रस लो प्रिये इस जगत में!

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रस लो प्रिये इस जगत में,
रह तटस्थित अवतरण में;
सब चल रहे मग प्रकृति में,
उस पुरुष की ही देह में!

रीते कहाँ वे हैं बसे,
वे ही लसे वे ही रसे;
उर में वे ही नर्तन किए,
वे कीर्तन लेते हिये!

वे ही परे जाते कभी,
वे ही उरे आते कभी;
चलवा वे ही हमको रहे,
जाने की वे कब कह रहे!

रह संग वे देखा किए,
जा दूर भी ढ़िंग वे रहे;
जो आज वे दे पा रहे,
पहले कहाँ थे वे दिए!

क्या करोगे जा कर वहाँ,
आगए जब फिर वो यहाँ;
सब हिय तुम्हारे में रहा,
कब दूर कोई है हुआ!

हे वत्स तुम भगवान के,
क्यों सोच हो ऐसे रहे;
उनमें रमे उनको लखे,
‘मधु’ माधुरी उनकी तके!

✍? गोपाल बघेल ‘मधु’

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