राजनीति

क्या अंतर है राहुल व वरुण की राजनैतिक दृष्टि में?

-तनवीर जाफरी

स्वर्गीय इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र संजय गांधी की पुण्यतिथि के अवसर पर गत् 23 जून को देश ने उन्हें याद किया। देश के तमाम टी वी चैनल्स तथा समाचार पत्र संजय गांधी के राजनैतिक दृष्टिकोण, उनकी कार्यक्षमता, उनकी कार्यशैली तथा उनकी विशेषताओं पर चर्चा में लगे रहे। उनके साथ कार्य कर चुके लोगों के साक्षात्कार सुनकर तथा राजनैतिक भविष्यवक्ताओं के कथनों को सुनकर आम आदमी इसी नतीजे पर पहुंचा कि देश की वर्तमान उथल-पुथल तथा गठजोड़ की राजनीति के दौर में आज यदि संजय गांधी होते तो देश की राजनीति की दिशा और दशा कुछ और ही होती। इत्तेफाक से मैं भी देश के उन चंद लोगों में से हूं जिसे संजय गांधी को बहुत करीब से देखने, सुनने तथा उनके साथ कुछ समय बिताने का कई बार अवसर मिला है। यहां यह भी बताता चलूं कि मैंने संजय गांधी के व्यक्तित्‍व से ही प्रभावित होकर अपने जीवन का पहला आलेख संजय गांधी के व्यक्त्वि एवं कृतित्व के विषय में जितना मैंने देखा व समझा, लिखा था। यह आलेख 28 जून 1980 को इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले दैनिक भारत अंखबार सहित देश के और कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था। इसी आलेख के प्रकाशन के बाद लेखन के क्षेत्र में मेरी हौसला अफजाई हुई तथा तब से लेकर आज तक इस क्षेत्र मे निरंतरता बनी हुई है।

बहरहाल मैं ही नहीं पूरा देश जानता है कि संजय गांधी जो कहते थे वही करने पर विश्वास करते थे। हम देखेंगे, हमें देखना है, सोचेंगे, बात करेंगे, कोशिश करेंगे, कह देंगे जैसी आमतौर पर राजनीतिज्ञों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली टालमटोल जैसी शब्दावली तो उनके पास थी ही नहीं। फौरन फैसले लेना और सख्त फैसले लेना उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी। पारंपरिक पेशेवर राजनीतिज्ञों को भले ही उनकी यह अदा रास न आती रही हो परंतु उस समय देश का युवा जरूर यह महसूस कर रहा था कि वास्तव में देश को संजय गांधी जैसा वह नेतृत्व चाहिए जो किसी भी समस्या का तत्काल एवं सार्थक समाधान निकाल सके। और युवाओं को उस समय निश्चित रूप से संजय गांधी में वह गुण दिखाई दे रहे थे। गत् तीन दशकों में देश की राजनीति ने कई महत्वपूर्ण करवटें बदली हैं। संजय गांधी की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी तथा संजय की विधवा मेनका गांधी के बीच संजय गाधी की विरासत को लेकर मनमुटाव हुआ। मेनका गांधी संजय के मरणोपरांत तत्काल ही संजय गांधी की राजनैतिक विरासत हासिल करने के लिए इंदिरा गांधी पर दबाव बना रही थी। परंतु निर्गुट राष्ट्रों का नेतृत्व कर चुकने वाली तथा दूरदूष्टि की राजनीति में पूर्ण कौशल रखने वाली इंदिरा गांधी ने मेनका गांधी को संजय गांधी का राजनैतिक वारिस बनाना तो दूर उल्टे उन्हें प्रधानमंत्री निवास से बाहर का रास्ता दिखा दिया।

