राधाकृष्ण की ललित लीलाओं ने दिया आधुनिक धार्मिक चित्रों को जन्म

आत्माराम यादव पीव
ग्यारहवी ईसवी शताब्दि के आसपास के समय पहली बार मंचों से खेला गया रंगमंच या नाट्य के महाअभिनेता के रूप में श्रीकृष्ण और नायिका राधा का अवदान पा जगत उनकी ऋणी हो गया है। आचार्य रामानुुजाचार्य ने कृष्ण राधा को लेकर अनेक रूपक लिखे है जिसमें रूक्मणी स्वयंवर लिखने के बाद कंसवध लिखा किन्तु तत्कालीन समाज को इन नाटकों की प्रस्तुति से पूर्ण संतोष नहीं हुआ परन्तु भरपूर आनन्द पाने की उनकी स्वीकारोक्ति ने इस विधा में गहन संभावनाओं को पाया। तब के समाज के मन में इन दो चरित्रों को लीलारूप में देखने के बाद श्रीकृष्ण-राधा के जीवन की शेष लीलाओं को देखने की जिज्ञासा को पूर्णतृप्ति का आभास को पूर्ण संतुष्टि देने वाले पूर्वी अंचल में अवतरित गौरांग महाप्रभु थे जो श्रीकृष्ण-राधा की लावण्य लीलाओं के माध्यम से झूमते,गाते और नाचते हुये जन-जन के सामने भक्ति और ज्ञान की परमोत्कृष्टता से सबके प्रिय होते गये। यह वह समय था जब इन लीलाओं का मंचन हुआ तब कुछ चित्रकारों ने इन लीलाओं के मंचन के कुछ स्वरूप अपने मस्तिष्क मंें धारण कर उन्हें चित्र रूप में पहली बार प्रगट किया जिसे देखने के लिये अपार भीड़ जुटने लगी। तब इन चरित्रों के स्वरूपों का आधार मानकर कुछ चित्रकारों ने अपनी कल्पनाओं के पंख लगाकर राधा-कृष्ण के चित्रों को कई आयामों में चित्रित कर चित्रकारी को स्थापित किया है।
आचार्य रामानुजाचार्य के नाटकों की प्रस्तुति से बनाये गये चित्रों ने पूरे भारत में एक क्रान्ति सी ला दी और लोकमत मंें इन चित्रों के कुछ मंदिरों की दीवालों पर उकेरने के बाद भीड़ द्वारा चित्रों की पूजा शुरू किये जाने से भी रोकना असंभव सा हो गया तब यह चित्र कपड़ों आदि पर बनाने का क्रम शुरू हुआ। श्रीमदभागवत में वर्णित लीलाओं-कथाओं को प्रमुखता से लिया जाकर तब के चित्रकारों ने रूक्मणी और सत्यभामा को श्रीकृष्ण के साथ न बिठाकर राधा को कृष्ण की सहचरी के रूप में अंकित करते हुये वृन्दावन के निकंुजा वन में श्रीकृष्ण,राधा और गोपियों के मध्य नृत्य करते, रूठते, मनाते, राधा को शयन किया छोड़कर अर्धरात्रि को बांसुरी बजाते, कभी बासुरी की तान पर थिरकते, यमुना के तट पर लीलायें करते चित्रित किया। ये चित्र जब लोगों ने देखें तो वे चित्रों के दीवाने हो गये और प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को श्रीकृष्ण और युवती स्वंयं को राधा रूप में मानते हुये उन्हें अपने अंतरमन में स्थापित कर एक दीवानगी को जीने लगे। पूरे देश में जहाॅ-जहाॅ जिन जनपदों-गाॅवों में ये चित्रकारी पहुॅची वहाॅ के लोग गाॅव की चैपाल को रंगमंच बनाकर खुद राधाकृष्ण के प्रति प्रेम रखते हुये पूरी श्रद्धा ओर वात्सल्य में डूब जाते। राधाकृष्ण की चित्रकारी के इस जुनून ने असम,बंगाल, उड़ीसा, में धूम