मौजूदा चिकित्सा परिदृश्य और आम आदमी का स्वास्थ्य

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Doctorsमिलन सिन्हा

आम आदमी का स्वास्थ्य दिन –पर –दिन गंभीर चिंता का विषय बनता जा रहा है. पीने योग्य पानी का अभाव, प्रदूषित हवा और मिलावटी खाद्य पदार्थ ने आम आदमी के जीवन को छोटे- बड़े रोगों से भर दिया है. बच्चे, महिलायें तथा बुजुर्ग इनसे अपेक्षाकृत ज्यादा प्रभावित हैं. आधुनिक चिकित्सा पद्धति को आधार बना कर चलने वाले सरकारी अस्पतालों की हालत कमोबेश ख़राब है – डॉक्टर, दवाई, रख-रखाव हर मामले में. हो भी क्यों नहीं ? आम आदमी का स्वास्थ्य देश –प्रदेश की सरकारों की प्राथमिकता में अपेक्षाकृत नीचे पायदान पर जो रहा है. चालू वित्तीय वर्ष 2016 -17 के केन्द्र सरकार के बजट का मात्र 2 % हेल्थ केयर के लिए मुकर्रर है. प्रदेश की सरकारों का नजरिया भी इस मामले में ज्यादा भिन्न नहीं है. ज्ञातव्य है कि हमारे देश में सरकार द्वारा स्वास्थ्य के मद में किये जाने वाले प्रति व्यक्ति खर्च ( उपयोग की चर्चा न भी करें तब ) की तुलना अगर अन्य देशों से करें तो हम उस तालिका में बहुत ही नीचे हैं – बांग्लादेश, मलेशिया , श्रीलंका जैसे देशों से भी.

सरकार की इस सोच का ही शायद यह प्रतिफल है कि हर साल स्वास्थ्य के मद में हजारों करोड़ रूपये खर्च करने एवं तमाम सरकारी दावों –विज्ञापनों के बावजूद यह तथ्य सबके सामने है कि आजादी के करीब सात दशक बाद भी हमारे गांवों की अधिकांश आबादी आधुनिक चिकित्सा पद्धति के दायरे से बाहर हैं. आंकड़े भी बताते हैं कि देश में काम करने वाले प्रशिक्षित डॉक्टरों में से केवल 30 % ही गांवों में कार्यरत हैं, जब कि अभी भी देश की 70 % आबादी गांवों में रहती है. ग्रामीण क्षेत्र में बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करवाने के उद्देश्य से सरकार द्वारा वर्ष 2005 में शुरू किये गए बहु-प्रचारित व चर्चित ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ की स्थिति सबके सामने है. ऐसे भी अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो देश में डॉक्टरों की संख्या पर्याप्त नहीं है. मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक हमारे देश में एक लाख की आबादी पर मात्र 60 प्रशिक्षित डॉक्टर काम करते हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में ऐसे डॉक्टरों की संख्या कहीं अधिक है, जब कि इन देशों में स्वच्छता, पोषण आदि की स्थिति भी काफी बेहतर है.

आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में निजी क्षेत्र के लगातार बढ़ते प्रभाव के कारण एवं दवा कंपनियों, पैथोलॉजिकल लैब तथा अनेक चिकित्सकों के बीच अनैतिक गठजोड़ के चलते भी आधुनिक चिकित्सा बहुत मंहगी और आम आदमी के बूते से बाहर होती जा रही है. दवाओं की ओवरडोजिंग, अनावश्यक पैथोलॉजिकल टेस्ट, आईसीयू –सीसीयू के नाम पर दोहन आदि से रोगी और उनके परिजन परेशान होते रहे हैं. कमोबेश यह समस्या देशव्यापी है और दिनोंदिन ज्यादा गंभीर होती जा रही है. देश के कई अच्छे, सच्चे एवं बड़े डॉक्टरों ने समय–समय पर इस निरंतर गहराती समस्या को अपने –अपने ढ़ंग से रेखांकित किया है. हाल ही में नासिक के दो डॉक्टरों, डॉ. अरुण गद्रे और डॉ. अभय शुक्ला ने अपनी किताब, ‘डिसेंटिंग डायग्नोसिस’ में मौजूदा चिकित्सा व्यवस्था के गड़बड़झाले का बेबाकी से वर्णन किया है.

