महामहिम का प्रभावहीन-अतीत’
‘राष्ट्रपति’ भारत का सबसे ‘सर्वोच्च पद’ है। इस पर आसीन व्यक्ति भारत का ‘प्रथम- नागरिक’ माना जाता है। राष्ट्रपति भवन भारत गणराज्य के ‘राष्ट्रपति’ का सरकारी आवास होता है। अँग्रेजी हुकूमत के समय मे यह ‘वाइसरॉय हाउस’ कहलाता था। ब्रिटिश शासन के ‘वाइसरॉय का अहम पद आज़ादी के बाद भारतीय संस्करण मे ‘राष्ट्रपति’ बन गया। ‘वाइसरॉय’ अँग्रेजी हुकूमत का उस दौर मे सर्वोच्च पद था उनके ऐशों-आराम के लिए ही इस ‘भव्य-विराट-इमारत’ ‘प्रेसीडेंसीयल पैलेस’ का निर्माण किया गया। इसके निर्माण की शुरुआत तब हुयी जब ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली बनाने का निर्णय लिया। एड्विन लैंडसियर लूट्यन्स इस विशालकाय इमारत के वास्तुकार थे। इस ‘विराटकारी-महल’ मे 340 कक्षो के साथ मुग़ल गार्डन है जिसमे एक अद्भुत ‘गुलाब-वाटिका’ है। भारत के प्रथम भारतीय ‘गवर्नर-जनरल’ श्री सी राजगोपालाचार्य ‘अतिथि-कक्ष’ में रहते थे। भारतीय राष्ट्रपतियों ने भी यही परंपरा स्वतन्त्रता के बाद निभायी।
संक्षिप्त शब्दों मे कहूँ तो यह कहना बिलकुल अनुचित नहीं होगा कि मानो ‘राष्ट्रपति-भवन’ ‘अँग्रेजी-हुकूमत’ द्वारा भारतीयो को एक ऐसी सौगात है जो ‘गुलामी-के-प्रतीक’ के रूप मे ‘स्वाधीनता की कहानी’ खुद बयां करता हो। । क्या हम आज़ादी के 67 साल बाद भी ‘ग़ुलामी-मानसिकता’ से बाहर नहीं आ पाए है?
यह एक कटु सत्य है की आज भी हिंदुस्तान की शासन-प्रणाली मे ‘अँग्रेजी-परंपरा’ का निर्वाह किया जा रहा है।
अब मैं मुद्दे पर आता हूँ की आलेख को लिखने का मुख्य उद्देश्य क्या है? बचपन से ‘राष्ट्रपति’ ‘देखते-सुनते’ आ रहे है। अगर मैं अपने दिमागी ‘घोड़े’ को दौड़ाऊ तो शायद ही भारत के इतिहास मे ‘महामहिम-राष्ट्रपति’ ने कोई ऐसा ‘उत्कृष्ट-कृत’ किया हो जिसने कभी इस ‘सर्वोच्च-पद’ की ‘गरिमा एवं शोभा’ बढ़ायी हो?
इतिहास साक्षी है इस पद पर आसीन व्यक्ति सर्वदा ही ‘निष्क्रिय’ एवं ‘शक्तिविहीन’ रहा है। भारतीय संविधान ने वैसे तो राष्ट्रपति को अपने ‘लिखित-अनुच्छेदों’ मे विभिन्न ‘वैधानिक एवं संवेधानिक’ शक्तियाँ’ दी है परंतु विडम्बना है दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत मे यह शक्तियाँ कितनी ‘प्रभावी’ एवं ‘क्रियान्वित’ है, वो सभी को जगजाहिर है।
अगर बात ‘राष्ट्रपति-की-शक्तियों’ कि की जाए तो उन्हे ‘शक्तियों’ के रूप मे ‘प्रभाषित’ करना ‘शक्ति’ शब्द के ‘शाब्दिक अर्थ’ के साथ बेईमानी करने जैसा होगा।
1॰ भारत के प्रधानमंत्री एवं मंत्रिपरिषद की नियुक्ति करता है।
जी केवल प्रधानमंत्री और मंत्रियो को ‘संविधान एवं गोपनीयता’ की शपथ दिलाने का काम करते है। जो प्रधानमंत्री जी कैबिनेट की सिफ़ारिश करते है उन्हे नियुक्त कर देते है। प्रश्न उठता है यह कौन सी शक्ति है? जहां ‘महामहिम’ अपने विवेक एवं बुद्धि का प्रयोग नहीं कर सकते जो होगा सब ‘प्रधानमंत्री के परामर्श के साथ?
- राष्ट्रपति ही भारत के मुख्य-न्यायाधीश की नियुक्ति करता है।
कानून मंत्रालय की सिफ़ारिश के साथ गौपनीयता की शपथ दिलाते है। यहाँ कौन सी शक्ति है? क्या राष्ट्रपति उस कमिटी का अध्यंक्ष होता है जो ‘मुख्य-न्यायधीश’ का चुनाव करती है?
- राष्ट्रपति संविधान के तहत आपातकालीन की घोषणा कर सकता है।
1975 मे भारत मे आपातकाल लग चुका है। इन्दिरा गांधी की अगुवाई वाली सरकार के विधिमंत्री सिद्धार्थशंकर रे ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को रात में ही जगाकर हस्ताक्षर करा लिये। यह कौन सी ‘शक्ति’ है?
4॰ क्षमादान का अधिकार
राष्ट्रपति के पास किसी भी व्यक्ति की मृत्यु-दंड की सजा को माफ करने का अधिकार है। ‘अफजल-गुरु’ से लेकर ‘नंदिनी’ के जैसे बहुत सारे उदाहरण है जहां ‘राष्ट्रपति’ ने अपनी ‘निष्क्रियता’ दिखाई है।
तथ्य तो यही कहते है की राष्ट्रपति एक ‘शक्तिविहीन’ संवैधानिक प्रमुख होता है जिसके पास शक्तियाँ केवल ‘सरकारी-दस्तावेजो’ मे होती है प्रभावी तौर पर वो पूर्ण रूप से ‘निष्क्रिय’ एवं ‘कार्यविहीन’ होता है।
क्या ‘राष्ट्रपति’ केवल ‘विधयकों’ पर हस्ताक्षर के लिए, तौपों की सलामी के लिए ही होता है????
क्या ‘राष्ट्रपति-भवन’ को अच्छे से ‘सामाजिक-दृष्टिकोण’ के साथ सही उपयोग मे नहीं लाया जा सकता? आज लोगो के पास रहने के लिए लिए ‘घर’ नहीं है। वही दूसरी तरफ भारत के ‘महामहिम’ के पास 340 कमरों का ‘भव्य-महल’ है।
हर साल राष्ट्रपति जी पर भारत सरकार करोड़ो खर्च करती है क्या यह ‘फिजूलखर्ची’ नहीं? क्या यही पैसा भारत की जनता के सामाजिक कल्याण मे नहीं लगाई जा सकता? क्या इतना जरूरी है ‘राष्ट्रपति पद’?
सोचिए जवाब ……दीजिये……
जय हिन्द….जय भारत