मचाते हुये वहाॅ की कीर्तन मण्डलियाॅ कृष्ण-राधा की भक्ति में विरह के रस घोलते हुये कीर्तन लोगों के संताप का नाशक बन गया। उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं मध्यप्रदेश ये सभी प्रदेश रियासतों में बॅटे हुये थे के भीतर वहाॅ के राजा और राजघराने भी रास लोक कला, संगीत, नृत्य के अभिनय से लोकजीवन मंें भक्ति की गंगा बहाने लगे और चित्रकारों का मान बढ़ने के साथ चित्रकारी सर्वोच्च शिखर पर विराजित हो गयी।
कृष्ण का जन्म भले मथुरा में हुआ किन्तु कृष्ण और राधा की उत्कृष्ट मूर्तियाॅ के वे स्वरूप जिन्हें सदियों से हमारे पूर्वज एक धरोहर मानकर पूजा-अर्चना कर पूजते आये थे उन्हें मुस्लिम लुटेरा मोहम्मद गोरी सहित अन्य आंक्रान्तों द्वारा इन मंदिरों की बेशकीमती सम्पत्ति लूटने, मंदिरों को तोड़ने के साथ मूर्तियों को भी नुकसान पहुॅचाया है। किन्तु दक्षिणभारत इनसे अछूता रहा और वहाॅ श्रीकृष्ण की उत्कृष्ट मूर्तियों और चित्रकला को आज भी देखा जा सकता है। तेरहवी शताब्दी में कर्नाटक में मैसूर के पास सोमनाथपुरम का केशवमंदिर कलाशिल्प के रूप में विख्यात है। वास्तुशिल्प और मूर्तिकला के रूप में होयसल कारीगरों ने इसका निर्माण करते समय द्रविड शैली की अपेक्षा उत्तरी शिल्पकला को प्रमुख स्थान दिया और वैष्णव भक्ति से संबंधित इस क्षैत्र के मंदिरों में विष्णु के चैबीस अवतारोंकी पूर्तियाॅ प्रायः सभी ओर देखी जा सकती है। मंदिर के तोरणों में या भित्तिचित्रों में श्रीकृष्ण के विविभन्न स्वरूप की कृतियों में कालियनाग का वध, गोवर्धन उठाते श्रीकृष्ण,वेणु गोपाल के रूप मे बंजी बजात दिख जायेंगे। इन मंदिरों के शिल्पी होयसल स्वयं ही वास्तुविद भी थे जो मंदिरों की डिजाईनों में बहुरूपता को उकेरने में सिद्धस्थ थे। तेरहवीशदी के त्रिकुटाचल मंदिर में वैष्णव वास्तुकला और शास्त्र सिद्धि का प्रमाण है जहाॅ इन कलाकारों के द्वारा अपनी उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचय दिया। केशवमंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण विभिन्न लीलाओं में कृष्ण-केशी असर का युद्ध सहित वृन्दावन के निकुंजों के प्राकृतिक दृश्य को चित्रण ऐसा लगता है मानो आप स्वयं केशव मंदिर में न होकर वृन्दावन के निकुंजवन मंें मौजूद हो। महाभारतीय शिल्प के दृश्यों में श्रीकृष्ण के सारथी रूप में श्रीकृष्ण का कलंगीदारमुकुट है जहाॅ वे पीछे की ओर मुख किये अर्जुन को समझा रहे है चित्र अंकित है।
