती है; उतनी तो संघ के उच्चाधिकारी की भी नहीं करनी पडती। यही मेरे मन, उनकी ऊंचाई का निकष है।

न्यूनतम आवश्यकता ओं से जीवन व्यतीत करनेवाला ऐसा कार्यकर्ता सामूहिक नेतृत्व के साथ संवाद मिलाकर चलनेवाला कार्यकर्ता अमरिका को मिला; यह हिन्दुत्व का भी सौभाग्य मानता हूँ। और मुझे ये निकटता से देखने का योगायोग यह कोई कम भाग्य नहीं।

महेश जी वैज्ञानिक उपलब्धि भी है। वें मेंब्रैन सायन्स (Membrane  Science) के पी. एच. डी. हैं। चाहते तो अन्यों की भाँति कोट्याधिपति हो जाते। वैसे उनकी अनगिनत छोटी मोटी उपाधियाँ भी काफी हैं; जो अलग आलेख की क्षमता रखती है।

(छः)क्या यह सम्मान पर्याप्त है?
महेश जी मात्र कर्मठ कार्यकर्ता ही नहीं, पर सर्वथा कुशल बुद्धिमान नेता भी हैं।स्वयं के प्रति वज्र-कठोर, ध्येय के प्रति सुस्पष्ट, देश काल परिस्थिति के अनुरूप विवेक करनेवाला ज्ञानी, व्यवहार कुशल कार्यकर्ता हैं। मैं ने उन्हें हर परिस्थिति में परिस्थिति के अनुरूप विवेक का परिचायक पाया; कार्यकर्ताओं की प्रशिक्षा में निष्णात पाया; प्रसंगोचित निर्णय लेने में कुशल पाया; कूटनीति का भी अचूक ज्ञानी पाया।
क्षमा करें, वस्तुतः यह ऐसा भारतभक्त है, जिसके लिए यह प्रवासी भारतीय सम्मान मुझे अपर्याप्त लगता है। ऐसे सम्मान या प्रमाण पत्रों से वास्तविक जीवन के चार दशकों से अधिक की अविराम तपस्या की कर्मठता नापी नहीं जा सकती।
ज्ञान, भक्ति और कर्म का यह दीप-स्तंभ शालीनता का भी परिचायक है।

भविष्य का अनुमान करने की शक्ति, शीघ्र और सही निर्णय लेने की क्षमता और बडे बडे अभियानों को आयोजित कर, कार्यकर्ताओ को प्रेरित और प्रशिक्षित करने की क्षमता और लगन के साथ उस ध्येय की प्राप्ति में जुट जाने की कर्मठ सिद्धता; क्या क्या नहीं देखा?

ऐसा भक्ति, कर्म और ज्ञान का त्रिवेणीसंगम मैं ने अनेक प्रसंगों पर मेरी अपनी आँखों देखा है।

संघ की संस्कार सीप से भी कभी कभी ऐसा रत्‍न-मौक्तिक निकलता है। “याची देही याची डोळा”(इसी देह की इन्हीं आँखों से) मैंने जो एक ही व्यक्ति में, निकटता से देखा है;वही प्रामाणिकता से, लिखा जा रहा है।

स्वामी तिलक जी ने आँखें मूँद कुछ ध्यान करने के बाद उत्तर दिया था; कहा था; आप के इस देश में बसने-बसाने के पीछे ईश्वरी संकेत है। इसका कुछ आशय समझ में आता था, अब उस कथन का आशय कुछ अधिक समझ में आ रहा है।
बादका वैश्विक घटना क्रम और भारत में हो रहे शीघ्र और तीव्र बदलाव मुझे उस कथन की सच्चाई का सत्त्यापन प्रतीत होता है।
मैं भी सभी कार्यकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए यह आलेख आज प्रस्तुत कर रहा हूँ।
इस प्रवासी भारतीय के सम्मान में हम सभी कार्यकर्ताओ का सम्मान है।

भाव सभी के, शब्द मेरे।