न्यायपालिका की स्वायत्तता का सवाल

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जावेद अनीस

भारतीय लोकतंत्र के दो आधार स्तंभों के बीच की टकराहट अपने चरम पर पहुंच चुकी है और फिलहाल इसके थमने का आसार नजर नहीं आ रहा हैं, विधायिका और कार्यपालिका के बीच की हालिया टकराहट भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में अभूतपूर्व है. भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गयी यह टिपण्णी कि “सरकार अब न्याय पालिका को अपने कब्जे में करना चाहती है और कार्यपालिका न्याय पालिका को मूर्ख बना रही है” स्थिति की गंभीरता को दर्शाने के लिये काफी है.

हमारी न्यायपालिका एक मुश्किल दौर से गुजर रही है पिछले दिनों एक के बाद एक हुई घटनाओं ने पूरे देश का ध्यान खींचा है. केंद्र सरकार द्वारा न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ को उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाये जाने संबंधी कॉलेजियम की सिफारिश को पुनर्विचार के लिए वापस भेजने के बाद से ये टकराहट अपने चरम पर पहुंच चुकी है, लेकिन टकराहट अन्दर और बाहर दोनों से हैं. कॉलेजियम की सिफारिश वापस भेजने के बाद दो वरिष्ठ जजों द्वारा मुख्य न्यायधीश से इस मसले पर ‘फुल कोर्ट’ बुलाने की मांग की गयी थी लेकिन चीफ जस्टिस द्वारा जिस  इन चिंताओं पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया जाहिर है कॉलेजियम के चार सदस्यों और प्रधान न्यायाधीश  के बीच मतभेद की स्थिति लगातार बनी हुई है.

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और सुप्रीम कोर्ट के 22 अन्य जजों को एक चिट्ठी लिखी गयी थी जिसमें उन्होंने देश के सर्वोच्च अदालत की स्थिति को लेकर गंभीर चिंतायें  जताई थीं अपने पत्र में उन्होंने लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट का वजूद खतरे में है और अगर कोर्ट ने कुछ नहीं किया तो इतिहास उन्हें (जजों को) कभी माफ नहीं करेगा.

हमारे संविधान में सरकार के तीन अंगों में शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा है लेकिन कई कारणों से हम इनमें संतुलन नहीं बना पाए हैं. सुप्रीम कोर्ट की यह कहना कि “जब हम कुछ कहते हैं तो यह कहा जाता है कि यह तो न्यायिक सक्रियता का और आगे निकल जाना है” इन पूरे विवाद की जड़ को बयान करता है. भारत में न्यायपालिका की साख और इज्जत सबसे ज्यादा है ,चारों तरफ से नाउम्मीद होने के बाद अंत में जनता  न्याय की उम्मीद में अदालत का ही दरवाज़ा खटखटाती है. यह स्थिति हमारी कार्यपालिका और विधायिका की विफलता को दर्शाती है, इसी वजह से न्यायपालिका को उन क्षेत्रों में घुसने की जरूरत मौका मिल जाता है जिसकी जिम्मेदारी कार्यकारी या विधायिका के पास है. कार्यपालिका और विधायिका के नाकारापन के कारण ही देश के अदालतों को उन अपीलों में व्यस्त रहना पड़ता है जो उससे क्षेत्र में नहीं आते हैं.

लेकिन इधर सुप्रीम कोर्ट भी पिछले कुछ समय से लगातार गलत वजहों से सुर्ख़ियों में है अब स्थिति यहाँ तक पहुंच गयी है देश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय हिन्दू- मुस्लिम राजनीति का अखाड़ा बनाया जाने लगा है. भारत सरककर द्वारा जस्टिस के एम जोसेफ के नियुक्ति की सिफारिश सुप्रीमकोर्ट वापस भेजे जाने के बाद कांग्रेस के सीनियर नेता पी चिदंबरम ने ट्वीट किया कि “न्यायमूर्ति केएम जोसेफ की नियुक्ति क्यों रुक रही है? इसकी वजह उनका राज्य या उनका धर्म अथवा उत्तराखंड मामले में उनका फैसला है ?” इसी तरह से मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ विपक्ष महाभियोग का प्रस्ताव पर सत्ताधारी खेमे द्वारा  ये सन्देश देने की कोशिश की गयी कि महाभियोग इसलिये लाया गया है ताकि चीफ जस्टीस राम मंदिर मामले में सुनवाई न कर सकें और इस पर फैसला ना आ सके. यह क खतरनाक स्थिति बन रही है अगर नायापलिका को भी हिन्दू- मुसलमान के चश्मे से देखा जाने लगा तो फिर इस देश को आराजकता की स्थिति में जाने से कोई नहीं बचा पायेगा.

