राजसत्ता पर नैतिकता का अंकुश भा. (१)

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chanakyaडॉ. मधुसूदन

(एक) विषय की आंशिक झाँकी
ॐ ==> “जनपद के बाहर छोटी कुटी में रहकर यजन (यज्ञ -हवन )-क्रिया करने वाले ब्राह्मणों को अपने समय की राजनीति की इतनी अधिक चिन्ता रहती थी, जितनी कदाचित और किसी को न रहती होगी।”
ॐ ==> “वह  चाहे तब राज-सभा में पहुंचते,और, राजा को परामर्श देते, उसे बतलाते थे कि तुम्हारे शासन में अमुक अमुक दोष हैं।”
ॐ===> राजसत्ता पर, इस धर्मसत्ता का, वा ऋषि सत्ता का, अंकुश रहा करता था।

कुछ उदाहरण: शिवाजी पर स्वामी रामदास का प्रभाव , चंद्रगुप्त पर चाणक्य का प्रभाव, अर्जुन पर कृष्ण का प्रभाव।
विषय को, विवरण सहित जानने के लिए आगे पढें।

सूचना:(१) इस आलेख में धर्म=नीति, और ब्राह्मण=ब्राह्मणत्व या ब्राह्मण्य होता है। और इसके, कुछ उद्धरण मूल ऐतिहासिक पुस्तकों से लिए गये हैं।
संदर्भ ग्रंथ
(क) प्राचीन भारत- राधाकुमुद  मुखर्जी,
(ख) प्राचीन भारत में जनमत –डॉ. विजयेंद्र शर्मा
(ग) मृत्युंजय भारत —श्री. बाबा साहब आपटे
(घ) राष्ट्र जीवन की दिशा–पं.दी. उपाध्याय  

(दो) “प्राचीन भारत में जनमत” ऐतिहासिक उदाहरण:
“प्राचीन भारत में जनमत”–(इतिहास)–के लेखक, डॉ. विजयेन्द्र शर्मा- (पृष्ठ ६४ पर लिखते हैं।)
“समाज और राज्य के अंदर तथा जनपद के बाहर छोटी कुटी में रहकर यजन-क्रिया करने वाले ब्राह्मणों को अपने समय की राजनीति की इतनी अधिक चिन्ता रहती थी, जितनी कदाचित और किसी को न रहती होगी।”
“जातकों में स्थान स्थान पर ऐसे ब्राह्मणों का उल्लेख मिलता है जो धर्मशास्त्र और अर्थ-शास्त्र दोनोंके ही समान रूप से पण्डित हुआ करते थे।”
“रामायण और महाभारत आदि के वशिष्ठ और वामदेव उन्हीं लोगोंमें से थे जो, जब चाहते थे, तब राज-सभा में जा पहुंचते थे, राजा को परामर्श देते थे और उसे बतलाते थे कि तुम्हारे शासन में अमुक अमुक दोष हैं।
“वही लोग थे जो रामायण में पौर जनपदों के नेताओं को अपने साथ लेकर युवराज के अभिषेक के सम्बन्ध में राजा को राष्ट्र का निर्णय बताने के लिए गये थे और राजा उन्हें तथा पौर जनपदों को राजन या शासक कहकर सम्बोधित  करता था।”

(तीन ) ब्रह्मतेज-मण्डित ब्राह्मण।
लेखक स्मरण दिलाना चाहता है, कि, हमारी,ऐसे ब्रह्मतेज युक्त ब्राह्मणों को “महाराज” अभिधान से सम्बोधन करने की परम्परा का यही मूल प्रतीत होता है।
राजा तो राजा ही था,  पर ऐसा ब्रह्मतेज-युक्त ब्राह्मण तो महाराज कहलाया जाता था।
जब ऐसे ब्रह्मतेज युक्त व्यक्तित्व राज सभा में प्रवेश करते, तो राजा इनके सम्मान में, खडा हो जाता था। यह किसी व्यक्ति का नहीं, पर नैतिक सत्ता का सम्मान था; किसी जाति विशेषका नहीं।
परम्परा से चला आया हुआ यह सम्मान सूचक शब्द  “महाराज” का  अभिधान आज भी प्रयोजा जाता है।और साथ साथ अपने राजा से अधिक महाराजा शब्द के पीछे का आदर भाव को भी व्यक्त कर देता है। वैसे, यह शब्द किसी अहरे गहरे नत्थू खैरे के लिए प्रायोजित नहीं किया जा सकता था। यह नैतिक सत्ता का सम्मान था, जो क्षत्रिय राज-सत्ता से भी ऊपर ब्राह्मण्य को दिया जाता आदर का स्थान था। यह भारतीय संस्कृति की ही विशेषता थी।
शेष संसार में राज सत्ता ही सर्वोपरि होती थी। पर भारत में राजसत्ता से ऊपर धर्म सत्ता को स्थान होता था;  जो न्याय-सत्ता और ऋषि-सत्ता ऐसे शब्दों से भी पहचानी जा सकती थी। 

