राम का वनगमन से पूर्व अपने पिता दशरथ व माता से प्रशंसनीय संवाद

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-मनमोहन कुमार आर्य
राम को हमारे पौराणिक बन्धु ईश्वर मानकर उनकी मूर्तियों की पूजा करते वा उनको सिर नवाने के साथ यत्र तत्र समय-समय पर राम चरित मानस का पाठ भी आयोजित किया जाता है। वाल्मीकि रामायण ही राम के जीवन पर आद्य महाकाव्य एवं इतिहास होने के कारण प्रामाणिक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में परवर्ती काल में अनेक लोगों ने कुछ प्रक्षेप भी किये हैं जिनका पता लगाया जा सकता है। कुछ विद्वानों ने यह कार्य किये भी हैं। उनके प्रयत्नों का परिणाम है कि हमें शुद्ध रामायण उपलब्ध होता है जिसमें से एक स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी का ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण है। आगामी रामनवमी पर्व, चैत्र शुक्ल नवमी 2078 विक्रमी तदनुसार 21 अप्रैल सन् 2021 को ध्यान में रखकर हम राम के राज्याभिषेक के निर्णय, उनके वनगमन तथा श्रीराम के अपने पिता दशरथ एवं माता कैकेयी के साथ संवाद का वर्णन कर रहे हैं। इसका वर्णन पढ़ व सुन कर हम स्वयं व अपनी भावी पीढ़ियों को सन्मार्ग दिखा सकते हैं जिससे हमारी वर्तमान व भावी युवा पीढ़ियां अपने देवता के समान माता-पिता व आचार्यों को आदर सम्मान देकर उनकी पूजा वन्दना कर सके।

राम के राज्याभिषेक के निर्णय व वनगमन की कथा इस प्रकार है। महाराजा दशरथ ने राज्य पुरोहित वसिष्ठ को बुलाकर उन्हें कल अर्थात् अगले दिन होने वाले राम के राज्याभिषेक के विषय में राम को सूचित करने के लिये कहा। उन्होंने कहा कि हे तपोधन! आप राम के पास जाइए और उनसे कल्याण, यश और राज्य-प्राप्ति के लिये पत्नी सीता सहित उपवास कराइए। वेदज्ञों में श्रेष्ठ भगवान वसिष्ठ ‘‘बहुत अच्छा” कहकर स्वयं श्री राम के घर गये। महर्षि वसिष्ठ श्वेत बादलों के समान सफेद रंग वाले भवन में पहुंच कर श्री राम को हर्षित करते हुए बोले। हे राम! तुम्हारे पिता दशरथ तुम पर प्रसन्न हैं। वह कल तुम्हारा राज्याभिषेक करेंगे। अतः आज आप सीता सहित उपवास करें। यह कहकर मुनिवर वसिष्ठ ने श्रीराम एवं सीता जी से उस रात्रि को नियत व्रत वा उपवास कराया। इसके बाद राजगुरु वसिष्ठ राम द्वारा भलीप्रकार सम्मानित एवं सत्कृत होकर अपने निवास स्थान को चले गये। वसिष्ठ जी के जाने के बाद श्रीराम एवं विशालाक्षी सीता जी ने स्नान किया। उन्होंने शुद्ध मन से एकाग्रचित्त होकर परमपिता परमात्मा की उपासना की। जब एक प्रहर रात्रि शेष रही तो वह दोनों उठे और प्रातःकालीन सन्ध्योपासन कर, एकाग्रचित्त होकर गायत्री का जप करने लगे। इस समाचार को सुनकर सभी प्रजाजनों ने अयोध्या को सजाया। राजमार्गों को फूल-मालाओं से सुशोभित एवं इत्र आदि से सुगन्धित किया। भवनों एवं वृक्षों पर ध्वजा एवं पताकाएं फहराई गईं। सभी लोग राज्याभिषेक की प्रतीक्षा करने लगे।