मेनका गांधी ने इंदिरा गांधी का घर छोड़कर वही किया जिसकी इंदिरा गांधी को उम्मीद थी। यानि संजय विचार मंच नामक राजनैतिक संगठन बनाकर देश में संजय गांधी के समर्थकों को संजय की विधवा होने के नाम पर भावनात्मक रूप से अपने साथ अपनी ओर खींचने का काम किया। परंतु राजनीति भावनाओं से कम, समीकरणों के आधार पर तथा भविष्य के नफे-नुकसान का मापदंड बनाकर अधिक चलती है। उस समय अकबर अहमद डम्पी जैसे कुछ उस समय के नासमझ परंतु वफादार से कहे जा सकने वाले राजनीतिज्ञों ने संजय गांधी के प्रति वफादारी का हक निभाते हुए मेनका गांधी का साथ देकर अपना राजनैतिक कैरियर भी बरबाद कर डाला। ख़ैर इसके बाद इंदिरा गांधी की भी हत्या हो गई। समय ने संजय गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी को पॉयलट की नौकरी छोड़कर राजनीति में सक्रिय होने का अवसर दे ही दिया था। वे संजय गांधी के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी से भारी मतों से 1981 में चुनाव जीत चुके थे। कुछ ही समय बाद 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की भी हत्या हो गई। अब वक्त ने राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री बना दिया।

इधर एक ओर कांग्रेस को सत्ता में बनाए रखने के लिए तथा देश में कांग्रेस पार्टी की नीतियों को लागू करने के लिए इंदिरा गांधी, संजय गांधी उसके बाद राजीव गांधी तथा राजीव गांधी की भी हत्या के बाद नरसिम्हा राव और उसके बाद सोनिया गांधी तथा डा. मनमोहन सिंह जैसे नेता सक्रिय रहे तो उधर दूसरी ओर मेनका गांधी ने कांग्रेस की धुर विरोधी नीतियों वाली भारतीय जनता पार्टी से महा इसलिए अपना रिश्ता कायम कर लिया ताकि वह समय-समय पर कांग्रेस पार्टी व उसकी नीतियों को चोट तथा क्षति पहुंचाकर अपनी भड़ास भी निकाल सके तथा स्वयं पर संजय गांधी की विधवा होने का लेबल लगाकर उसका भरपूर राजनैतिक लाभ उठाकर अपनी राजनैतिक इच्छाओं की भी पूर्ति कर सके। इन तीन दशकों के दौरान मेनका गांधी ने अपने पुत्र वरुण गांधी की भी परवरिश की। मेनका गांधी ने इंदिरा-नेहरु घराने की बहू होने के बावजूद वरुण गांधी को कैसे संस्कार दिए हैं यह भी देश के सामने है। जहां संजय गांधी के करीबी सहयोगियों में गुफरान-ए-आजम, असलम शेर खां, अकबर अहमद डंपी, गुलाम नबी आजाद तथा तारिक़ अनवर जैसे लोगों के नाम सुनने को मिलते थे वहीं वरुण गांधी लोगों के हाथ-पैर काट देने जैसे वाक्यों का उल्लेख अपने भाषणों में करते फिर रहे हैं। जहां संजय गांधी झूठे वादों से तथा झूठे आश्वासनों से सख्त नंफरत करते थे, वहीं मेनका गांधी के संस्कारों में पला बढ़ा उनका लाडला वरुण गांधी उत्तर प्रदेश में बेरोजगारों को 10-10 लाख रुपये का लोन वह भी कुछ अवधि तक बिना ब्याज के, दिलाए जाने का प्रलोभन देता फिर रहा है।

संजय गांधी जहां परिवार नियोजन और वृक्षारोपण जैसी देश, दुनिया के कल्याण व पर्यावरण संबंधी योजनाओं की घोषणा करते थे तथा उनपर अधिक से अधिक अमल किए जाने का प्रयास करते थे, वहीं उनके पुत्र वरुण जी उत्तर प्रदेश में घूम-घूम कर यही घोषणा कर रहे हैं कि प्रत्येक गांव में एक मंदिर का निर्माण किया जाएगा तथा पुराने मंदिरों का जीर्णोंध्दार भी किया जाएगा। कुल मिलाकर वरुण गांधी न केवल भारतीय जनता पार्टी के फायर ब्रांड नेता के रूप में स्वयं को स्थापित करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं बल्कि उनकी इन कोशिशों को परवान चढाने में भाजपा के तथाकथित राष्ट्रवादी संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा विश्व हिंदू परिषद् भी उन्हें निर्देशित करने में जी जान से लगे हुए हैं। ऐसी ही सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की एक घटना के सिलसिले मे वरुण गांधी उत्तर प्रदेश में जेल भी जा चुके हैं। हालांकि उनकी मां मेनका गांधी ने उनकी इस सांप्रदायिक पूर्ण जेल यात्रा को भी कुछ इस प्रकार भुनाने की कोशिश की गोया वह सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के सिलसिले में नहीं बल्कि अंग्रेजों क़े खिलांफ स्वतंत्रता संग्राम में लड़ते हुए जेल गए हों। बहरहाल वरुण की इस गिरंफ्तारी ने तथा फायर ब्रांड बनने की उनकी चाहत ने उन्हें सांसद तो बना ही दिया।