राधाकृष्ण के चित्रों में जो श्रृंगार और भक्ति का सामंजस्य देश दुनिया के लोग देखते है वह अनेकों भक्तों की भावनाओं का पुष्पगुच्छ है। जयदेव द्वारा लिखित गीतगोविन्द के पदों में मृदंग की थाप पर नृत्यांगनाओं के घुंघरू भी जी जाते है और जगन्नाथपुरी के मंदिर व नदियाद ही नहीं बल्कि पूरे बंगाल, असम और ओडसी की भूमि गोविन्दमयी बन जाती है। इसी श्रृंखला में वल्लाभाचार्य, चण्डीदास, विद्यापति, चन्द्रसखि, सूरदास,नन्ददास, कबीरदास, रैदास, मीराबाई और अष्टछाप के अन्य कवियों ने अपनी काव्यकाकली के माध्यम से हरपुरूष-नारी के मन में निगूढ राधाकृष्ण के अलावा किसी ओर को झाॅकने नहीं दिया। जयदेव के गीतगोविन्द और श्रीमदभागवत के कृष्ण चरित्रों पर तब दुनिया भर के चित्रकार चित्रकारी के लिये आकृष्ट होकर आने लगे और तब दुनिया के सामने इन चित्रों को कलाकार की दृष्टि से पहचाने के लिये अनेक चित्रकारों द्वारा बनाये जाने के कारण चित्रसॅख्या देकर उन चित्रों की गुणवत्ता एवं लोकप्रियता को स्थान दिया गया।
बीकानेर के राजकीय संग्राहालय में सत्रहवी शताब्दी के शुरूआत में गीतगोविन्द पर आधारित चित्रों को आज भी सुरक्षित रखा गया है जिसमें गीतगोविन्द के उस प्रसंग को लिया है जिसमंें -’श्रीकृष्ण राधा के घर बरसाने गये हुये है जहाॅ खेलते खेलते अंधेरा होे जाता है तब नन्दबाबा कहते है कि देखों राधा बादल छा रहे है, अंधेरा हो गया है, कृष्ण को जंगलसे डर लगता है, रास्ते में तमाल के पेड़ों के कारण अंधेरा हो गया है तुम कृष्ण को घर पहुॅचा दो। कृष्ण आयु में राधा से छोटे है और राधा बड़ी है। राधा नंदबाबा के आदेश का पालन कर कृष्ण को घर पहुॅचाने निकल पड़ती है, रास्ते में प्रणयकेलि में दोनों निमग्न हो जाते है। इस दृश्य को चित्रकारने अपनी कूची से बनाकर अमर कर दिया। इस चित्र में नीचे यमुना जी प्रवाहित हो रही है, जल में मीन और पक्षी तैर रहे है, तट पर तमाल के पेड़ है। पाश्र्व में गोविन्द को बछड़ांें के साथ एक ग्वाला हाॅके जा रहा है। ऊपर पाश्र्व में दोनों और महल बनाये है जिसमें वाम पाश्र्व में राधा का तथा दक्षिण मंें कृष्ण का घर है। दोनों के मध्य सघन वृक्ष लगे है जिसके नीचे नन्द कृष्ण और राधा है। नन्द की वेशभूषा सत्रहवी सदी के राजस्थानी किसान की है, राधा घांघरा ओढ़नी पहने है, कृष्ण के मस्तिष्क पर मुकुट जैसी टोपी है। इस पूरे दृश्य को सूक्ष्मतम विवरण केसाथ चित्रकार ने उभारा है। दाहिनी पाश्र्वमें राधाकृष्ण प्रणय आलिंगन में चित्रित किये ये है। चित्र इतना भव्य एवं आकर्षक है जिसे देखते ही किसी की भी नजर उससे नहीं हटती।
पाकिस्तान के लाहौर संग्रहालय में श्रीकृष्ण राधा के अनेक दुर्लभ चित्र लोगों को आकर्षित करते है वहीं लंदन के विक्टोरिया एण्ड अलबर्ट म्युजियम में गीत गाविन्द पर आधारित 15 वीं सें 18 वी शदी के अनेक प्रथम दर्जे के उत्कृष्टतम चित्र इस संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहे हैं। दिल्ली के नेशनल म्युजिम में अठारवी शताब्दी के दक्षिणी शैली के कृष्ण-गोपी चित्रों पर कापी लिखा जा चुका है। इन मोहक चित्रों में एक चित्र दुर्लभ है जिसमें एक सफेद गाय कृष्णके पावॅ अपनी जीभ से चाट रही है और बायें पाश्र्व में दो श्यामरंग की गायें ऊपर की ओर मुॅह उठाये