इसी बीच कैकेयी को अपनी दासी मन्थरा से राम के राज्याभिषेक की जानकारी मिली और साथ ही महाराज दशरथ से वर मांगने तथा राम को 14 वर्ष के लिये वन भेजने तथा भरत को कौशल देश का राजा बनाने का परामर्श मिला। इस मंथरा-कैकेयी के इस षडयन्त्र ने राम को राजा बनाने की सारी योजना को धराशायी कर दिया। राज्याभिषेक के दिन राम प्रातः अपने पिता के दर्शन करने आते हैं। वहां पिता की वह जो दशा देखते हैं उसका वर्णन महर्षि वाल्मीकि जी ने करते हुए लिखा है कि राजभवन मेघ-समूह के समान जान पड़ता था। साथ के सब लोगों को अन्तिम डयोढ़ी पर छोड़ कर श्रीराम ने अन्तःपुर में प्रवेश किया। अन्तःपुर में जाकर श्रीराम ने देखा कि महाराज दशरथ कैकेयी के साथ सुन्दर आसन पर विराजमान हैं। वे दीन और दुःखी हैं तथा उनके मुख का रंग फीका पड़ गया है। श्रीराम ने जाते ही पहले अत्यन्त विनीत भाव से पिता के चरणों में शीश झुकाया, फिर बड़ी सावधानी से माता कैकेयी के चरणों का स्पर्श किया। श्री राम को देखकर महाराज दशरथ केवल ‘राम!’ ही कह सके। क्योंकि फिर महाराज के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। उनका कण्ठ बन्द हो गया। फिर वे न तो कुछ देख ही सके और न बोल ही सके। अपने पिताजी की ऐसी असम्भावित दशा देख और उनके शोक का कारण न जानकर श्रीराम ऐसे विक्षुब्ध हुए जैसे पूर्णमासी के दिन समुद्र क्षुब्ध होता है। सदा पिता के हित में लगे रहने वाले राम विचारने लगे कि क्या कारण है कि पिता इतनी प्रसन्नता के अवसर पर भी न तो मुझसे प्रसन्न हैं और न ही मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। 

राम पिता दशरथ तथा माता कैकेयी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि और दिन तो पिताजी क्रुद्ध होने पर भी मुझे देखते ही प्रसन्न हो जाया करते थे, परन्तु आज मुझे देखकर उन्हें कष्ट क्यों हो रहा है? इस चिन्ता से श्रीराम का मुंह उतर गया। दीनों की भांति शोक-पीड़ित और द्युतिहीन श्रीराम कैकेयी को अभिवादन करके बोले। यदि अज्ञानवश मुझसे कोई अपराध हो गया हो जिससे पिताजी मुझसे अप्रसन्न हैं तो आप मुझे उस अपराध को बतायें और मेरी ओर से आप इनकी शंका का निवारण कर इन्हें प्रसन्न करें। महाराज का कहना न मानकर उनको असन्तुष्ट एवं कुपित कर मैं एक क्षण भी जीना नहीं चाहता। जब श्रीराम ने कैकेयी से उपर्युक्त वचन कहे तब कैकेयी ने यह धृष्टता एवं स्वार्थपूर्ण वचन कहे। कैकेयी ने कहा हे राम! न तो महाराज तुमसे अप्रसन्न हैं, न ही इनके शरीर में कोई रोग हैं। इनके शरीर में कोई बात है जिसे तुम्हारे भय से यह कहते नहीं। यदि तुम यह बात स्वीकार करो कि महाराज उचित या अनुचित जो कुछ कहें उसे करोगे तो मैं तुम्हें सब कुछ बतला दूं। कैकेयी के इन वचनों को सुनकर राम अत्यन्त दुःखी हुए। उन्होंने महाराज दशरथ के समीप बैठी हुई कैकेयी से कहा ‘अहो! धिक्कार है!! हे देवि! आपको ऐसा कहना उचित नहीं। महाराज की आज्ञा से मैं जलती चिता में कूद सकता हूं, हलाहल विष का पान कर सकता हूं और समुद्र में छलांग लगा सकता हूं। अपने गुरु, हितकारी, राजा और पिता के आदेश से ऐसा कौन-सा कार्य है जिसे मैं न कर सकूं? हे देवि महाराज दशरथ को जो भी अभीष्ट है वह तू मुझसे कह। मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं उनकी आज्ञा का पालन करूंगा। माता! सदा स्मरण रख, राम दो प्रकार की बात नहीं कहता अर्थात् राम जो कहता है वही करता है।’  