(चार) प्रभुसत्ता थी नीति  की
ध्यान रहे, कि, “हमारे यहाँ धर्म के नियमों और उसकी व्याख्या का अधिकार राजा को कभी नहीं दिया गया। हमारे यहाँ यद्यपि शासक को विष्णु का अवतार माना गया किन्तु वह स्वेच्छाचारी, सर्वसत्ता सम्पन्न कभी नहीं रहा।  राजा यदि विष्णु का अवतार माना गया है, तो प्रजा भी ’जनता-जनार्दन’ है। ’किंग डज नो रॉंग’ (राजा कोई भूल नहीं करता, ऐसी बात हम लोगों ने नहीं मानी।)

हमारी मान्यता और पद्धति के अनुसार,  राज्याभिषेक के समय राजा तीन बार घोषणा करता है, ’अदण्ड्योस्मि ’- ’अदण्ड्योस्मि ’- ’अदण्ड्योस्मि।’ –अर्थात “मुझे कोई दण्ड नहीं दे सकता।”
किन्तु उसी समय राज पुरोहित पलाश दण्ड से उसके सिर पर स्पर्श-प्रहार करके  कहता है ’धर्म ही तेरे लिए दण्ड है’। अर्थात प्रभुसत्ता धर्म की है, नैतिकता की है। धर्मदण्ड राजा पर भी शासन करेगा।”  ———**दीनदयाल उपाध्याय**

(पाँच) दण्डिस्वामी या  दण्डमिस?
इतिहास साक्षी है, कि, हमारे संन्यासियों की ख्याति देश विदेश में फैली हुयी थी। इसी से प्रभावित हो कर, सिकन्दर ऐसे संन्यासियों से भेंट करना चाहता था।
जब सिकन्दरने एक ऐसे ही संन्यासी दण्डमिस (?) को बुलावा भेजा, और धन और सम्मान का प्रलोभन भी घोषित किया, तब उस संन्यासी ने जो उत्तर दिया, वह उस समय के, संन्यासियों के निर्लिप्त चारित्र्य को  उजागर करता है। और हमारे लिए भी एक आदर्श प्रस्थापित हो जाता है। ऐसे संन्यासी न किसी दण्ड से डरते थे, न, किसी प्रलोभन से मोहित होते थे।

राधाकुमुद मुखर्जी अपनी  “प्राचीन भारत” ऐतिहासिक पुस्तक के,  ५९ वे पॄष्ठपर निम्न, इस दण्डमिस के विषय में लिखते हैं, वह रोचक भी है, और गौरव की अनुभूति भी करा सकता है। अतः उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत।
ॐ===> “एक संन्यासी जिसका नाम यूनानियों ने दण्डमिस् (दण्डि स्वामी?) लिखा है, जब उसे बुलाने के लिए सिकन्दर के सैनिक पहुंचे, तो, यह कहकर कि “मुझे न किसीका भय है न किसी से वर माँगने की इच्छा है, जो कुछ सिकंदर मुझे दे सकता है वह मेरे लिए व्यर्थ है, ब्राह्मणों को न धन का लोभ है न मृत्यु का भय है” कह कर, उसने सिकंदर से भेंट  अस्वीकार कर दी।  ये शब्द भारतीय विचारधारा और आध्यात्मिकता का सुंदर निदर्शन है।” कहते हैं लेखक मुखर्जी। 