जजों की नियुक्ति के तौर-तरीकों को लेकर मौजूदा सरकार और न्यायपालिका में खींचतान की स्थिति पुरानी है, लेकिन इसका अंदाजा किसी को नहीं था कि संकट इतना गहरा है. सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायधीश जब न्यायपालिका की खामियों की शिकायत लेकर पहली बार मीडिया के माध्यम से सामने आये तो यह अभूतपूर्व घटना थी जिसने बता दिया कि न्यायपालिका का संकट कितना गहरा है.   इन चार जजों ने अपने प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि न्यायपालिका की निष्पक्षता व स्वतंत्रता दावं पर है उनके पास कोई और विकल्प ही नहीं बचा था इसलिये वे मजबूर होकर मीडिया के माध्यम से अपनी बात रखने के लिये सामने आए हैं जिससे देश को इसके बारे में बता बता चल सके, उनका आरोप था कि ‘सुप्रीम कोर्ट में सामूहिक रूप से फैसले लेने की जो परंपरा रही है उससे किनारा किया जा रहा है और महत्‍वपूर्ण मामले खास पसंद की बेंच को असाइन किए जा रहे हैं. इस भेदभाव पूर्ण रवैए से न्‍यायपालिका की छवि खराब हुई है.’ इस दौरान उन्होंने देश की जागरूक जनता से अपील भी की कि अगर न्यायपालिका को बचाया नहीं गया तो लोकतंत्र नाकाम हो जाएगा. इस प्रेस कांफ्रेंस के महीनों बीत जाने के बाद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है और हालत सुधरते हुये दिखाई नहीं पड़ रहे  हैं, संकट गहराता ही जा रहा है.

न्यायपालिका और विधायिका के बीच इस विवाद के एक प्रमुख वजह जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर मतभेद का होना भी है. सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति के तरीके को लेकर इन दोनों संस्थानों के बीच का  विवाद पुराना है लेकिन नयी सरकार आने के बाद से विवाद और गहराया है . वर्तमान में जजों की नियुक्क्ति कोलेजियम के परामर्श के आधार पर की जाती है. इस व्यवस्था को बदलने के लिये पिछली यूपीए सरकार द्वारा 2013 में ज्युडिशियल अप्वाईंटमेंट कमीशन बिल लाया गया था जिसे  राज्य सभा द्वारा पारित भी करा लिया गया था लेकिन सत्ता परिवर्तन के कारण इसे  लोकसभा में पारित नहीं कराया जा सका था. इस बिल के प्रावधानों के तहत जजों की नियुक्ति करने वाले इस आयोग की अध्यक्ष भारत के मुख्य न्यायाधीश होंगें उनके अलावा इसमें सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, क़ानून मंत्री और दो जानी-मानी हस्तियां होंगीं, दो जानी-मानी हस्तियों का चयन तीन सदस्यीय समिति को करना था जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोक सभा में नेता विपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दाल के नेता शामिल थे. इसमें खास बात ये थी कि कि अगर आयोग के दो सदस्य किसी नियुक्ति पर सहमत नहीं हुए तो आयोग उस व्यक्ति की नियुक्ति की सिफ़ारिश नहीं करेगा.

2014 में सत्ता में आने के बाद वर्तमान मोदी सरकार ने इस बिल को कुछ संशोधनों के साथ  लोकसभा और राज्यसभा दोनों से द्वारा पारित करवा लिया था.  लेकिन न्यायपालिका द्वारा ज्युडिशियल अप्वाईन्टमेंट कमीशन के प्रावधानों  को अपनी  स्वतंत्रता में हस्तक्षेप मानते हुये इसका कड़ा विरोध किया जाता रहा . 2014 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी. सतशिवम ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम सिस्टम की व्यस्था को बेहतर बताते हुए इसमें किसी भी तरह के बदलाव किये जाने का विरोध किया था. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन को असंवैधानिक घोषित करते हुए इसे खारिज कर दिया था और इसके साथ यह भी साफ कर दिया था कि जजों की नियुक्ति‍ पहले की तरह कॉलेजियम सिस्टम से ही होगी. इसके पीछे सुप्रीम का तर्क था कि आयोग में मंत्रियों के शामिल होने की वजह से न्यायपालिका की निष्पक्षता पर आंच आने का अंदेशा है.

इसके बाद केंद्र सरकार और सुप्रीमकोर्ट के बीच तल्खी और बढ़ गयी वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तीखी आलोचना करते हुये लिखा था कि “भारत के संविधान में सबसे अहम संसद है और बाद में सरकार लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग पर दिए अपने फैसले में भारत के संवैधानिक ढांचे को ही नजरअंदाज किया है..भारतीय लोकतंत्र में ऐसे लोगों की निरंकुशता नहीं चल सकती जो चुने नहीं गए हों”.

हमारी लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था के चार स्तंभ हैं जो शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत से चलते हैं इसके तहत हमारे संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारक्षेत्र को लेकर स्पष्ट उल्लेख है इसके अनुसार विधायिका को कानून बनाने  कार्यपालिका को  इसे लागू करने और न्यायपालिका के पास विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान सम्मत होने की जांच करने का काम है. कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच टकराव पहले भी होते रहे हैं और दोनों एक दुसरे के  अधिकार क्षेत्र में अनधिकृत प्रवेश नहीं करने करने की हिदायत देते रहे हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों का सर्वोच्च न्यायालय पर बैंच-फिक्सिंग और सरकार के साथ मिलकर काम करने के आरोप बहुत ही गंभीर मसला है यह सर्वोच्य न्यायलय की स्वायता और ईमानदारी से जुड़ा हुआ है इसलिए इन्हें किसी भी कीमत पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच बढ़ता टकराव किसी भी तरह से लोकतंत्र के हित में नहीं है. किसी को नहीं पता की न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका का यह विवाद कौन सुलझाएगा. लेकिन सब को मिलकर किसी भी तरह से यह सुनिश्चित करना ही होगा कि लोकतंत्र के सभी स्तंभ बिना किसी आपसी दबाव या प्रभाव के स्वतंत्र रूप से काम कर सकें और उनका एक दुसरे पर नियंत्रण बना रहे.

 

 

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