राम के इन शब्दों को सुनकर अनार्या कैकेयी सरल स्वभाव एवं सत्यवादी श्रीराम से ये कठोर वचन बोली। हे राम! पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम में शत्रु के बाणों से पीड़ित और मेरे द्वारा रक्षित तुम्हारे पिता ने मेरी सेवाओं से प्रसन्न होकर मुझे दो वर दिये थे। हे राम! उन दो वरों में से मैंने एक से तो ‘भरत का राज्याभिषेक’ और दूसरे से ‘तुम्हारा आज ही दण्डकारण्य-गमन’ मांगा है। हे नरश्रेष्ठ! यदि तुम अपने पिता को और अपने आपको सत्यप्रतिज्ञ सिद्ध करना चाहते हो तो मैं जो कुछ कहूं उसे सुनो। ‘तुम पिता की आज्ञा के पालन में तत्पर रहो। जैसा कि उन्होंने प्रतिज्ञा की है--तुम्हें चौदह वर्ष के लिए वन में चले जाना चाहिए। हे राम! महाराज दशरथ ने तुम्हारे राज्याभिषेक के लिए जो सामग्री एकत्र कराई है उससे भरत का राज्याभिषेक हो। तुम इस अभिषेक को त्याग कर तथा जटा और मृगचर्म धारण कर चौदह वर्ष तक दण्डक वन में वास करो। भरत कौसलपुर में रह कर विभिन्न प्रकार के रत्नों से भरपूर तथा घोड़े, रथ और हाथियों सहित इस राज्य का शासन करे। यही कारण है कि महाराज करुणा से पूर्ण हैं, शोक से उनका मुख शुष्क हो रहा है और वे तुम्हारी ओर देख भी नहीं सकते। हे रघुनन्दन! तुम महाराज की इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करो। राम! महान् सत्य के पालन द्वारा तुम महाराज का उद्धार करो।’ कैकेयी के इस प्रकार के कठोर वचन बोलने पर भी श्रीराम को कोई शोक नहीं हुआ परन्तु महाराज दशरथ जो पहले ही दुःखी थे, राम के संभावित वियोग के कारण होने वाले दुःख से अति व्याकुल हुए। 

कैकेयी के इन कठोर वचनों पर राम की प्रतिक्रिया संसार के सभी लोगों मुख्यतः युवा पुत्रों को पढ़नी चाहिये। शत्रु-संहारक श्रीराम मृत्यु के समान पीड़ादायक कैकेयी के इन अप्रिय वचनों को सुनकर तनिक भी दुःखी नहीं हुए और उससे बोले ‘‘बहुत अच्छा” ऐसा ही होगा। महाराज की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए मैं जटा और वल्कल वस्त्र धारण कर अभी नगर को छोड़कर वन को जाऊंगा। राम ने कहा ‘मैं यह अवश्य जानना चाहता हूं कि अजेय तथा शत्रु-संहारक महाराज पूर्ववत् मुझसे बालते क्यों नहीं? एक मानसिक दुःख मेरे हृदय को बुरी तरह से जला-सा रहा है कि महाराज ने भरत के अभिषेक के विषय में स्वयं मुझसे क्यों नहीं कहा। महाराज की तो बात ही क्या, मैं तो तेरे कहने से ही प्रसन्नतापूर्वक भाई भरत के लिये राज्य ही नही अपितु सीता, अपने प्राण, इष्ट और धन सब कुछ वार सकता हूं।’ श्री राम के इन वचनों को सुन कैकेयी अति प्रसन्न हुई। राम के वनगमन के सम्बन्ध में विश्वस्त होकर वह श्रीराम को शीघ्रता करने के लिए प्रेरित करने लगी। 

क्या आज के युग में कोई पुत्र श्री राम के समान अपने माता-पिता का शुभचिन्तक, आज्ञाकारी तथा उनके के लिये अपने जीवन को सकट में डाल सकता है? हमें लगता है कि उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित राम के आदर्श को कोई पुत्र निभा नहीं सकता। इसी लिये रामायण संसार का आदर्श ग्रन्थ है। संसार के सभी स्त्री-पुरुषों व युवाओं को इसे नियमित पढ़ना चाहिये और इससे शिक्षा लेकर अपने परिवार व माता-पिता को सुख व शान्ति प्रदान करनी चाहिये। आगामी रामनवमी पर श्रीराम का जन्मदिवस है। हमें इस दिन इन पंक्तियों को पढ़कर और इन पर मनन कर श्री राम को अपनी श्रद्धांजलि देनी चाहिये और उनके जीवन का अनुकरण करने का व्रत लेना चाहिये। हमने इस लेख की सामग्री कीर्तिशेष स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी की पुस्तक ‘वाल्मीकि रामायण’ से ली है उनका आभार एवं वन्दन करते हैं। 

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