(छः) राजसत्ता से ऊपर नैतिक सत्ता का स्थान।
ऐसे, राजसत्ता से ऊपर था  नैतिक सत्ता का स्थान। ऐसी प्रणाली का, उदाहरण, भारत छोडकर शेष संसार के इतिहास में शायद ही  मिले? कोई ढूंढ कर देखें। यह भारतीय संस्कृति का विशेष था; और(मेरी दृष्टि में) उसके सनातनत्व का एक घटक भी।
इस निर्लिप्तता के गुण का उपयोग , सत्ताधारियों पर, राष्ट्र के हित में   अंकुश  लाने के काम में आदरसहित, समन्वयी, और सहकारी वृत्ति से किया जाता था।
इस सुधारवादी यंत्रणा के तीन  आधार थे। जिसमें तीनों घटक-पक्षों का विचार हुआ करता था।
सैद्धान्तिक रूप से, तीन घटक-पक्ष थे;  (१) शासक- (२)परामर्शक- (३)प्रजा।

(सात) शासक-परामर्शक-और प्रजा का आदर्श।
तीनों पक्षों के  सामने निम्न आदर्श हुआ करते थे।
शासक, राजा, अधिनायक या (आज का प्रधान मंत्री),जो सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है।)कर्तव्य भाव का आदर्श उसके सामने रखा गया था।
परामर्शक, था राष्ट्र लक्ष्यी, अनासक्त संन्यासी, जो राष्ट्र हित का सदैव चिन्तन करनेवाला होता था।
प्रजा, थी कर्तव्य परायण जनता। अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी।
और तीनों के आदर्शों में, कर्तव्य भाव पर बल दिया जाता था।
ध्यान रहे, कि कर्तव्य पर बल देने से समन्वयी क्रियान्वयन आप ही सफल हो जाता है। यदि ये तीनों घटक अपने अधिकारों पर बल देने लग जाएँ, तो राष्ट्र आपस में कलह से अराजकता को जन्म दे सकता है।

(आठ) आज के संदर्भ में:
इन तीनों पर आज के जनतंत्र के संदर्भ में कुछ बदलाव (सुधार) विचारा जा सकता है।
(१)”कुशल समर्थ शासक” (२) अनासक्त राष्ट्र हितैषी परामर्शक “, (३)”कर्तव्य परायण प्रजा” ऐसे तीन घटक होते थे।
राष्ट्र हित में निःस्वार्थ परामर्श अपेक्षित था परामर्शक से।
राष्ट्र हित में कुशल शासन अपेक्षित था शासक से।
और कर्तव्य भावना से, राष्ट्रहित  सर्वोपरि, मानकर चलनेवाली प्रजा अपेक्षित थी।

ये तीनों घटक कर्तव्य भावना पर अधिष्ठित होते थे, अधिकार पर नहीं।
“हमारे मुख में फल आकर गिरना चाहिए। हम तो वृक्ष के नीचे शव की भाँति मुँह खुला रखकर लेटे रहेंगे।”—-ऐसी आलसी वृत्ति नहीं थी।
निश्चित ही, ऐसी विधा सफल होने के लिए ये तीनों घटक-पक्ष स्वभावतः संघर्षवादी भी नहीं थे। समन्वयसे और कर्तव्य भावना से क्रियान्वयन अपेक्षित था।
एक दूसरे को प्रतिस्पर्धी शत्रु मान कर, बात बात में, संघर्ष पर उतारू नहीं होते थे।
जब इन तीनों घटकों का इस प्रकार, कर्तव्य भावना से सहकार होता था। सभी सफल होते थे; राष्ट्र सफल होता था; शासक सफल होता था; परामर्शक भी सफल होता था; और राष्ट्र समृद्ध होने की संभावना बढ जाती थी।

(नौ) उद्दण्ड शासक:
जब ऐसा सहकार करना किसी उद्दण्ड शासक ने नहीं स्वीकारा तब, जैसा चाणक्य द्वारा, नन्द राजा को पदच्युत कर चंद्रगुप्त को राज सिंहासन पर आरूढ किया गया, वैसा इतिहास सर्जा जाता था। इसी प्रकार पुराण काल में भी आततायी वेण राजा का वध किया गया था।

