जनता के दबाव में बदल रहा है बीजेपी का एजेंडा ?

मारे देश में लोकतंत्र होने का फायदा हमें देर से ही सही मिलता नज़र आने लगा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता आडवाणी जी की भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्राा और गुजरात के सीएम मोदी का सदभावना उपवास और सबके विकास का नारा बीजेपी के बदले एजेंडे का ही संकेत देता नज़र आ रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जब अन्ना हज़ारे ने आंदोलन शुरू किया था तो अधिकांश लोगों का उदासीन और नकारात्मक रूख था। खासतौर पर यथासिथतिवादी लोगों का दावा था कि अन्ना चाहे जो करलें इस देश में कुछ बदलने वाला नहीं है। फिर यह सवाल आया कि जब योगगुरू बाबा रामदेव का आंदोलन सरकार ने फेल कर दिया तो अन्ना की क्या मजाल है कि सरकार को झुकने के लिये मजबूर करदें। इसके बाद जब सरकार ने अन्ना को अनशन करने से पहले ही तिहाड़ जेल में बंद कर दिया तो एक बार तो देश को ऐसा लगा कि अन्ना को भी सरकार बाबा रामदेव की तरह निबटाने में कामयाब हो ही जायेगी लेकिन जब जनता का सैलाब सड़कों पर उतरा तब सरकार को पता लगा कि उससे भी बड़ी और शकितशाली कोर्इ चीज़ होती है जिसको जनता कहते हैं। इसके बाद जो कुछ हुआ उसी से प्रेरित होकर आडवाणी जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्रा निकालने की घोषणा की है।

 

हम भाजपा के बदले एजेंडे की बात कर रहे थे कि कैसे राममंदिर, हिंदू राष्ट्र और समान नागरिक कानून की मांग से वह भ्रष्टाचार के खिलाफ जनभावानओं का सम्मान करने को मजबूर हो गयी। पहले उसने कर्नाटक के सीएम येदियुरप्पो को लोकायुक्त की रिपोर्ट उनके खिलाफ होने के बावजूद वहां बगावत के डर से हटाने में आनाकानी की लेकिन जैसे ही अन्ना के आंदोलन से उसे लगा कि वह एक राज्य बचाने के चक्कर में पूरा देश अपने खिलाफ कर लेगी वह पलटी और जोखिम उठाकर भी कांग्रेस से अपनी कमीज़ कम गंदी दिखाने की कोशिश में लग गयी। यही काम उसने कांग्रेस द्वारा जनलोकपाल बिल को पास करने में की जा रही हीलहवाली को लेकर किया। बीजेपी दूसरी पार्टी थी जिसने कम्युनिस्टों के बाद सीधे सीधे सरकार से अन्ना के जनलोकपाल बिल की तरह मज़बूत कानून भ्रष्टाचार के खिलाफ लाने की खुलकर मांग की और जनसमर्थन का रूख अन्ना के साथ अपनी तरफ भी किसी हद तक मोड़ने की कोशिश की। बीजेपी यहीं नहीं रूकी अब उसने उत्तराखंड में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे भाजपार्इ सीएम रमेश पोखरियाल निशंक को चलता कर र्इमानदार छवि के धनी भुवन चंद खंडूरी को इस पहाड़ी राज्य की कमान सौंप दी।

इसके साथ ही वोटों की कहो या अवसर की राजनीति भाजपा के वरिष्ठ नेता एल के आडवाणी ने पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक रथयात्रा निकालने का ऐलान कर दिया। इससे भ्रष्टाचार कितना रूकेगा और बीजेपी इस मुददे पर अगर चुनाव जीतकर सत्ता में आ जाती है तो वह कितनी साफ सुथरी सरकार दे पायेगी हम यहां यह दावा नहीं कर सकते, क्योंकि बीजेपी की सरकारों का अब तक का रिकार्ड इस मामले में कोर्इ खास बेहतर नहीं रहा है। बहरहाल एक बात जो दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ नज़र आ रही है वह यह है कि बीजेपी यह मान चुकी है कि उसका साम्प्रदायिक या अलगाववादी एजेंडा इस देश की जनता पसंद नहीं करती जिससे वह मुसिलमों द्वारा ही नहीं बलिक हिंदुओं के बहुमत के द्वारा भी बार बार ठुकरार्इ जा रही है। यह भी एक सच्चार्इ है कि आरएसएस चाहे बीजेपी से कुछ भी चाहे लेकिन बीजेपी को अगर सरकार बनानी है तो उसको वह करना होगा जो इस देश की जनता चाहती है। दरअसल धार्मिक और भावुक मुददों पर लोगों को कुछ समय के लिये ही जोड़ा जा सकता है जबकि ज़मीन से जुड़े आम जनता के मुददों को जब भी जो दल या नेता उठायेगा उसको जनता का जबरदस्त सपोर्ट और विश्वास हासिल होगा यह बात अन्ना हज़ारे ने साबित कर दी है।

