राजनीति

सड़क पर उतरा शहजादा

सत्ता में विराजने के बजाए कांग्रेस में नई जान फूंकने उतरे राहुल

वे कहते हैं उन्हें युवराज मत कहिए पर लोग तो उन्हें यही मानते हैं। बात कहने से आगे मानने की है। उनके साथ एक ऐसे परिवार का नाम जुड़ा है जो उन्हें आम नहीं रहने देता। राहुल गांधी अपनी तमाम भद्र छवियों के बीच भारत के प्रथम परिवार की छाया से मुक्त नहीं हो सकते। वे सही मायने में एक सच्चे उत्तराधिकारी हैं क्योंकि उन्होंने सत्ता में रहते हुए भी सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर यह साबित कर दिया है उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों हैं।

सत्ता पाकर अधीर होनेवाली पीढ़ी से अलग वे कांग्रेस में संगठन की पुर्नवापसी का प्रतीक बन गए हैं। कांग्रेस, जहां सत्ता और संगठन एकमेक से दिखते थे, जैसी पार्टी में उनकी मां श्रीमती सोनिया गांधी के साथ संगठन को दुरूस्त करने में जुटे राहुल एक बदली हुयी हवा के प्रतीक बन गए हैं। कांग्रेस में यह संगठन के जीवित होकर खड़े होने और संभलने का भी वक्त है। 125 साल पुरानी पार्टी का यह नायक यूं ही अपने को महत्वपूर्ण होते नहीं देखना चाहता वह मैदान में उतरकर उसकी हकीकतों की थाह लेना चाहता है। उनके भारत की खोज यात्राओं पर उन्हें उपहास से मत देखिए यह एक ऐसा काम है जिसे बहुत से सत्ता के पिपासुओं को करना चाहिए था, पर कर तो इसे राहुल ही रहे हैं- यह सिर्फ इसलिए कि वे हैं ही खास। वे अपने परिवार की अहमियत को समझते हैं, शायद इसीलिए उन्होंने कहा- ‘मैं राजनीतिक परिवार से न होता तो यहां नहीं होता। आपके पास पैसा नहीं है, परिवार या दोस्त राजनीति में नहीं हैं तो आप राजनीति में नहीं आ सकते, मैं इसे बदलना चाहता हूं।’

जाहिर तौर पर वे कांग्रेस में एक नई पीढ़ी का इंतजार कर रहे हैं। देश भर में युवाओं को तलाशते राहुल अपनी पीढ़ी के सही प्रतिनिधियों की तलाश में हैं। युवा और हाशिए पर खड़े वंचित लोग उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। उनकी राजनीति को जहां युवाओं से संगठनात्मक मजबूती मिलेगी वहीं आखिरी पायदान के आदमी की चिंता करते हुए वे अपने दल का जनाधार बढ़ाना चाहते हैं। नरेगा जैसी योजनाओं पर उनकी सर्तक दृष्ठि और दलितों के यहां ठहरने और भोजन करने के उनके कार्यक्रम इसी रणनीति का हिस्सा हैं। सही मायनों में वे कांग्रेस के वापस आ रहे आत्मविश्वास का भी प्रतीक हैं। अपने गृहराज्य उप्र को उन्होंने अपनी प्रयोगशाला बनाया है। जहां लगभग मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस को उन्होंने पिछले चुनावों में अकेले दम पर खड़ा किया और आए परिणामों ने साबित किया कि राहुल सही थे। उनके फैसले ने कांग्रेस को उप्र में आत्मविश्वास तो दिया ही साथ ही देश की राजनीति में राहुल के हस्तक्षेप को भी साबित किया। उनकी प्रयोगशाला में आज उनकी अहमियत स्वीकारी जा चुकी है। केंद्र में कांग्रेस की वापसी ने सही मायने में राहुल ब्रिगेड को आत्मविश्वास को बहुत बढ़ा दिया है। राहुल भी इसे समझते हैं और अवसर का लाभ देखते हुए वे इस हौसले को स्थाई ताकत में बदलना चाहते हैं। कांग्रेस संगठन में जोश और ताकत फूंकने की उनकी कवायद इसी सोची समझी नीति का हिस्सा है। शायद इसीलिए सत्ता के मोह में फंसने के बजाए उन्होंने संधर्ष का पथ चुना। उप्र की मुख्यमंत्री मायावती की राहुल के दौरों पर की गयी टिप्पणियां इस बात की गवाही हैं कि राहुल का जादू कहीं न कहीं चल रहा है जिससे बसपा और सपा दोनों में खासी घबराहट है। राहुल भी इस बात को समझते हैं। वे जानते हैं उप्र का मैदान जीते बिना गांधी परिवार को वह ताकत नहीं मिल सकती जिसका वह अभ्यासी है। उप्र उनका गृहराज्य होने के नाते एक बड़ी चुनौती है। राहुल ने इस चुनौती को स्वीकारा है।