(दस) कुछ स्फुट उद्धरण:
**” प्राचीन भारत ने गणतंत्रीय पद्धति को अपनाया था। व्यक्ति के व्यक्तित्व को सर्वोपरि महत्व दिया गया था। राज्य से यह अपेक्षा की गयी कि वह व्यक्ति के जीवन में अल्पतम हस्तक्षेप करे।”
**…..”प्रतिनिधि शासन तब तक सुचारु रूप से नहीं चल सकता जब तक कि प्रतिनिधि आपस में मिलकर विचार विमर्श न करें।”
.**….”भारतीय जनमत ने ऋषि, मुनि, त्यागी, ब्राह्मणों का एक ऐसा वर्ग अपने नेतृत्व के लिए तैयार किया था जो कि उसे और(गलत दिशा में) जाने से रोकता था।”
.**…..”राजा को अत्यधिक उच्च आदर्शों का पालन करना अनिवार्य था जिससे कि ऐसे व्यक्ति के प्रति जनता स्वयं समर्पित होती। प्राचीन राजशास्त्रियों ने राजा के देवत्व को नहीं स्वीकारा अपितु राजपद को उच्च पद दिया।”
**….”राजा राज्याभिषेक के समय प्रतिज्ञा करता था कि वह न्याय, व्यवस्था, नियम, सदाचार, का  पालन करेगा। वह नियमों  के अन्तर्गत कार्य करता था। वह विधि से ऊपर नहीं था। डॉ. अल्तेकर का मत है कि उसका पद तो विश्वस्त (ट्रस्टी) से भी ऊपर था तथा अधिक उत्तरदायित्व पूर्ण था।”
{पृष्ठ २३४-२३५ से }

(ग्यारह) “बृहस्पति और कौटिल्य के वर्ग के लोग:
“बृहस्पति और कौटिल्य के वर्ग के लोग केवल राजनीति -सम्बन्धी सिद्धान्तों का ही नियमन नहीं करते थे, बल्कि वे अपने देश की राजनीति से प्रत्यक्ष और घनिष्ठ सम्बन्ध भी रखते थे। कौटिल्य एक श्रोत्रिय या वैदिक ब्राह्मण था।”
ऐसे निःस्पृह ब्राह्मण्य युक्त व्यक्तित्व जब  राजसभा में पहुंचते तो राजा स्वयं उठकर उनका स्वागत करता। राज सत्ता से भी अधिक यह नीति सत्ता का आदर भारतीय संस्कृति का आदर्श है।

शिवाजी के गुरू  स्वामी रामदास नित्य शिवाजी की राज सभा में मुक्त प्रवेश करते थे। पर शिवाजी के किसी आचरण से क्रोधित हो, एक दिन राजसभा के बाहर द्वारपर ही खडे रहकर भिक्षा माँगने लगे।
द्वारपालों ने दौडकर इसकी सूचना शिवाजी को दी। शिवाजी स्वयं दौडकर द्वार पर आये, तो देखा कि, स्वामी रामदास भिक्षा माँग रहे हैं। शिवाजी ने तुरंत एक कागज पर लिख कर “सारा राज” उन्हें समर्पित कर दिया।
रामदास ने उस राज को वापस शिवाजी को देकर उसे कहा कि तुम एक विश्वस्त (ट्रस्टी) के नाते इस राजका कार्यभार संभालो” इस पर तुम्हारा  स्वामित्व नहीं है।
रामदास स्वामी ने महाराष्ट्र के गाँव गाँव में मारुति मंदिर के साथ व्यायाम शालाएँ प्रस्थापित कर मावलों के संगठन चलाए थे। और शिवाजी को सैनिक शक्ति उपलब्ध की थी।
इसके आगे का विवरण आज की परिस्थिति को लक्ष्य कर, भाग (दो) में प्रस्तुत  होगा।

7 COMMENTS

  1. “तुम एक विश्वस्त (ट्रस्टी) के नाते इस राजका कार्यभार संभालो” इस पर तुम्हारा स्वामित्व नहीं है।”- kitanaa oonchaa siddhaant. Ise laane kaa prayaas karate hee rahanaa hai
    vishwa mohan tiwari