है। इसमें कृष्ण और गोपियाॅ ब्रजपरिधानों से सुशोभित है। इसी प्रकार के अनेक श्रेष्ठ चित्र न्यूयार्क के मेट्रोपालिटन म्युजियम में रखा गया है जो 16 सौ ईसवी का गोवर्धन धारण का दुर्लभ बहुरंगी मनोरम चित्र है वहीं दूसरा दुर्लभ चित्र सत्रहवी सदी के दो चित्र है जो आसाम के है। कहते है अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजों द्वारा देश के बहुमूल्य चित्र जो सार्वजनिक मंदिरों में आस्था के केन्द्र थे उन्हें सहित अनेक विरासतों के राजाओं के महल से निकलवाकर लंदन पहुॅचाया है जो उनकी धरोहर बने हुये है। इसके अलावा हमारे देश के अनेक भागों में, संग्रहालयों में देश की विभिन्न शैलियों के काष्टचित्र, कूचिका चित्र जिसमें रासलीला के विभिन्न प्रखर रंग और पात्रों की भूमिका अभिव्यक्त है वह देखने को मिल जायेंगे जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि हमारे देश में देवी-देवताओं सहित, राधाकृष्ण सीताराम, शिवपार्वती, लक्ष्मी नारायण आदि के चित्रों का प्रकाशन ग्यारहवी शताब्दी के बाद शुरू हुआ तब तक इनकी मूर्तिपूजा को भी स्थान नहीं मिला था। बारहवी शताब्दी के बाद 18 वीं शताब्दी तक देवी देवताओं एवं भगवान के विभिन्न स्वरूपों-अवतारों के चित्रों के प्रकाश में आने के बाद उनका प्रिन्टिंग प्रेस के माध्यम से चित्रों के आधुनिक स्वरूप और ललित लीलाओं की परिकल्पनाओं को साकार करते प्रकाशन शुरू हुआ जो आज हमारी श्रद्धा और आस्था का प्रमुख स्थान पाकर व्यवसायिक स्वरूप ले चुका है जिसमें हम इन पूजनीय अवतारों-अंशों की भक्ति का प्रमाद तो करते है पर इन चित्रों को अपने पैरों तले रौंदने के लिये अखबारों में प्रकाशित कर उनका अपमान करने वाले भी हम ही है, जो इस दिशा में आॅखें बद कर धर्म की खुमारी में डूबे धर्म को रसातल में ले जाने का तत्पर है और हमारी दशा उस लकड़हारे जैसी बना ली है जो जिस डाल को काट रहा होता है, उसी डाल पर बैठकर कुल्हाड़ा चलाता है, परिणामस्वरूप वह डाल सहित जमीदोश हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह विचारणीय है कि एक ओर ऐसे लोग है तो दूसरी और मूल चित्रकारी के स्वरूपों से भटके वे प्रिन्टिंग प्रेस वाले है जो राधा-कृष्ण के चित्रों को चित्रपट के कलाकारों के अभिनय में अपने अंगों की मादकता से गंदगी फैलाते है, वे भी ऐसे चित्र प्रकाशित करने धर्म और आस्था पर चोट पहुॅचाते है जो राधाकृष्ण के कामोद्दीपकताको व्यक्त करते हुये उनके हर अंग की मांसलता व्यक्त कर भोंड़ास्वरूप प्रस्तुत कर अपनी तिजौरिया भर रहे है, इनसे और बेबजह अखबारों छपवाकर पैरों से रोंदे जाने वालों से हमें अपने राधाकृष्ण,रामसीता सहित सभी स्वरूपों को मुक्त करना होगा तभी इन चित्रों को मन में आत्मसात कर भक्ति को सार्थक किया जा सकेगा, जो आज की पहली जरूरत है।

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