चलो अच्छा हुआ आरएसएस ने देश की यह चिंता खुद ही दूर कर दी कि रथयात्राा निकालने के बावजूद भाजपा के वरिष्ठ नेता एल के आडवाणी प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं होंगे। दरअसल आडवाणी की 84 साल की आयु को देखते हुए देश की आबादी की सबसे बड़ी तादाद बन चुके युवा वर्ग को यह बात साल रही थी कि हमारे यहां जब युवा हर क्षेत्र में एक के बाद एक रिकार्ड बना रहे हैं तो राजनीति के क्षेत्र में रिटायरमेंट की उम्र से भी दो दशक आगे निकल चुके एक बूढ़े पुरातनपंथी सोच के नेता को पीएम पद का दावेदार बनाने की क्या तुक है?

 

हालांकि रामरथयात्रा के मुकाबले भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्राा शुरू करने की आडवाणी की घोषणा का देश के कर्इ वर्गों ने यह सोचकर स्वागत किया था कि यह समाजसेवी अन्ना हज़ारे के आंदोलन का ही विस्तार होगा और इससे देश में भ्रष्टाचार और बेर्इमानी के खिलाफ माहौल बनाने और आने वाले चुनावों में इसका सकारात्मक असर पैदा करने में बड़ी भूमिका हो सकती है लेकिन राजनीति के जानकार सूत्रों की यह आशंका अपनी जगह ठीक थी कि इससे हाशिये पर जा चुके भाजपा नेता आडवाणी एक बार फिर से पीएम पद के दावेदार बन जायेंगे। इसीलिये सबसे पहले संघ परिवार में ही इस मुददे को लेकर हंगामा मचा। इसका नतीजा यह हुआ कि एक तरफ तो आडवाणी के दावे की हवा निकालने के लिये औपचारिक रूप से गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को बाकायदा पीएम पद का दावेदार घोषित किया गया दूसरे अप्रत्यक्ष ही सही आडवाणी जी से भी मोदी के नाम का प्रधनमंत्री पद के लिये अनुमोदन सार्वजनिक रूप से कराया गया। यह अलग बात है कि मोदी को सीएम की कुर्सी तक पहुंचाने से लेकर गुजरात दंगों तक में र्फ्री हैंड देने वाले आडवाणी को उम्मीद रही होगी कि जब वह मोदी को पीएम पद का दावेदार मानने की बात स्वीकार करेंगे तो एक अच्छे चेले की तरह मोदी स्वयं लौटकर पीएम पद का प्रस्ताव उनके लिये वरिष्ठता के आधर पर भी करेंगे ही, लेकिन सब कुछ चूंकि आरएसएस में पहले से ही तयशुदा योजना के अनुसार चल रहा था इसलिये मोदी ने वही किया जो उनको संघ के इशारे पर करना चाहिये था। इतना ही नहीं अमेरिका के थिंकटैंक की तरफ से भी मोदी का नाम पीएम पद के लिये काफी सोच समझकर 2012 के चुनाव के लिये लिया गया है। इससे संघ परिवार ने भी इस मामले में अमेरिका की तरफ से मोदी के लिये पीएम पद की दावेदारी को लेकर क्लीनचिट मान ली है।

 

