दया याचिकाओं पर उठते सवाल

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प्रमोद भार्गव

हैदराबाद की महिला पशु चिकित्सक के साथ दुष्कृत्य और फिर निर्मम हत्या को लेकर संसद से सड़क तक मचा कोहराम दुष्कर्मियों को पुलिस मुठभेड़ में मार गिराने के बाद उत्सव में बदल गया है। लोकसभा व राज्यसभा में जिन महिला सांसदों ने इस कांड के आरोपियों को सजा के लिए भीड़ के हवाले कर देने से लेकर नपुंसक बना देने तक की मांग कर डाली थी, वह मुठभेड़ के बाद तालियां पीट रही हैं। इससे लगता है, संसद में लंबा समय गुजार देने के बावजूद उनमें संविधान व भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के संदर्भ में कोई समझ विकसित नहीं हुई है। हालांकि मेनका गांधी ने इस मुठभेड़ को गैर-कानूनी करार दिया है। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल तो इस मुठभेड़ को हत्या करार देते हुए राजघाट पर धरने पर बैठ गई थीं।दरअसल, ये विरोधाभास निर्णायक कानून और त्वरित न्याय इस तरह के जघन्य मामलों में भी नहीं मिलने के कारण सामने आए हैं। शायद भविष्य में से संविधान व कानून से इस तरह का खिलवाड़ न हो, इसलिए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को कहना पड़ा है कि दया याचिकाओं का निराकरण त्वरित हो और बाल यौन उत्पीड़न निषेध कानून अर्थात पास्को से जुड़े मामलों में तो दया याचिकाएं राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत ही न की जाएं, जिससे देश में सामूहिक गुस्से का विस्फोट न हो। निर्भया कांड के समय भी ऐसी मांगों के साथ, सख्त कानून बनाने की मांग उठी थी। कानून तो सख्त बन गया लेकिन परिणाममूलक नहीं निकला। जबकि बलात्कार और फिर हत्या के मामलों को जल्द निपटाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर त्वरित न्यायालय भी अस्तित्व में आ गए हैं। कई न्यायालयों ने ऐसे जघन्य अपराधों में निर्णय दो से चार माह के भीतर सुना भी दिए। लेकिन अपील के प्रावधान के चलते, उच्च व उच्चतम न्यायालयों और फिर राज्यपाल व राष्ट्रपति के यहां दया याचिका दाखिल करने की सुविधा के कारण इन मामलों का वही हश्र हुआ, जैसा अमूमन सामान्य प्रकरण में होता है।उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू को कहना पड़ा कि ‘जो व्यक्ति जघन्य दुष्कृत्य कर सकता है, उसका उम्र से क्या लेना-देना? बलात्कार पर रोक लगाने में नए-नए कानून लाने की बजाय राजनैतिक इच्छा शक्ति ही कारगार उपाय ढूंढ़ सकती है। फास्ट ट्रैक के बाद भी अपील पर अपील की इतनी लंबी प्रक्रिया है कि मामले के निराकरण की उम्मीद समाप्त जैसी हो जाती है। क्या ऐसे लोगों पर दया करनी चाहिए? अदालत से सजा मिलने के बाद राज्य सरकार, केंद्रीय गृह-मंत्रालय और फिर राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजने की सुविधा क्यों है?’ नायडू ने यह सवाल उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद पर बैठे हुए उठाया है। नायडू दया याचिका की पेचीदगियों और उससे न्याय में होने वाले देरी को भली-भांति जानते हैं। इसके बाद हैदराबाद की कथित मुठभेड़ के बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को कहना पड़ा है कि ‘पाॅक्सो कानून के तहत दुष्कर्म के दोषियों को दया याचिका दाखिल करने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। संसद को दया याचिका के प्रावधान पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।’ लिहाजा संसद का दायित्व बनता है कि वह इस प्रश्न पर विधेयक लाए और विचार-विमर्श के बाद दया याचिका की सुविधा का रोड़ा खत्म करे। इस सुविधा का सबसे ज्यादा लाभ फांसी की सजा पाए आतंकवादी और बलात्कारी उठा रहे हैं। याद रहे देश में पहली बार 29 जुलाई 2015 को 3.20 बजे मुंबई बम धमाकों के दोषी याकूब मेमन की फांसी पर रोक लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायलय के दरवाजे खोले गए थे।