प्रेमः एक अप्रतिम उपहार

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loveडा॰ शिवानी शर्मा
जीवन का पड़ाव कोई भी हो किन्तु प्रेम एक ऐसा विषय है जो न केवल रोचक है अपितु कहीं न कहीं हृदयस्पर्शी भी। ऐसा मर्म, ऐसा अनुभव जो नितान्त निजी व निगूढ़ होते हुए भी सभी मनुष्यों के संदर्भ में एक सा प्रतीत होता है। बिल्कुल रसानुभव जैसा जिसमें प्रत्येक सहृदय का आलम्बन अलग होते हुए भी एक जैसे भाव को ही जागृत करता है। लगभग सभी दार्शनिक एक मत से मनुष्य को ज्ञान कर्म व संवेगों के पंुज मानते हंै। इन संवलगों के उभरने पर हम-आप अपने अपने जीवन में इन संवेगों को किस संवेदना से सम्हालते है या कहंे कि इनसे संवाद स्थापित करते हंै, बस हमारा व्यक्तित्व भी इसी बात पर निर्भर करता है।
प्रेम शायद ऐसे दो व्यक्तियो के स©हार्द की अवस्था है जहाँ कुछ भी अनुचित प्रतीत नही होता । प्रतीत नही होता, यह अलग विषय है किन्तु औचित्य व अनौचित्य का संदर्भ सदा बना रहता है। प्रेम का एक ही रूप नहीं फिर भी मनुष्य जीवन भर उसी एक रूप को साकार करने में लगा रहता है। युग्म बन जाना प्रेम का चरम है या युग्म होते हुए भी युग्मता का विलोम हो जाना, कहना कठिन है। अनेक दृष्टियाँ हैं प्रेम को समझने की-परम्परागत दृष्टि तो ‘रति भाव’ से ‘श्रृंगार’ में परिणत हुआ मानती है। कुछ के अनुसार यह एक आवेश है जो समय एवं परिस्थितियों से उपजता है और विपरीत परिस्थितियों में भंगुर भी होता है। कभी-कभी अध्ूारेपन के लक्षणों से तो कभी सम्पूर्णता से परिचय करवाने वाला यह मनोभाव व्यक्ति को खण्ड-खण्ड भी करता है तो कभी इन्ही खण्डों से नव-व्यक्तित्व का निर्माण भी करता हौ। मनुष्य जीवन का एक मात्रा क्षेत्र जहाँ तर्क, युक्ति और बडे़-बडे़ सिद्धान्त सीधे-सीधे घुटने टेके हुए दीख पड़ते हंै, समझ ले कि वह क्षेत्र प्रेम का है। प्रेम को मात्र संवेग मान लेना इसे कुछ छोटा कर जानना होगा और इसे मीरा-कृष्ण से जोड़ देना बहुत उदात्त कर देना। संवेग होते हुए भी यह एक ऐसी संवेदना है जो दो व्यक्तियों मे भूगोल जन्य-अन्तराल को उसी तरह परास्त कर देती है जैसे योगियों का मनः पर्याय ज्ञान।
प्रथम चरण में उल्लास उत्साह व उत्सव का स्रोत होते हुए भी यह अंत तक ऐसा ही रहे इसको प्रमाणित करना कठिन है क्योंकि अंहकार अपना व्यक्तित्व रखता है और मन पर असर भी छोडता है। ‘हमसे आया न गया तुमसे बुलाया न गया’ या रहिमन धागा प्रेम का मत तोडो चटकाए, टूटे से फिर ना जुडे, जुडे गाँठ पड जाए जैसी अभिव्यक्तियाँ सब इसी बात का सूचक हंै। किन्तु गाँठें केवल बंधने के लिए ही तो नहीं होती इन्हें खोलने की प्रक्रिया प्रेम में प्रगाढ़ता, नवीनता व निष्ठा का संचार भी होता है। अंहकार का विघटन भी होता है। प्रेम में कुण्ठा नहीं हो सकती है। केवल परिपक्व होता हुआ ‘मंै’ ‘स्व-प्रसारित’ होता हूँ विकसित होता हूँ और जुडता चला जाता हँू। एक और दृष्टि-भेद से प्रेम में अधूरेपन को ही उसका सम्पूर्ण होना माना जाता है। प्रेम नहीं है पा-जाने में, है पा-जाने के अरमानों में इस दृष्टि का उदाहरण है।
भारतीय परम्परा के मूल्यों के प्रतीक स्वरूप दो ही छवियाँ उभरती है-या ‘राम’ वा ‘कृष्ण’। दोनों का लक्ष्य-‘धर्म स्थापना’। स्पष्ट है कि प्रेम एक सहयोगी भाव है। पुरूष व स्त्री की प्रेम-दृष्टि में कुछ स्वभाविक अन्तर हो सकता है। स्त्री को न शायद ‘राम’ की न ‘कृष्ण’ की तलाश है। दोनों के हाथों स्त्री की गति का इतिहास साक्षी है। पुरूष को ‘समर्पण’, तो स्त्री की ‘स्वामित्व-बोध’ चाहिए, ऐसा प्रसिद्ध दृष्टिकोण माना जा सकता है। किन्तु आज के सन्दर्भ में सोचे तो क्या आज स्त्री ने अपने लिए नए आयामों को चुनते हुए प्रेम की कोई नई परिभाषा तो नहीं रच डाली जहाँ समर्पण तो है किन्तु स्वामित्व नहीं। प्रश्न गलत या सही के निर्धारण से अधिक वस्तुओं को उनके स्वरूप में समझने से है, मात्र द्रष्टा होने भर से है, चेतना के क्रमागत उत्थान से है।
प्रायः शिव इस पूरे परिदृश्य में ‘राम’ व ‘कृष्ण’ से सबल दिखते हंै। एक योगी की तरह जिसका नारीत्व अभिन्न अंग है, जो उसके ‘स्व’ का ही विस्तार है। अधर््ानारीश्वर की संकल्पना हमारी रिक्त कल्पनाओं का पूरक तो बनती ही है साथ ही एक शुद्ध-चेतना व ऊर्जा का संचार भी करती है जिसमें प्रेम की अनिवर्चनीयता का आभास भी होता है। अपेक्षा मात्र इतनी है कि इस भाव से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा को हम अपने उत्कर्ष में प्रयुक्त कर सकें।

डा॰ शिवानी शर्मा
दर्शन विभाग
पंजाब यूनिवर्सिटी
चण्डीगढ़

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