अगर पीछे मुड़कर देखा जाये तो आडवाणी ने तो अपनी पीएम पद की दावेदारी उसी दिन खो दी थी जिस दिन उन्होंने पाकिस्तान जाकर मौ0 अली जिन्नाह को सेकुलर बताया था। संघ परिवार को उनका यह बयान आज तक भी बुरी तरह से चुभता है। उसी बयान का नतीजा था कि आडवाणी जी को भाजपा का अèयक्ष पद और संसदीय विपक्षी नेता का पद तक खोना पड़ा था। इस एक बयान ने आडवाणी जी का भविष्य तय कर दिया था जिससे उनको पीएम पद का प्रत्याशी तो संघ परिवार स्वीकार कर ही नहीं सकता। जहां तक उनका भाजपा में बने रहने का सवाल है यह उनकी वरिष्ठता और पार्टी के लिये उनके योगदान को देखते हुए नरम रूख़ की वजह रही वर्ना एक और वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह का हश्र सब देख ही चुके हैं। वह भी पाकिस्तान सिंड्रोम का ही शिकार हुए थे। खास बात यह है कि माकपा और भाजपा जैसी पार्टियों में आज भी सत्ता से अधिक विचारधारा पर जोर दिया जाता है जिसकी वजह से ये सरकार बनाने से बार बार वंचित रह जाती हैं। सब जानते हैं कि अगर कम्युनिस्ट अपनी नासितकता और भाजपा साम्प्रदायिकता छोड़ दे तो कांग्रेस कभी की सत्ता से बाहर हो जाये लेकिन ये दोनों जनता के बार बार संदेश देने के बावजूद अपनी अपनी जि़द पर अड़े हुए हैं जिसका नतीजा यह है कि एक कटटरपंथी आडवाणी को पीएम पद की दौड़ से बाहर करके गुजरात दंगों से पूरी दुनिया में भारत की नाक कटवाने वाले मोदी जैसे अहंकारी, अमानवीय और संकीर्ण सोच के विवादास्पद नेेता को पीएम पद के लिये आगे लाया जा रहा है। एक कवि की पंकितयां याद आ रही हैं।

0इबितदा ए इष्क है रोता है क्या, आगे आगे देखिये होता है क्या।

 

नोट- लेखक पबिलक आब्ज़र्वर समाचार पत्र के संपादक हैं।

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

3 COMMENTS

  1. मिश्र जी यह तो हर लेखक की बात होती है की शुरूआत अछि होती है लेकिन अंत में शायद वो यह भूल जाता है की मैंने स्टार्ट कहाँ से की thi

  2. कुछ लोग जब लिखते हैं तो वह विचारों के आदान – प्रदान के लिये नहीं, बस प्रोपेगंडा के लिये लिखते हैं। वह एक ऐसे टी.वी. की तरह हैं जो सिर्फ बोल सकता है, सुन कुछ भी नहीं सकता। यदि आपको मोदी के बारे में आप द्वारा कही गई हास्यास्पद बातों का तर्क संगत जवाब दिया भी जाये तो उससे कुछ होने वाला नहीं है क्योंकि आप अपनी जनवादी विचारधारा से बंधे हैं जिसमें हिन्दू को गाली देना ही धर्मनिरपेक्षता कि सबसे बड़ी पहचान है। आप कम्यूनिस्टों को संघ व बी.जे.पी. के सामने रखने की हास्यास्पद कोशिश भी कर रहे हैं जबकि कम्युनिस्टों को देशद्रोह के अलावा कुछ आता नहीं और संघ का देशप्रेम जगत विख्यात है।

  3. लेख की शुरुआत तो अच्छी थी पर ख़त्म करते करते आपने भी दिखा दिया की आप भी सिर्फ “संघ” विरोध को ही सेकुलर होने का प्रमाणपत्र मानते हैं, वैसे आपकी गलती नहीं है हमारे देश में सेकुलर होने का मतलब ही हिन्दुवों को गाली देना और इस्लाम परस्त हो जाना है, वर्ना अपने देश की संस्कृत (सभ्यता) की बात करने वाले को सांप्रदायिक नहीं देशभक्त कहा जाता. और आप जैसे जो भी मुसलमान और तथाकथित सेकुलर लोग गुजरात दंगों पर १० साल से छाती पीट रहें हैं उनमे से किसी ने भी गोधरा के बारे में कभी मुंह नहीं खोला यदि उसी समय कुछ मुस्लिम आगे आकर हिन्दुवों के घावों पर मरहम लगाने की कोशिश करते तो सायद ही कोई हिन्दू होता जो बदला लेने की बात करता क्योंकि हिन्दुवों से बड़ा सहनशील और क्षमाशील धरती पर न तो कोई समाज है और न ही धर्मं. पर दंगों के बाद भी हमारे इस सेकुलर समाज में से कोई भी उन गोधरा पीड़ितों की बात भी नहीं करता तथा
    हमारे एक सेकुलर चारा प्रेमी ने तो ये भी सिद्ध करना चाहा की साबरमती में आग स्टोव और यात्रियों की अपनी वजह से लगी थी, इतनी सेकुलरता की तो सायद मुसलमानों को भी जरुरत नहीं है, वहीँ पिछले १० सालों में गुजरात का विकास चरम पर है और कोई छोटी मोटी भी घटना नहीं घटी जो हिन्दुवों और मुस्लिमो को बांटती इससे यही साबित होता है की असली सेकुलर मोदी जी हैं, पर आपलोगों को तो लालू जैसे सेकुलर ही पसंद हैं ना?

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