दरअसल जघन्य से जघन्यतम अपराधों में त्वरित न्याय की तो जरूरत है ही, दया याचिका पर जल्द से जल्द निर्णय लेने की जरूरत भी है। शीर्ष न्यायलय ने यह तो कहा है कि दया याचिका पर तुरंत फैसला हो, लेकिन राष्ट्रपति व राज्यपाल के लिए क्या समय सीमा होनी चाहिए, यह सुनिश्चित नहीं किया। क्योंकि अक्सर राष्ट्रपति दया याचिकाओं पर निर्णय को या तो टालते हैं, या फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलते हैं। हालांकि महामहिम प्रणब मुखर्जी इस दृष्टि से अपवाद रहे हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद अफजल गुरू और अजमल कसाब की दया याचिकाएं उन्होंने ही खारिज करते हुए, इन देशद्रोहियों को फांसी के फंदे पर लटकाने का रास्ता साफ किया था। जबकि पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने या तो दया याचिकाएं टालीं या मौत की सजा को उम्रकैद में बदला। यहां तक कि उन्होंने महिला होने के बावजूद बलात्कार जैसे दुष्कर्म में फांसी पाए पांच आरोपियों की सजा आजीवन कारावास में बदली। संविधान के अनुच्छेद 72 और 161 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपालों को दया याचिका पर निर्णय लेने का अधिकार मिला हुआ है। चूंकि ये देश और राज्यों के सर्वोच्च पद हैं, इसलिए संविधान निर्माताओं ने दया याचिका पर निर्णय को समय की सीमा में नहीं बांधा। हालांकि किसी भी देश के उदारवादी लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था आंख के बदले आंख या हाथ के बदले हाथ जैसी प्रतिशोघात्मक मानसिकता से नहीं चलाई जा सकती लेकिन जिस देशों में मृत्युदंड का प्रावधान है, वहां यह मुद्दा हमेशा ही विवादित रहता है कि आखिर मृत्युदंड सुनने का तार्किक आधार क्या हो? इसीलिए भारतीय न्याय व्यवस्था में लचीला रुख अपनाते हुए गंभीर अपराधों में उम्रकैद एक नियम और मृत्युदंड अपवाद है। इसीलिए देश की शीर्षस्थ अदालतें इस सिद्धांत को महत्व देती हैं कि अपराध की स्थिति किन मानसिक परिस्थितियों में उत्पन्न हुई? अपराधी की समाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक स्थितियों व मजबूरियों का भी ख्याल रखा जाता है। क्योंकि एक सामान्य नागरिक सामाजिक संबंधों की जिम्मेदारियों से भी जुड़ा होता है। ऐसे में जब वह अपनी बहन, बेटी या पत्नी को बलात्कार जैसे दुष्कर्म का शिकार होते देखता है तो आवेश में आकर हत्या तक कर डालता है। भूख, गरीबी और कर्ज की असहाय पीड़ा भोग रहे व्यक्ति भी अपने परिजनों को इस जलालत की जिदंगी से मुक्ति का उपाय हत्या में तलाशने को विवश हो जाते हैं। जाहिर है, ऐसी स्थितियों में मौत की सजा के बजाय सुधार और पुनर्वास के अवसर मिलने चाहिए। 
देश में न्याय को अपराध के विभिन्न धरातलों की कसौटियों पर कसना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि हमारे यहां पुलिस व्यक्ति की सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक व आर्थिक हैसियत के हिसाब से भी दोषी ठहराने में भेद बरतती है। इसीलिए देश में सामाजिक आधार पर विश्लेषण करें तो उच्च वर्ग की तुलना में निचले तबके से जुड़े लोगों को ज्यादा फांसी दी गई हैं। यही स्थिति अमेरिका में है। वहां श्वेतों की अपेक्षा अश्वेतों को ज्यादा फांसी दी गई हैं। इस समय पश्चिमी एशियाई देशों में भी फांसी की सजा देने में तेजी आई हुई है। इनमें ईरान, इराक, सउदी अरब और यमन ऐसे देश हैं, जहां सबसे ज्यादा मृत्युदंड दिए जा रहे हैं।दया याचिका पर सुनवाई के लिए यह मांग उठ रही है कि इसकी सुनवाई का अधिकार अकेले राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में न हो। इस बाबत बहुसदस्यीय जूरी का गठन हो। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश, उप राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता और कुछ अन्य विशेषाधिकार संपन्न लोग भी शमिल हों। यदि जूरी में भी सहमति न बने तो इसे दोबारा शीर्ष अदालत के पास प्रेसिडेंशियल रेंफरेंस के लिए भेज देना चाहिए। इससे गलती की गुंजाइश न्यूनतम हो सकती है। एक विचार यह भी है कि राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजने का प्रावधान खत्म करके सुप्रीम्र कोर्ट के फैसले को ही अंतिम फैसला माना जाए। यह विचार ज्यादा तार्किक है क्योंकि न्यायालय अपराध की प्रकृति और अपराधी की प्रवृत्ति के विश्लेषण के तर्कों से सीधे रूबरू होती है। फरियादी का पक्ष भी अदालत के समक्ष रखा जाता है। जबकि राष्ट्रपति के पास दया याचिका पर विचार का एकांगी पहलू होता है। जाहिर है न्यायालय के पास अपराध और उससे जुड़े दंड को देखने के कहीं ज्यादा साक्ष्यजन्य पहलू होते हैं। लिहाजा तर्कसंगत उदारता अदालत ठीक से बरत सकती है।

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