पंडित उपाध्याय विचार ही नहीं, व्यक्ति-क्रांति के प्रेरक

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पंडित दीनदयाल उपाध्याय जन्म जयन्ती- 25 सितम्बर, 2021
-ललित गर्ग-

एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय बीसवीं सदी के वैचारिक युगपुरुष थे, वे अजातशत्रु थे। उन्होंने भारत के जन-मन-गण को गहराई में आत्मसात करते हुए न केवल वैचारिक क्रांति की बल्कि व्यक्ति-क्रांति के भी प्रेरक बने। उनके दर्शन में आज भारत की संस्कृति और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के साथ-साथ मानव को केंद्र-बिंदु में रखकर ही राष्ट्र एवं समाज स्थापना की प्रेरणा मिलती है। दीनदयालजी कल भी प्रासंगिक थे, आज भी प्रासंगिक हैं, और आगे भी प्रासंगिक रहेंगे। एकात्म मानववाद तात्कालिक जनसंघ और भाजपा के लिए नहीं वरण विश्व की मानव सभ्यता और संस्कृति के लिए एक पाथेय है, एक नयी समाज-व्यवस्था का प्रेरक है।
आपका जन्म 25 सितम्बर 1916 में मथुरा जिले के छोटे से गांव ‘नगला चंद्रभान’ में हुआ था। तीन वर्ष की उम्र में आपकी माताजी का तथा 7 वर्ष की कोमल उम्र में आपके पिताजी का देहान्त हो गया। वह माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। किन्तु उन्होंने अपने असहनीय दर्द की दिशा को बहुत ही सहजता, सरलता तथा सुन्दरता से लोक कल्याण की ओर मोड़ दिया। आप जीवनपर्यंत परम सत्य की खोज में लगे रहे और लोक कल्याण की भावना से ओतप्रोत जीवन्त साहित्य की रचना की। पंडित उपाध्याय एक प्रखर विचारक, अर्थचिन्तक, शिक्षाविद्, साहित्यकार, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी ऐसे अजातशत्रु राष्ट्र-निर्माता व्यक्तित्व थे जिन्होंने जीवनपर्यंन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्त्व दिया। उनकी मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं।
पं. दीनदयालजी भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। वे मजहब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का जिम्मेदार मानते थे। वे हिन्दू राष्ट्रवादी तो थे ही, इसके साथ ही साथ वे भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। उनकी कार्यक्षमता और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी बड़े गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि- ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं।’ विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी पं. उपाध्याय देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि ‘हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा।’
पं. दीनदयालजी को उनकी जो बात उन्हें सबसे अलग करती है तो वह है उनकी सादगीभरी जीवनशैली, सरलता एवं निरंहकारिता। इतना बड़ा नेता होने के बाद भी उन्हें जरा सा भी अहंकार नहीं था। पंडित उपाध्याय की गणना भारतीय महापुरूषों में इसलिये नहीं होती है कि वे किसी खास विचारधारा के थे बल्कि इसलिये होती है कि उन्होंने किसी विचारधारा या दलगत राजनीति से परे रहकर राष्ट्र को सर्वोपरि माना। पंडितजी का जीवन हमें यह हिम्मत देता है – रख हौंसला, वो मंजर भी आयेगा, प्यासे के पास चलकर समंदर भी आयेगा।’
पण्डित उपाध्याय महान चिंतक एवं विचार मनीषी थे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उन्होंने एकात्म मानववाद के दर्शन पर श्रेष्ठ विचार व्यक्त करते हुए साम्यवाद और पूंजीवाद, दोनों की समालोचना की। एकात्म मानववाद में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और सृजित कानूनों के अनुरूप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक सन्दर्भ दिया गया है। उनकी दृष्टि में विश्व का ज्ञान हमारी थाती है। मानवजाति का अनुभव हमारी संपति है। विज्ञान किसी देश विशेष की बपौती नहीं। वह हमारे भी अभ्युदय का साधन बनेगा। विश्व-प्रगति के हम केवल द्रष्टा ही नहीं, साधक भी हैं। अतः जहां एक ओर हमारी दृष्टि विश्व की उपलब्धियों पर हो, वहीं दूसरी