अयोध्या प्रसाद भारती
उस दिन महल की दासी नेरोनिका को अर्धरात्रि का बेसब्री से इंतजार था। जैसे-जैसे समय व्यतीत हो रहा था वैसे-वैसे उसके दिल की धड़कन बढ़ रही थी। महल के नीचे उनको आज अपने प्रेमी विल्मर से मिलना तय था। दूसरे तल से वह दबे पांव नीचे की ओर चल देती है। मिलन का समय नजदीक आ चुका था।
सत्राहवीं सदी के प्रारंभ की बात है। उस समय बिजली का आविष्कार नहीं हुआ था। लालटेन की कहीं-कहीं मामूली रोशनी थी। वह दबे पांव चल रही थी। तभी दूसरी तरफ से किसी के आने का आभास हुआ। नेरोनिका एक स्तंभ की आड़ में छिप गई मगर नजर सामने से गुजरने वाले पर थी। लालटेन के प्रकाश मे ंउसका चेहरा दिखा तो नेरोनिका थोड़ा चैंकी। रानी इस समय कहां जा रही है? रानी नीचे की ओर उतरने लगी। नेरोनिका ने सोचा कि क्या रानी भी किसी प्रेमी से मिलने जा रही है?
जिज्ञाषा से नेरोनिका भी दबे पांव उसके पीछे-पीछे हो ली। रानी आगे चलकर तहखाने की ओर मुड़ी। उसका किवाड़ खोला और तहखाने में तेजी से उतरती चली गई। नेरोनिका किवाड़ के सामने के स्तंभ के पीछे छुप गई। कोई दस मिनट बाद रानी तहखाने से निकली। नेरोनिका ने देखा रानी के कपड़ों, चेहरे इत्यादि पर जगह-जगह खून लगा है। वह सोच में पड़ गई कि चक्कर क्या है। रानी चली गई तो नेरोनिका नीचे जाकर विल्मर से मिली पर आज वह विल्मर से ढंग से नहीं बात कर पायी क्योंकि उसकी सोच पर रानी हावी थी।
वापस अपने शयनकक्ष में जाकर भी वह घंटों उसी के बारे में सोचती रही। बड़ी देर बाद उसे नींद आई। दिन में वह रात का बेसब्री से इंतजार करती रही। वह योजना बना चुकी थी कि अब जब तक सच्चाई का पता नही लग जाता, वह रानी की जासूसी करेगी। उस रात वह समय से पहले ही तहखाने के रास्ते में सुरक्षित जगह छुप गई। शायद आज रानी फिर आए। काफी देर वह सांस रोके इंतजार करती रही।
आखिर इंतजार की घड़ियां खत्म हुईं और सामने से रानी का गुजर हुआ। कुछ फासले के बाद नेरोनिका उठकर उसके पीछे चल दी। कल की तरह आज भी रानी तहखाने में उतरी। उसने लालटेन जलाई और अपने सारे कपड़े उतार दिए। भीतर का नजारा लेने को नेरोनिका आज तहखाने की सीढ़ियों पर डटी थी।
रानी ने खुद को निर्वस्त्रा किया और दीवार की खूंटी पर लटकी तलवार उतारी। एक कोने में पड़ी गठरी को थोड़ा सा खींचा। गठरी खोली तो नेरोनिका चैंक पड़ी। उसमें एक जवान लड़की थी। उसके मुंह में कपड़ा ठुंसा हुआ और हाथ पीछे की ओर बंधे हुए थे। रानी ने उसे दीवार के सहारे खड़ा किया और फिर अचानक से तलवार उसके सीने में भोंक कर निकाल ली। नेरोनिका अगर जल्दी मुंह पर हाथ न रख लेती तो उसकी चीख निकल जाती फिर शायद उस लड़की जैसा ही उसका भी हाल होता।
नेरोनिका उस लड़की के सीने से निकल रहे रक्त से रानी को स्नान करता देख रही थी। कुछ ही क्षणों में रानी का पूरा बदन खून में नहाया हुआ था। उसने कुछ रक्त पिया भी। नेरोनिका बेदम सी हो रही थी। अब और वहां न रूक सकी और मरी-मरी चाल से अपने कमरे की ओर चली गई। उस सीन का उस पर ऐसा असर हुआ कि सुबह तक वह बुखार में बुरी तरह तप रही थी। वह छुट्टी लेकर विल्मर के पास चली गई। वह कई दिन बीमार रही। विल्मर समझ नहीं पा रहा था कि नेरोनिका स्वस्थ क्यों नहीं हो रही। नेरोनिका की सेवा-सुश्रषा के दौरान ही एक दिन बिल्मर की चाकू से उंगली कट गई। खून बहता देख नेरोनिका चिल्लाई-विल्मर, रोको इसे रोको नहीं तो काउंटेस तुम्हारा खून पी जाएगी।
विल्मर कुछ न समझा। वह पट्टी बांधने लगा। पसीने में नहाई, डरी-घबराई नेरोनिका से वह बहुत देर बातें करता रहा तब उसे काउंटेस (रानी) की करतूत का पता चला। अब विल्मर ने एक-एक कर लोगों को बताना शुरू किया। उन दिनों एक-एक कर युवतियां गायब हो रही थी। लोगों ने उसे रानी से जोड़कर देखना शुरू किया। बात राजपरिवार तक पहुंची। जनदबाव पर जांच की गई और फिर उस ड्रैकुला सी रानी की असलियत सामने आ गई। उसे विशेष कानून बनाकर मौत की सजा सुनाई गयी। मौजूदा कानून राजपरिवार के सदस्यों के किसी भी अपराध में प्रभावी नहीं था। रानी को मौत भी मिली तो बड़ी भयानक, बड़ी घृणास्पद। उसे जनता के समक्ष खुले में फांसी दी गई। फिर शव को कौवे-गिद्धों और कुत्तों के खाने के लिए एक बंजर मैदान में फेंक दिया गया।
एलिजाबेथ नाम की उक्त रानी का जन्म हंगरी के एक साधारण परिवार में हुआ था। सुंदर और गठीले शरीर की मालिका एलिजाबेथ जब युवा हुई तो उसका विवाह एक सैनिक अफसर के साथ हुआ परंतु वह जल्दी ही विधवा हो गई। एक युद्ध में उसका पति मारा गया। कुछ समय बाद उसकी मुलाकात काउंट मैथियास से हुई। मैथियास उसके रूप यौवन पर मर मिटे और कुछ दिनों बाद एलिजाबेथ उनकी रानी बनकर महल में आ गई।
उसने किसी से सुना था कि रक्तपान और रक्त स्नान से जवानी लंबे समय तक कायम रहती है और सौंदर्य बढ़ता है। अपनी एक विश्वसनीय दासी डोरोथा जेरस के सहयोग से उसने खूनी खेल शुरू कर दिया। विश्वसनीय सेवक उसके लिए जवान औरतों और लड़कियों को अगवा करके लाते। इस पर रानी खुले हाथ से खर्चा कर रही थी। कुल 6 वर्षों में उसने 6-7 सौ युवतियों का ’शिकार‘ किया उसका भांडा दिसंबर 1604 में फूटा।
अयोध्या प्रसाद भारती