  2. डा. साहब, सारगर्वित एवं तार्किक लेख के लिये बधायी! कुछ जोडना चाहूॅगा –
    एक बार चाणक्य से एक व्यक्ति मिलने आया। चाणक्य दीपक जलाकर अपना काम कर रहा था। उसने उस व्यक्ति से पूछा – आप अपने व्यक्तिगत कार्य से आये है या सरकारी काम से? उस व्यक्ति ने कहा – ’’ मैं अपने व्यक्तिगत कार्य से आया हूॅ।’’ चाणक्य ने जलता दीपक बुझााकर , दूसरा दीपक जलाया और उस व्यक्ति की सारी बाते सुनी।
    जाते वक्त उस व्यक्ति ने जिज्ञासा वश चाणक्य से प्रश्न किया। आपने जलता दीपक बुझाकर, दूसरा दीपक क्यो जलाया? चाणक्य ने जवाब दिया – जिस वक्त आप आये थे, उस वक्त मैं सरकारी काम कर रहा था। आप का कार्य व्यक्तिगत था। मुझे कोई हक प्राप्त नही है कि सरकारी दीपक की रोशनी में मैं अपना व्यक्तिगत कार्य करू। अत उस दीपक को बुझाकर मैंने अपना व्यक्तिगत दीपक जलाया। काश आज के राजनेता चाणक्य से कुछ सीख पाते।
    चाणक्य ने कहा था – सरकार के प्रति जनता के मन में आदर और भय होना चाहिये। जिस सरकार के प्रति जनता के मन में आदर और भय नही होता, वह राजसत्ता शासन नही कर सकती। चारित्रिक ईमानदारी ही ऐसी राजसत्ता की बुनियाद होती है।

    • मा. अरविन्द कुमार जी।

      आप ने आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर के आलेख का प्रभाव बढा दिया है।
      यह उदाहरण एक चोटदार अंत भी है ही।
      धन्यवाद।

      स्व. दत्तोपंत ठेंगडी जी (संघ के आजीवन प्रचारक और अनेम पुस्तकों के लेखक) जिन्हें निकटसे जानने का अवसर मुझे मिला है।

      वे बिलकुल इसी प्रकार का आचरण करते थे।

      मुक्त टिप्पणी देते रहें।

  3. ,
    दो -तीन बार प्रयत्न किया ,कमेंट नहीं जा रहा है.
    यहाँ प्रस्तुत है –
    बहुत समयोचित विषय उठाया है .अबाध सत्ता और उससे उत्पन्न अहंकार शासक का विवेक कुंठित कर देता है (प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं) उसे सचेत -और सावधान करने के लिए ,नीति और समयोचित औचित्य की ओर प्रवृत्त करना आवश्यक है. अनुभवी ,नीतिज्ञ और निस्स्वार्थ भाव से राष्ट्र का हित चाहनेवाले व्यवहार-निपुण मान्य जनों का अंकुश उसे सही राह पर चलने को प्रेरित करता है .उसका होना बहुत आवश्यक है
    – प्रतिभा सक्सेना.

  4. बधाई – विषय अत्यंत सामयिक और उस का प्रतिपादन और भी सुन्दर

    • मा. गोयल जी धन्यवाद।

      आपके दो शब्द मेरा पारितोषिक है, और मुझे प्रोत्साहित करता है।

      कृपांकित
      मधुसूदन

  5. माननीय मधु जी,

    आपके द्वारा इस लेख में बहुत महत्त्वपूर्ण विषय चुनकर उस पर शोध करके उचित उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं । लेख पढकर जिस आदर्श राज्य कि कल्पना मन में बनती है, वही हमारे सपनों का आदर्श भारत भी है ।

    शिवाजी का उद्धृत प्रसङ्ग हृदयस्पर्शी है ।

    अपने दो शब्द लेख में जोडना चाहूँगा । लेख में कल्पित आदर्श राज्य, जिसमें शासक व प्रजा धर्म-बन्धन का सम्मान मानने वाले हों, व परामर्शक निःस्पृहता से सम्पन्न हों, ऐसा राज्य निःसन्देह अध्यात्म के आधार पर ही रचा जा सकता है । अतः अध्यात्म को प्राथमिकता देना अनिवार्य लगता है । अपने जन-जन को, धर्मोल्लङ्घन करने का आदि कदापि नहीं बनने देना चाहिए, अपितु धर्म-बन्धन का पालन करने का आदि बनाना चाहिए । (This is a ‘habit’ that needs to be transformed / changed in all of us.)

    भाग-२ की प्रतीक्षा रहेगी ।

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