तो सवाल है कि भारत की इतनी बड़ी आबादी रोगों से लड़ने –बचने के लिए तथा सामान्य तौर पर स्वस्थ रहने के लिए आखिर अबतक कौन सा तरीका अपनाती रही– बेशक कुछेक बड़े रोग, आकस्मिक स्वास्थ्य आवश्यकताओं एवं तत्काल शल्य चिकित्सा से जुड़े मामलों को छोड़कर ? और ऐसे करोड़ों लोग आगे भी स्वस्थ जीवन जीने के लिए क्या करें ? समाज और सरकार के लिए क्या करना नितांत जरुरी है ?

एकाधिक सर्वेक्षण एवं स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते है कि आम भारतीय, खासकर ग्रामीण लोग इस मामले में अब तक मुख्यतः पारम्परिक चिकित्सा पद्धति पर निर्भर रहे हैं और कई कारणों से शायद आगे भी रहेंगे. ऐसा इसलिए कि हमारा देश पारम्परिक चिकित्सा ज्ञान के मामले में अत्यधिक समृद्ध रहा है और हजारों सालों से चली आ रही पूर्णतः स्थापित परम्पराओं की एक पूरी श्रृंखला सामाजिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में उपलब्ध रही है.

हाँ, यह सच है कि बावजूद समृद्ध स्वास्थ्य परम्पराओं के आज हमारी शहरी आबादी का बड़ा हिस्सा कारण–अकारण स्वास्थ्य ज्ञान के इस असीमित स्त्रोत का उपयोग अपने व्यवहारिक जीवन में नहीं करते हैं और फलतः सामान्य शारीरिक परेशानियों या बीमारियों, जैसे सर्दी-जुकाम, डायरिया –कब्ज, सिर दर्द –बदन दर्द आदि से ग्रसित होने पर भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति (यानी एलोपैथी) को अपना कर अपनी जेब ढीली करने के साथ-साथ अनायास ही उसके कई नकारात्मक साइड इफेक्ट्स से भी जूझते रहते हैं.

तो सवाल उठना वाजिब है, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ?

दरअसल बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के सामाजिक दुष्प्रभावों के अलावे लगातार तेजी से संयुक्त परिवारों के टूटने और उतनी ही तेजी से एकल परिवारों के बढ़ते जाने के कारण दादा–दादी, नाना–नानी, चाचा-चाची, फूफा-फूफी जैसे बुजुर्गों के मार्फ़त बच्चों में स्वतः हस्तांतरित होने वाले व्यवहारिक स्वास्थ्य ज्ञान का सिलसिला ख़त्म हो रहा है. यह भारत जैसे देश के लिए गंभीर चिंता का सबब है. लिहाजा, घरेलू उपचार की हमारी समृद्ध धरोहर को फिर से किसी –न- किसी रूप में पुनर्स्थापित करने की जरुरत आन पड़ी है, जिससे एक बड़ी आबादी को सामान्य रोगोपचार के मामले में कुछ हद तक आत्मनिर्भर बनाया जा सके.

कहना न होगा, इस महती कार्य को प्रभावी ढंग से जमीनी हकीकत में तब्दील करने में समाज के जाने-माने लोगों (ओपिनियन मेकर्स) और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े अच्छे तथा जानकार लोगों के साथ-साथ स्कूलों, कॉलेजों, कॉरपोरेट ऑफिसों की भूमिका अहम है. इसके लिए ऐसे सभी संस्थानों में एक सुविचारित व सुनियोजित जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन जरुरी है. इसमें रहन–सहन, खान-पान सहित रोगों के रोकथाम तथा सामान्य बिमारियों में किये जाने वाले घरेलू उपचारों पर खुलकर चर्चा हो, जिससे स्वास्थ्य के प्रति आम लोगों में जिज्ञासा एवं जागरूकता निरंतर बढ़े और उन्हें उपयुक्त जानकारी भी मिलती रहे. सच मानिए , नियमित रूप से ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन से एक जागरूक एवं स्वस्थ परिवार-समाज-प्रदेश-देश के सपने को धीरे –धीरे ही सही, मूर्त रूप देना संभव हो पायेगा.

अंत में यह अच्छी तरह स्पष्ट कर देना जरुरी है कि मौजूदा स्वास्थ्य परिदृश्य में सरकारी अस्पतालों की वर्तमान स्थिति में सतत गुणात्मक सुधार की आवश्यकता है और रहेगी. एक बात और. सरकार को ‘प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर’ के सिद्धांत को उच्च प्राथमिकता के स्तर पर अमल में लाना होगा. अर्थात स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा रोगों के रोकथाम पर इस्तेमाल ( सिर्फ खर्च नहीं) करना होगा.

 

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