उधर इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ाने वाले राजीव गांधी के पुत्र राहुल गांधी भी परिस्थितियों वश राजनीति में सक्रिय हो चुके हैं। वे दो बार अमेठी से सांसद भी रह चुके है। वे भी राजीव गांधी तथा सोनिया गांधी से मिले संस्कारों के अनुरूप पूरे देश का दौरा कर कांग्रेस को माबूत करने में लगे हुए हैं। वे भी आम लोगों के बीच जाते हैं, दलितों व गरीबों के घर रात बिताते हैं,वहीं खाना खाते व उनकी रहन-सहन की शैली देखकर भविष्य की योजनाएं बनाते हैं। अपने प्रधानमंत्री पिता राजीव गांधी की ही तरह उन्होंने भी वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था में इस बात को स्वीकार किया है कि सरकार द्वारा जनता के लिए भेजे गए एक रुपए में से केवल पंद्रह पैसा ही आम जनता के हाथों में पहुंचता है। राहुल इस कोशिश में हैं कि किसर प्रकार जनता का पूरा का पूरा हंक उस तक पहुंचाया जाए। देश के युवाओं व छात्रों के मध्य जाकर उनसे सुदृढ भारत के निर्माण में सहयोग देने की वे अपील करते हैं। राहुल गांधी के एजेंडे में अल्पकालीन लाभ पहुंचाने वाली अथवा भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने वाली या दस लाख रुपये लोन देने अथवा गांव-गांव मंदिर-मस्जिद का निर्माण कराए जाने जैसी कोई भी थोथी अथवा मत आकर्षित करने वाली योजना नहीं है। राहुल गांधी वरुण की तरह भगवा वस्त्र धारण कर स्वयं को हिंदुत्व का ध्वजावाहक बताने में भी कोई गौरव महसूस करना नहीं चाहते। इसके बजाए वे आमतौर पर अपने पिता व चाचा से विरासत में मिले शांतिप्रिय सफ़ेद रंग के कुर्ते पायजामे ही धारण करते हैं।

राहुल तथा वरुण की इन्हीं अलग-अलग राजनैतिक दृष्टियों ने देश के युवाओं के मध्य दोनों की अलग स्वीकृति के लक्षण प्रदर्शित किए हैं। राहुल गांधी को यदि देश के भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है तो भाजपा, मेनका गांधी तथा स्वयं वरुण गांधी इस बात के लिए पूरा ज़ोर लगा रहे हैं कि किस प्रकार उत्तर प्रदेश राज्‍य की सत्ता पर नियंत्रण हासिल किया जाए। ख़बर है कि भाजपा ने भी वरुण गांधी को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाए जाने जैसा लॉली पॉप दिखा रखा है। यही वजह है कि वरुण गांधी अन्य राज्‍यों के बजाए उत्तर प्रदेश में ही अपना अधिक समय लगा रहे हैं। जहां तक जनता से 10 लाख रुपये देने या ऐसे अन्य वादे किए जा रहे हैं उसकी प्रेरणा भी इन्हें छत्तीसगढ़ तथा आंध्रप्रदेश जैसे उन राज्‍यों से मिली है जहां सस्ते चावल देकर सत्ता में आने के रास्ते खुल जाते हैं। तमिलनाडु में भी करुणानिधि ने धोती साड़ी तथा रंगीन टी वी बांटकर सत्ता में अपनी वापसी सुनिश्चित की थी। परंतु इन सब बातों से अथवा ऐसी नीतियों से न तो मतदाताओं को दीर्घकालीन लाभ मिलने वाला है, न ही इससे देश का कोई कल्याण होने वाला है। बहरहाल राहुल गांधी तथा वरुण गांधी की उपरोक्त अलग-अलग प्रकार की राजनैतिक सोच हमें यह जरूर दर्शाती है कि इन दोनों की ही राजनैतिक दृष्टि में जमीन-आसमान का अंतर है।