आंसुओं के घरौंदे लरजने लगे….
सुरेश नीरव
सुबह-सुबह सहारा चैनल से धीरज चौहान का पहला फोन आया कि सुप्रसिद्ध कथाकार राजेन्द्र यादवजी नहीं रहे आप आन लाइन रहिए आपसे बात करनी है। हतप्रभकारी सूचना थी ये मेरे लिए। बात ख़त्म की ही थी दूसरा फोन फिर राजेन्द्रजी के बारे में शोक संदेश के लिए फोन 4 रीयल न्यूज चैनल से प्रदीप वर्मा का आ गया। यादों की एक रील मेरे दिमाग में घूम गई। अपनी जिंदगी में शुरू से आखिर तक पहला और अंतिम कवि सम्मेलन उन्होंने प्रवासी संसार द्वारा आयोजित और संपादक राकेश पांडे के मार्फत उन्होंने कौशांबी के राजपथ रेसीडेंसी में होली के मौके पर सुना था। जिसका संयोगवश संचालन मैंने ही किया था। राजेन्द्रजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि कविसम्मेलन को लेकर मेरे मन में कई पूर्वग्रह थे। इसलिए कभी सुनने मैं कभी गया ही नहीं। आज लगा कि मैंने जिंदगी के एक बहुत बड़े तजुर्बे को मिस किया। सामाजिक सरोकारों से लैस आज जो रचनाएं मैंने सुनी हैं ये रचनाएं आज के दौर की जरूरी कविताएं हैं। इन्हें मंचीय कविताएं कहकर खारिज़ नहीं किया जा सकता। फिर एक लंबे अंतराल के बाद साहित्य अकादमी में बिस्मिल फांउडेशन द्वारा अरविंद पथिक के संयोजकत्व में छत्तीसगढ़ के कथाकार गिरीश मिश्रा के पुस्तक-लोकार्पण में उनसे मिलना हुआ। मैं इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहा था। हमेशा किसी-न-किसी विवाद में घिरे रहने के शौकीन राजेन्द्रजी ने मुझे अपनी वाणी का प्रशंसात्मक दुलार देकर सभागार में उपस्थित सभी लोगों को चकित-विस्मित कर दिया। मुझे कहां एहसास था कि नीर-क्षीर विवेचना की हंस प्रतिभा के धनी राजेन्द्रजी हमें अपना बनाकर अचानक यूं चले जाएंगे।
हिंदी कहानी को परंपरा के पिंजरे से निकालकर सोच के नए आकाश में उड़ने का हौंसला देनेवाले राजेन्द्र यादव का निधन हिंदी साहित्य की एक अपूर्णीय क्षति है। वे हिंदी की नई कहानी आंदोलन की त्रयी मोहन राकेश-कमलेश्वर -राजेन्द्र यादव के आख़िरी स्तंभ थे.जो आज हमसे विदा हो गए। एक इंच मुस्कान,सारा आकाश जैसी तमाम कथाकृतियों और हंस जैसी पत्रिका के कुशल संपादन के लिए वे एक लंबे समय तक याद किए जाएंगे।
मैं आंसुओं की शक़्ल में अपना एक शेर उन्हें समर्पित करता हूं-
ये ख़ुमार आपके ही ख़यालों का है,जिसकी ख़ुशबू से मौसम महकने लगे
दर्द की आंख में ख़्वाब उतरा है फिर,आंसुओं के घरौंदे लरजने लगे।