भए प्रकट कृपाला दीनदयाला

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-अरविंद जयतिलक
‘राजीव नयन धरें धनु सायक, भगत बिपति भंजन सुखदायक’। भक्तों के दुखों को हरने वाले राजीव नयन श्रीराम आपको शत-शत प्रणाम। भारत भूमि पर आई हर विपत्ति को हरने वाले दुखहरन प्रभु श्रीराम विष्णु के सातवें अवतार हैं। वाल्मीकि कृत रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस में भगवान श्रीराम की महिमा और उनके आदर्शों का खूब गुणगान किया गया है। उनके उपदेशों और आचरण को जगतकल्याण का मार्ग बताया गया है। वे दुष्टों के संधारक और संतों के रक्षक हैं। श्री रामचरितमानस में उनके जन्म के बारे में कहा गया है कि-‘नौमि तिथि मधुमास पुनीता, शुकल पच्छ अभिजीत हरिप्रीता। मध्यदिवस अति सीत न घामा, पावन काल लोक विश्रामा।’ अर्थात पवित्र चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष के नवमी तिथि के पावन दिन भगवान श्रीराम का अयोध्या में पा्रकट्य हुआ। उनके प्रकट होते ही निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया और गन्धर्वों का दल भगवान के गुणों का गान करने लगा। आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे और नाग, मुनि और देवता भगवान की स्तुति और आराधना में लग गए। महान संत तुलसीदास रचित रामचरितमानस में उद्घृत है कि ‘बिप्र धेनु सुर संत हित लिन्ह मनुज अवतार, निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।’ यानी पृथ्वी पर प्रभु श्रीराम का अवतार ब्राहमण, गौ, देवता, संतों और दीनजनों के कल्याण के लिए हुआ। उन्होंने दुष्टों का संघार कर पृथ्वी पर धर्म की स्थापना की और लोकमंगल के कार्य किए। हिंदू सनातन शास्त्रों में भगवान श्रीराम को साक्षात परब्रह्म और ईश्वर कहा गया है। संसार के समस्त पदार्थों के बीज उनमें ही निहित है और वे संसार के सूत्रधार हैं। उन्हें वैदिक सनातन धर्म की आत्मा और परमात्मा कहा गया है। भगवान श्रीराम ने लंकापति रावण का वध कर मानव जाति को संदेश दिया कि सत्य और धर्म के मार्ग का अनुसरण कर जगत को आसुरी शक्तियों से मुक्त किया जा सकता है। सत्य के पर्याय भगवान श्रीराम सद्गुणों के भंडार हैं। इसीलिए भारतीय जनमानस उनके जीवन पद्धति को अपना उच्चतर आदर्श और पुनीत मार्ग मानता है। शास्त्रों में भगवान श्रीराम को लोक कल्याण का पथप्रदर्शक और विष्णु के दस अवतारों में से सातवां अवतार कहा गया है। शास्त्रों में उद्घृत है कि जब-जब धरती पर अत्याचार बढ़ता है तब-तब भगवान धरा पर अवतरित होकर एवं मनुष्य रुप धारण कर दुष्टों का संघार करते हैं। भगवान श्री राम का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण के रुप में लिखा गया है। महान संत तुलसीदास ने भी भगवान श्रीराम पर भक्ति काव्य रामचरितमानस की रचना की है जो केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कई देशों की कई भाषाओं में अनुदित है। संत तुलसीदास ने भगवान श्रीराम की महिमा का गान करते हुए कहा है कि भगवान श्रीराम भक्तों के मनरुपी वन में बसने वाले काम, क्रोध, और कलियुग के पापरुपी हाथियों के मारने के लिए सिंह के बच्चे सदृश हैं। वे शिवजी के परम पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं। दरिद्रता रुपी दावानल के बुझाने के लिए कामना पूर्ण करने वाले मेघ हैं। वे संपूर्ण पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित हित करने में साधु-संतो ंके समान हैं। सेवकों के मन रुपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र करने में गंगा जी की तरंगमालाओं के समान हैं। श्रीराम के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुग के कपट, दंभ और पाखंड के जलाने के लिए वैसे ही हैं जैसे ईंधन के लिए प्रचण्ड अग्नि होती है। श्रीराम पूर्णिमा के चंद्रमा की किरणों के समान सबको शीतलता और सुख देने वाले हैं। श्रीराम क्षमा, दया और दम लताओं के मंडप हैं। संसार भी भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम मानता है। वे एक आदर्श भाई, आदर्श स्वामी और प्रजा के लिए नीति कुशल व न्यायप्रिय राजा हैं। भगवान श्रीराम का रामराज्य जगत प्रसिद्ध है। हिंदू सनातन संस्कृति में भगवान श्रीराम द्वारा किया गया आदर्श शासन ही रामराज्य के नाम से प्रसिद्ध है। रामचरित मानस में तुलसीदास ने रामराज्य