राजनीतिक दल मुफ्तखोरी की संस्कृति की नीति अपनाने से बाज आएं

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वक्त का तकाजा है, लोकतांत्रिक व्यवस्था को राजनीतिज्ञों ने ताक पर रख रंगरलियाॅ मना रहें है, देश की आजादी के सात दशकों बाद भी चुनावी जुमले से सत्ता की शरणगाह में पनाह प्राप्त कर मलाईयाॅ चाट रहंे है, और जनता जुमले की पूर्ति की तरफ टकटकी लगा बैठी है। यह सत्ता की मदान्धता है, कि चुनावी बेला में संसदीय व्यवस्था की गरिमा को ढेंगा दिखाकर केवल सत्ता के गलियारे में रसोस्वादन का भंजन जनता के विकास के नाम पर चल रहा है। वरना आजादी के सात दशक के बाद भी जनता को चुनावी लोलीपोप और उन्हीं घिसी-पिटी घोषणा-पत्रों के तले पुनः नहीं दबना पड़ता, जिसका हश्र पिछले 70 सालों में वही रहा, और जनता किसान बेबस और लाचार मालूमात पड़ते है। जनता मत को लोकतांत्रिक अधिकार और देश के प्रति वफादारी का फर्ज अदा करते हुए मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती है, मगर सत्ता के आदी हो चुके, सियासतदां अभी भी देश की जनता को लोकतांत्रिक पनघट पर घी, चावल, और मूलभूत सुविधाओं को प्रदान करने के तथाकथित विषयों पर छलते आ रहे है।

कहां गई विकासवाद का परचम, देश को विकसित देशों की श्रेणी में कतारबद्व करने को सोच, वर्तमान पांच राज्यों के चुनावी जुमलों को देख यही प्रश्न जेहान को कुरेद रहा है। क्या सत्ता प्राप्ति का जरिया मात्र रह गया है, चुनावी घोषणा-पत्र। देश की अर्थव्यवस्था को दो अंकों की फेहरिस्त में सम्मिलित करने की स्थिति इसी बात से उभरेगी? जब देश में स्वरोजगार, ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी ही नहीं बचेगी, यह विश्लेषित करना जरूरी नहीं हो सकता, यह विचरणाीय विषय बन जाता है। आजादी के कुछ वर्षों पूर्व ही हरित क्रांति का दौर दूसरी पंचवर्षीय योजना मंे चालू की गई, उस परिवेश में दलहन और मोटे अनाजों के उत्पादन में शीघ्र बढ़ोत्तरी हुई, उसके पश्चात् दुग्ध व्यवसाय में तेजी लाने की मियाद में आॅपरेशन फ्लड़ की शुरूआत हुई, फिर वर्तमान परिवेश में ऐसी कौन सा दीमक देश और प्रदेश की व्यवस्था को छलनी कर रही है, कि जब युवाओं के सामने बेरोजगारी, पंजाब में ड्रग्स और शराब की जड़ को समूल नष्ट करने की आवश्यकता है, तब राजनीतिक दल दूध, चावल, घी की मियाद पर जनता को पुनः ढगने की रणनीति तैयार कर चुके है, यह लोकतंत्र की शर्मिंदिगी का विषय होना चाहिए।

वर्तमान दौर की सत्ता लालसा की चिंगारी इतनी प्रस्फुटित हो चुकी है, सत्ता के रसोस्वादन के लिए जनता और व्यवस्था को अपंगु बनाने की राजनीति चल रही है। राजनीतिक दलों की बही-खाते से सामाजिक सुधार, ग्रामीण जीवन के पुर्नात्थान की प्राथमिक जिम्मेवारियाॅ नदारद हो चुकी है, बिना मेंहदी लगे ही हाथ पीले करने की फिराक में सभी जुट चुके है। राजनीतिक दलों को चुनावी घोषणा-पत्रों के माध्यम से जनता को मुफ्तखोरी की लत से बचाने की जगह उसकी गिरफ्त में कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने में लगे है। लोकतंत्र में लोगों को लुंज बनाना ही राजनीतिक कत्र्ता-धत्र्ताओं की मिसाल है? अपना हित साधना नही सर्वव्यापी हो चला है? रोजगार सृजन, छोटे-लघु उद्योगों के विकास की तरफ किसी दल का रूख दीप्तमान नहीं हो रहा है, सिर्फ विवषता के बल पर सत्ता का रस चखना ही अंतिम उद्देश्य मालूमात पड़ता है।

