सशक्त लोकतंत्र का आधार है बिहार में नया जनादेश

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-ललित गर्ग-

बिहार विधानसभा के चुनाव परिणामों से एक बात स्पष्ट हो गयी है कि मतदाता अब जागरूक एवं समझदार हो गया है। हर घटना को वह गुण-दोष के आधार पर परखकर, समीक्षा कर अपने मत का उपयोग करता है, अब न जातिवादी और न साम्प्रदायिक राजनीति असरकार रही है न ही वंशवादी। भाजपा का विकास का मुद्दा एवं सत्तारूढ़ गठबन्धन के अनुभवी नेता मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार के नेतृत्व के मुकाबले विपक्षी महागठबन्धन के युवा नेता श्री तेजस्वी यादव का पलड़ा उतना वजनदार साबित नहीं हो सका है जिसकी अपेक्षा विभिन्न एक्जिट पोलों ने की थी। क्योंकि तेजस्वी के प्रभावी प्रदर्शन के बावजूद वंशवाद एवं अतीत के जंगलराज की राजनीति उनका पिछा करती रही, जबकि तेजस्वी ने इन दागों को धोने की सफलतम कोशिश की। जहां बिहार के चुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण थे वही उसके परिणाम तो और भी अधिक चैंकाने वाले एवं लोकतंत्र को नयी ऊर्जा देने वाले रहे। बिहार के मतदाताओं के लिये ईमानदार, स्थिर एवं विकास का नेतृत्व-चयन सर्वोपरि रहा। लोग तुलनात्मक रूप से बेहतर ऐसे नेताओं की खोज में दिखाई दिये जो सबके विकास और रोजगार की राह को सशक्त कर सके।
सोचा गया था कि कोरोना काल में होने वाले इन चुनावों से कुछ नयी राजनीतिक परिभाषाएं गढ़ी जायेगी लेकिन संक्रमण के बावजूद राजनीति का जो सिलसिला इस देश में चलता रहा था, वह अभी बहुत बदला नहीं है। बिहार जैसे बड़े राज्य के विधानसभा चुनाव और कई राज्यों में हो रहे उपचुनावों को लेकर एक आशंका यह व्यक्त की गयी थी कि सरकारों को जनता के कोप का भाजन बनना पड़ सकता है। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, इसका अर्थ है कि जनता सरकार की कोरोना महामारी से संघर्ष की लड़ाई एवं विभिन्न चुनौतियों के बीच सरकार के प्रयत्नों से संतुष्ट नजर आयी। कोरोना महामारी के बीच यह पहला चुनाव है जिसमें जनता की प्रतिक्रिया का काफी महत्व है। श्री नरेन्द्र मोदी के चुनावी दौरों एवं राजनीतिक वायदों से लोगों में सत्ता विरोधी आक्रोश को कम करने में मदद मिली है मगर मध्यप्रदेश में हुए उपचुनावों में भाजपा को मिली सफलता से यह निष्कर्ष निकला जा सकता है कि मतदाता राज्य में राजनीतिक स्थिरता चाहते हैं। न केवल मध्यप्रदेश बल्कि बिहार, गुजरात एवं उत्तरप्रदेश में भी आमजनता ने स्थिरता एवं विकास को ही प्राथमिकता दी है।
कांग्रेस एवं राष्ट्रीय जनता दल पार्टी ने एक बार फिर वंशवादी तुरूप का पत्ता चला उसका भी असर वैसा नहीं हुआ जैसा सोचा जा रहा था। राजनीति में सत्ता कोई ऐसी सम्पत्ति नहीं जिसे रिश्तेदारों में बांट दिया जाए, वसीयत का रूप दे दिया जाए। देश के अनेक राजनेता अपने परिवार और पुत्रों की ऐसी ही भूमिका बनाने मंे लगे हंै और बिहार के चुनावों पर भी इसकी छाया रही। सत्ता में वंश परंपरा की सच्चाई को नकारने की दृष्टि से बिहार के चुनाव एक बार फिर सबक बने हैं। ‘वंश परंपरा की सत्ता’ से लड़कर मुक्त हुई जनता इतनी जल्दी उसे कैसे भूल सकती है? कुछ मायनों में यह अच्छा है कि राजनीति में वंश की परंपरा का महत्व घटता जा रहा है, अस्वीकार किया जा रहा है। इससे कुछ लोगों को दिक्कत होती है जो परिवार की भूमिका को भुनाना चाहते हैं। लेकिन लोकतंत्र की सेहत के लिए यह अच्छा नहीं है। जनता अब जान गई है कि राजा अब किसी के पेट से नहीं, ‘मतपेटी’ से निकलता है।
अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल लोगों की उम्मीदों के साये तले वंशवादी राजनीति की त्रासद सचाई पर मंथन करें। नरेन्द्र मोदी की जादूई एवं करिश्माई राजनीति का एक बड़ा कारण वंशवादी राजनीति को नकारना है। इसी कारण राजद अपना वह प्रभाव कायम रखने में सफल नहीं हो सकी है जिसकी अपेक्षा तेजस्वी बाबू का चुनाव प्रचार देख कर की जा रही थी। इसके पीछे उनकी पार्टी एवं लालू-राबड़ी राज का जंगलराज भी बड़ा कारण रहा। लेकिन इस बड़ी हकीकत को बेबाक तरीके से प्रस्तुति दी सकती है कि जिस तरह की विपक्षी महागठबन्धन लहर की अपेक्षा की जा रही थी, चुनाव परिणामों ने उसका प्रमाण नहीं दिया है, परन्तु यह सिद्ध कर दिया है कि सत्तारूढ़ गठबन्धन की तरफ से असली खिलाड़ी भाजपा निकली है।
राज्य में भाजपा के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने से यह भी सिद्ध हुआ कि मतदाताओं ने क्षेत्रीय राजनीति में राष्ट्रीय दलों की भूमिका को महत्ता देना जरूरी समझा है इसके अनेक तरह के लाभ भी है, विकास की दृष्टि से यह सोने में सुहागा की तरह है। इसके साथ ही राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस का प्रदर्शन भी कम करके नहीं आंका जाना चाहिए, यह उसकी गिरती हुई साख को थामने की दृष्टि से पर्याप्त भी नहीं कही जा सकती। इन चुनावों में इसका मतप्रतिशत बढ़ा है मगर जिस तरह वामपंथी दलों ने इन चुनावों में प्रदर्शन किया है उससे बहुत से राजनीतिक पर्यवेक्षक चैंके हैं। विपक्षी महागठबन्धन के साथी इन दलों को 243 में से केवल 29 सीटें ही दी गई थीं और ये आधी से अधिक सीटें जीतने में सफल रहे हैं। वामपंथी दलों का राजनीतिक पटल पर उभरना उनके लिये एक खुराक एवं राजनीतिक जीवन-ऊर्जा साबित हुआ है। वामपंथी की उपस्थिति का अहसास जिन्दा होना बिहार के पुराने राजनीतिक चरित्र को बताता है और बदले हुए समय में बदलते राजनीतिक विमर्शों की तरफ इशारा करता है। बेशक भाजपा का राष्ट्रवादी विमर्श इन चुनावों में मतदाताआंे के लिए सर्वोपरि रहा है किन्तु इसका धुर विरोधी विचार भी इन चुनावों में सतह पर आया है। जिससे पता चलता है कि चुनावों में उठे जमीनी मुद्दों की तरफ भी मतदाताओं की तरजीह रही है, किन्तु सीमांचल के इलाके में कट्टरपंथी साम्प्रदायिक पार्टी इत्तेहादुल मुसलमीन के उभार से खतरे की घंटी भी बजी है। बिहार की संस्कृति साम्प्रदायिक सद्भाव का प्रतीक मानी जाती है। श्री ओवैसी की इस पार्टी के बिहार में पैर जमाने से राज्य की धर्मनिरपेक्ष छवि पर गलत असर पड़ा है।
राज्य में भाजपा की सीटों में पिछले चुनावों की अपेक्षा जिस तरह इजाफा हुआ है और इसके सहयोगी दल जनता दल (यू) की सीटें कम हुई हैं उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि भाजपा के प्रति लोगों का विश्वास राष्ट्रीय एकता, भारत के सशक्तीकरण एवं विकास के नजरिया को स्वीकृति देना है। यह राजनीतिक दलों को अपनी छवि, नीतियों, राजनीतिक दृष्टिकोण एवं गठजोड़ को दुरुस्त रखने की प्रेरणा का संदेश भी है। चुनावी प्रचार के दौरान जिस प्रकार मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार की छवि प्रधानमन्त्री की लोकप्रियता की छाया में कमतर हो गयी थी फिर भी उसका परिणाम बेहतर आया है और 15 साल तक लगातार शासन करने के खिलाफ उपजा सत्ता विरोधी आक्रोश कम हुआ है। बिहार के चुनाव हवाई मुद्दों पर न लड़े जाकर जमीनी मुद्दों पर लड़े गये हैं। इन चुनावों में कहीं न कहीं सुशासन का मुद्दा भी भीतर खाने काम करता रहा है और यही सुशासन का मुद्दा नयी बनने वाली सरकार की प्राथमिकता होगा। रोजगार, शिक्षा स्वास्थ्य और विकास के मुद्दों के साथ नयी बनने वाली सरकार कृषि पर निर्भर राज्य की बड़ी आबादी, मजदूरों और गरीबों के एक बड़े तबके की तकलीफों को दूर करेगी, ऐसा हुआ तो इन चुनावों का परिणाम लोकतंत्र को सशक्त करने का माध्यम बनेगा। क्योंकि इन चुनाव परिणामों का एक सकारात्मक पहलु स्पष्ट है कि इस बार बिहार के मतदाता स्थिर सरकार के साथ ही एक मजबूत विपक्ष भी देने जा रहे हैं।

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