राहुल गांधी की सबसे बड़ी खूबी है कि वे शुचिता की राजनीति के हिमायती हैं। अपराध और भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी चिंताएं साफ दिखती हैं। राजनीति में बेहतर चेहरों के प्रवेश के वे हिमायती हैं। जब वे यह कहते हैं कि “मैं तो बस युवा संगठनों के जरिए हजारों ओबामा तैयार करने की कोशिश कर रहा हूं।” तो उनके बड़े ख्याबों का अंदाजा लग जाता है। राहुल सही मायनों में इन्हीं सपनों के साथ जी रहे हैं और उन्हें सच करने की कोशिशें भी कर रहे हैं। कांग्रेस जैसी लगातार सत्ता में रही पार्टी के पास शानदार अतीत के साथ समस्याएं भी कम नहीं हैं। परिवारवाद, भ्रष्टाचार, जातिवाद जैसे तमाम संकट इस दल के साथ भी जुड़े हैं। सत्ता में रहने के नाते गणेश परिक्रमा करने वालों का एक समूह जिसे राहुल के पिता स्व. राजीव गांधी ने सत्ता के दलाल कहकर संबोधित किया था, एक बड़ी चुनौती हैं। इनसे निपटना और रास्ते निकालना साधारण नहीं होता। किंतु आज यह कांग्रेस के लिए एक राहत की बात है शिखर पर बैठे तीनों नेता सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह व राहुल गांधी की सोच लगभग इन मुद्दों पर साफ है।

राहुल गांधी ने जहां नई आर्थिक नीतियों के पैरोकारों को मानवीय चेहरा अपनाने के लिए सुझाव दिया वहीं आम आदमी की चिंता आज सत्ता की चिंता बनी है। सरकार के काम पर निगरानी रखने के लिए भी एक ताकत आज केंद्र में दिखती है तो इसका कारण राहुल का सत्ता में न होना ही है। सरकार के कामकाज पर नजर रखकर जनता के हित साधने के प्रयासों में अगर तेजी आती है तो इसका लाभ राहुल और कांग्रेस दोनों को मिलेगा। आज मंहगाई के मामले पर केंद्र के मंत्रियों पर गहरा दबाव है तो इसके पीछे भी संगठन की ही ताकत है। बदलाव के दौर से गुजर रही कांग्रेस का नायक देश को समझने और बूझने में लगा है। वे अपना पाठ पढ़ रहे हैं। कांग्रेस में भी प्रशिक्षण और राजनीतिक शिक्षण की जरूरत को समझा जा रहा है। नया नायक जानता है कि भावनात्मक नारों से एक- दो चुनाव जीते जा सकते हैं किंतु सत्ता का स्थायित्व सही कदमों से ही संभव है। सत्ता में रहकर भी सत्ता से निरपेक्ष रहना साधारण नहीं होता, राहुल इसे कर पा रहे हैं तो यह साधारण नहीं हैं। लोकतंत्र का पाठ यही है कि सबसे आखिरी आदमी की चिंता होनी ही नहीं, दिखनी भी चाहिए। राहुल ने इस मंत्र को पढ़ लिया है। वे परिवार के तमाम नायकों की तरह चमत्कारी नहीं है। उन्हें पता है वे कि नेहरू, इंदिरा या राजीव नहीं है। सो उन्होंने चमत्कारों के बजाए काम पर अपना फोकस किया है। शायद इसीलिए राहुल कहते हैं-“ मेरे पास चालीस साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने लायक अनुभव नहीं है, मेरे पिता की बात अलग थी। ” राहुल का यह बयान बताता है कि वे सही विश्लेषण की ताकत भी रखते हैं।संगठन से चेला,चमचा और चापलूस तीनों को राहुल ने विदा करने की ठानी है। उनके करीब आप तभी जा सकते हैं जब आपके बात कहने और बताने को कुछ हो। वे कहते हैं- “ जब मैं किसी से मिलता हूं तो बहुत सावधानी से उन्हें सुनता हूं । आप दूसरों से सुनकर बहुत कुछ सीख सकते हैं, सीखना मेरा काम है। ” राहुल की यही विनम्रता उन्हें और औरों से अलग कर रही है। ये खुद को युवराज कहे जाने से दुखी हुए और इसका सार्वजनिक इजहार भी किया। राजनीति के दुर्गम पथ पर देर से आए इस शहजादे ने इसे लिए पहले कंटीले रास्ते चुने हैं, झोपडियां चुनी हैं, दलितों की बस्तियां चुनी हैं क्योंकि उन्हें पता है लोकतंत्र का राजपथ इन्ही रास्तों से होकर गुजरता है। वे शालीनता की राजनीति के राही बने हैं, लोगों से जुड़ने की कोशिशें उन्हें एक नायक में बदल देती हैं जो कुछ बदलना भी चाहता है। उनके भाग्य ने उन्हें गांधी परिवार का वारिस बनाया है किंतु उनकी अग्रगामी सोच से उनकी पार्टी अगर तालमेल बिठा सकी तो राहुल एक नया इतिहास भी रच सकते हैं। भारत के भावी शासक की ओर देखती जनता अभी तो उन्हें सधे कदमों से आगे बढ़ने के लिए शुभकामनाएं ही दे सकती है।

-संजय द्विवेदी