फिर इस घड़ी में चुनाव आयोग को अपनी कत्र्तव्यपरायणता का परिचय देना होगा, राजनीतिक दलों की इस लबोलुवाब मनसूबा पर लगाम लगाना होगा, और उनपर दवाब बनाना होगा। किसानों को उनकी पूंजी नसीब नहीं होती, कि देश के सामने चुनौती रोजगार सृजन लोककल्याणकारी नीतियों और बदहाल ग्रामीण कृषि व्यवस्था और चिकित्सा व्यवस्था में सुधार और पुर्नात्थान की नितांत फिक्रमंद होने की जरूरत है, चुनावी जुमलें में घी, चावल लैपटाॅप के एलान से देश की जनता को मुफ्तखोरी की लत के आदी बनाने और अपने हित साधन की जरूरत नही। वर्तमान पांच राज्यों के चुनावी महफिल में जमकर चुनावी घोषणा-पत्र के नाम पर लोकलुभावन और तदर्थवाद से प्रेरित वादे किए गए है। आज राजनीतिक परिपाटी का मुफ्त प्रदान करने का हिस्सा बन गया है, लेकिन इन कोरे मुफ्त वादों की जमीनी सतह पर उतरती ही नही। मुफ्त बिजली का वादा, घी, चावल और अत्याधुनिक तकनीक से जुड़ने के लिए इलेक्ट्राॅनिक सामानों का वादा किया जा रहा है। आजादी से आज तक के इतिहास में इन चुनावी वैतरणी का कोई ठोस फल जनता को प्राप्त होता नहीं मिलता, और बाध्य करने की तिकडम लगाने की जुरूत भी किसी संस्था ने न के बराबर की।

जब देश में किसान आत्महत्या बढ़ रही है, कुपोषण, एनीमिया जैसी समस्याओं से देश गर्त की तरफ बढ़ रहा है, फिर विचरणीय तथ्य यह होता है, देश को मुफ्त की इन वस्तुओं से राहत मिलेगी, कि व्यवस्था में उचित बदलाव से। उत्तरप्रदेश में कुपोषण, शिक्षकों की भारी कमी, बुन्देलखण्ड़ में गर्मियों में पानी की कमी और समूचे सूबे में बिजली की समस्या से जनता को दो-चार होना पड़ता है, और राजनीतिक दल मुफ्त में प्रेषर कुकर और मुफ्त बिजली देने का शगुफा हवा में उड़ाते है। क्या लोगों को नहीं पता कि कुछ हिस्से तक बिजली मुफ्त में दी जा सकती है, परन्तु पूर्णतः मुफ्त नही, फिर इन खोखले वादों पर चुनाव आयोग को शक्ती से कदम उठाने की जरूरत महसूस होती है। किसानों के कर्ज माफ की बात की जाती है, लेकिन यह सर्वविदित है, कि उत्तरप्रदेश के गन्ना किसानों को उनकी पूंजी नसीब नहीं होती, फिर जरूरत किसानों को सबल बनाने की है, उन्हें निर्बल कर रौंदने की नहीं।

आज पंजाब जो घी, दूघ, अन्न से परिपूर्ण था, उसके लोगों को मुफ्त में राजनीतिक पार्टियों यह वस्तुएं बॅटाने की बात करती है, फिर राजनीतिक विसंगति और लोकतांत्रिक व्यवस्था के हनन की बात सामने आती है, आखिर आजादी के सात दशक में व्यवस्था उन्नति के शिखर को छूने के बजाय कहां पहुंच गई, कि राजनीतिक दलों को सूबे में मुफ्त की वस्तुएं बंटने की नौबत आ गई। यह हमारे लोकतंत्र की अथाह बिडांबना ही कही जा सकती है, कि देश उन्नति की ढींगे मार रहा है, और सत्ता पिपासु जनता को मूलभूत सुविधाओं के नाम पर ही अपने गिरफ्त  में जकड़े रहना चाहते है। देश ने आजादी के 70 वर्षों में यह कैसी खाई को भरा कि आज सूबांे में प्रेशर कुकर, घी, चावल जैसे वादों के भरोसे सत्ता की चाबी हथियाने की साजिश हो रही है। फिर काहे का प्रगति और विकास।

सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर से इन राजनेताओं ने आंसू कढाने की जुगत ढ़ूढ ली है, और जनता के बीच जुमलों के मध्य ही सत्ता, सिंहासन प्राप्ति का हल ढूंढ लिया है, जिस तंत्र को लोकतांत्रिक व्यवस्था में नष्ट करना होगा। विकास और रोजगार सृजन पर जोर देने  के लिए बाध्य करना होगा। चुनाव आयोग को भी चुनावी घोषणा पत्र की निगरानी रखनी होगी, और सत्ता में आने पर तय सीमा के भीतर वादों को पूरा करने का दबाव डालना होगा, और निगरानी तंत्र विकसित करना होगा, तभी लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनावी घोषणा पत्रों का कुछ सफल अर्थ निकलकर सामने आ सकता है। इसके साथ राजनीतिक दलों को घोषणा-पत्रों को मुफ्तखोरी का संस्कृति दस्तावेज बनाने की बजाय सामाजिक सुधार और पुर्नात्थान पर बल देना होगा।

महेश तिवारी

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