पर भरपूर प्रकाश डाला है। उन्होंने लिखा है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया। समस्त भय और शोक दूर हो गए। लोगों को दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गयी। रामराज्य में कोई भी अल्पमृत्यु और रोगपीड़ा से ग्रस्त नहीं था। सभी जन स्वस्थ, गुणी, बुद्धिमान, साक्षर, ज्ञानी और कृतज्ञ थे। वाल्मीकि रामायण के एक प्रसंग में स्वयं भरत जी भी रामराज्य के विलक्षण प्रभाव की बखान करते हैं। गौर करें तो वैश्विक स्तर पर रामराज्य की स्थापना गांधी जी की भी चाह थी। गांधी जी ने भारत में अंग्रेजी शासन से मुक्ति के बाद ग्राम स्वराज के रुप में रामराज्य की कल्पना की थी। आज भी शासन की विधा के तौर पर रामराज्य को ही उत्कृष्ट माना जाता है और इसका उदाहरण दिया जाता है। संसार भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम मानता है। इसलिए कि उन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सत्य और मर्यादा का पालन करना नहीं छोड़ा। पिता का आदेश मान वन गए। भगवान श्रीराम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता और यहां तक कि पत्नी का भी साथ छोड़ा। इसीलिए भगवान श्री राम को कर्तव्यपरायणता के कारण भारतीय सनातन परिवार का आदर्श प्रतिनिधि कहा जाता है। राम रघुकुल में जन्में थे जिसकी परंपरा ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाई पर बचन न जाई’ की थी। इसीलिए पिता का वचन मानकर वे जंगल को गए। उन्होंने अपने पराक्रम से दण्डक वन को राछस विहिन किया और साधु-संतों की सेवा की। उन्होंने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का उद्धार किया तथा पराई स्त्री पर कुदृष्टि रखने वाले बालि का संघार कर संसार को स्त्रियों के प्रति संवेदनशील होने की सीख दी। जंगल में रहने वाली शबरी माता को नवधा भक्ति का ज्ञान दिया। उन्होंने नवधा भक्ति के जरिए दुनिया को अपनी महिमा से सुपरिचित कराया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि मुझे वहीं प्रिय हैं जो संतों का संग करते हैं। मेरी कथा का रसपान करते हैं। जो इंद्रियों का निग्रह, शील, बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म में लगे रहते हैं। जगत को समभाव से मुझमें देखते हैं और संतों को मुझसे भी अधिक प्रिय समझते हैं। उन्होंने शबरी को यह भी समझाया कि मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरुप को प्राप्त हो जाता है। भगवान श्रीराम सभी प्राणियों के लिए संवेदनशील थे। उन्होंने पंपापुर के वन्य जातियों को स्नेह से सीचिंत कर अपना मित्र बनाया। भगवान श्रीराम और वानरराज सुग्रीव की मित्रता आदर्श मित्रता का अनुपम उदाहरण है। पवनपुत्र हनुमान भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त हैं। उन्होंने कहा है कि-कुलीन न होते हुए भी भगवान श्रीराम ने मुझ जैसे सभी गुणों से हीन जीव को अपनाया। अधम प्राणी जटायु को पिता तुल्य स्नेह प्रदान कर जीव से जंतुओं के प्रति मानवीय आचरण को भलीभांति निरुपित किया। समुद्र पर सेतु बांधकर वैज्ञानिकता और तकनीकी का अनुपम मिसाल कायम की। उन्होंने समुद्र के अनुनय-विनय पर निकट बसे खलमंडली का संघार किया। पत्नी सीता के हरण के बाद भी अपना धैर्य नहीं खोया। असुराज रावण को सत्य और धर्म के मार्ग पर लाने के लिए हरसंभव प्रयास किया। उसे समझाने के लिए अपने भक्त हनुमान और अंगद को उसके पास लंका भेजा। लेकिन दुष्ट स्वभाव वाले रावण को यह सब रास नहीं आया। स्वयं उसके भाई विभिषण ने माता सीता को प्रभु श्रीराम को सौंपने के लिए अनुनय-विनय किया। लेकिन रावण माता सीता को वापस करने के लिए तैयार नहीं हुआ। उल्टे उसने विभिषण को अपमानित कर लंका से निर्वासित कर दिया। विभिषण भगवान श्रीराम के शरणागत हुए। अंततः प्रभु श्रीराम ने असुरराज रावण का वध कर पृथ्वी को उसके अत्याचारों से मुक्त किया। उन्होंने लंका का राज्य विभिषण को सौंपकर माता जानकी के साथ अयोध्या लौट आए। सही अर्थों में इन लीलाओं के जरिए भगवान श्रीराम ने एक पुत्र, पिता, पति, भाई और एक राजा के तौर पर जगत को संदेश दिया कि एक आदर्श, निष्पक्ष और बंधुतापूर्ण आचरण के जरिए ही एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज का निर्माण संभव है।

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