ओर हम अपने राष्ट्र की मूल प्रकृति, प्रतिभा एवं प्रवृत्ति को पहचानकर अपनी परंपरा और परिस्थिति के अनुरूप भविष्य के विकास-क्रम का निर्धारण करने की अनिवार्यता को भी न भूलें। स्व के साक्षात्कार के बिना न तो स्वतंत्रता सार्थक हो सकती और न वो कर्म चेतना ही जागृत हो सकती है, जिसमें परावलंबन और पराभूति का भाव न होकर स्वाधीनता, स्वेच्छा और स्वानुभवजनित सुख हो। अज्ञान, अभाव तथा अन्याय की परिस्थितियों को समाप्त करने और सुदृढ़, समृद्ध, सुसंस्कृत एवं सुखी राष्ट्र-जीवन का शुभारंभ सबके द्वारा स्वेच्छा से किए जाने वाले कठोर श्रम तथा सहयोग की आवश्यकता पर वे बल देते हंै। यह महान कार्य राष्ट्र-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक नए नेतृत्व की अपेक्षा रखता है। भारतीय जनसंघ का जन्म इसी अपेक्षा को पूर्ण करने के लिए हुआ है।
लोकतंत्र, समानता, राष्ट्रीय स्वतंत्रता तथा विश्व शांति परस्पर संबद्ध कल्पनाएं हैं। किंतु पाश्चात्य राजनीति में इनमें कई बार टकराव हुआ है। समाजवाद और विश्व-शासन के विचार भी इन समस्याओं के समधान के प्रयत्न से उत्पन्न हुए हैं पर वे कुछ नहीं कर पाए। उलटे मूल को धक्का लगाया है और नई समस्याएं पैदा की हैं। भारत का सांस्कृतिक चिंतन ही तात्विक अधिष्ठान प्रस्तुत करता है। भारतीय तात्विक सत्यों का ज्ञान देश और काल से स्वतंत्र है। यह ज्ञान केवल हमारी ही नहीं वरन पूर्ण संसार की प्रगति की दिशा निश्चित करेगा। पंडितजी का ‘‘चरैवेति-चरैवेति’’ के प्रतीक पुरूष से भरा जीवन उत्साह देता है – थक कर न बैठ, ऐ मंजिल के मुसाफिर, मंजिल भी मिलेगी, और मिलने का मजा भी आयेगा।’
दीनदयाल उपाध्याय मूल्यों एवं राष्ट्रीय भावना से जुड़ी पत्रकारिता के पुरोधा थे। उनके अन्दर की पत्रकारिता तब प्रकट हुई जब उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ में वर्ष 1940 के दशक में कार्य किया। अपने आर.एस.एस. के कार्यकाल के दौरान उन्होंने एक साप्ताहिक समाचार पत्र ‘पांचजन्य’ और एक दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेश’ शुरू किया था। उन्होंने नाटक ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ और हिन्दी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया। उनकी अन्य प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में ‘सम्राट चंद्रगुप्त’, ‘जगतगुरू शंकराचार्य’, ‘अखंड भारत क्यों हैं’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएं’, ‘राष्ट्र चिंतन’ और ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ आदि हैं।
एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित उपाध्याय का मानना था कि अपनी सांस्कृतिक संस्कारों की विरासत के कारण भारतवर्ष विश्व गुरु के स्थान को प्राप्त करेगा। पं. दीनदयाल द्वारा दिया गया मानवीय एकता का मंत्र हम सभी का मार्गदर्शन करता है। उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है। मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी। पं. उपाध्याय का मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी। समाज में जो लोग धर्म को बेहद संकुचित दृष्टि से देखते और समझते हैं तथा उसी के अनुकूल व्यवहार करते हैं, उनके लिये पंडित उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है। वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं। आपके विचारों के भाव इन पंक्तियों द्वारा अभिव्यक्त होते हैं – काली रात नहीं लेती है नाम ढलने का, यही तो वक्त है ‘सूरज’ तेरे निकलने का।’ आज पंडित उपाध्याय के सपनों का समाज बन रहा है, वह सूरज उदितोदित है, यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी पंडित उपाध्याय के एकात्म मानव-दर्शन एवं अंत्योदय के सपने को साकार कर रहे हैं। उनका सपना था कि समाज के अंतिम व्यक्ति को अपने जीवन पर गर्व हो और वह तेजस्वी स्वर में कह सके कि मुझे भारतीय होने पर गर्व है।

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