इरफान अहमद लोन
भारत को गांव का देश कहा जाता है क्योंकि यहां की अधिकतर आबादी आज भी गांव में ही निवास करती है। प्रकृति की गोद में ही जीवन बसर करती है और प्राकृतिक संसाधनों के माध्यम से जीवन के साधन जुटाती है। शहरों की सुख-सुविधा से दूर इनकी जिंदगी कितनी कठिनार्इयों से गुजरती है। इसका अंदाजा लगाना भी बड़े शहरों में रहने वालों के लिए बहुत मुश्किल होगा। यह बात और है कि शहरों की चमक धमक इन गांवों में भी तेजी से पहुंच रही है, परंतु बुनियादी सुविधाओं की कमी अब भी बरकरार है। जिसका अहसास हमारे नीति निर्धारकों को शायद बहुत कम है। मुमकिन है कि उनके उत्थान के लिए सरकार द्वारा की जा रही कोशिशें रंग लाए, मगर कब यह कहना मुश्किल है।
ग्रामीण क्षेत्रों के जीवन स्तर को उंचा उठाने के लिए बेशुमार सरकारी योजनाएं तो बना दी जाती हैं जिन्हें विभिन्न नामों से कागजों और सरकारी वेबसाइटों पर देखा जा सकता है, परंतु इन योजनाओं का लाभ कितने लोगों तक पहुंचाता है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि प्रत्येक वर्ष मार्च के समाप्त होते ही इन स्कीमों के करोड़ों रूपए सरकार के फंड में यह कहते हुए लौटा दिया जाता है कि खर्च नहीं हो पाए अर्थात् इन पैसों का फायदा उठाने वाला कोर्इ नहीं था। लेकिन जब कभी भी आप गांव का दौरा करेंगे तो आप को यही देखने को मिलेगा कि गांववालों को उन सारी योजनाओं की कितनी आवश्योकता थी। आपको यह महसूस होगा कि ये गांव वाले कितने भोले-भाले हैं जिन्हें अपना अधिकार तक पता नहीं है। यह एक कड़वी सच्चार्इ है कि गांव के अधिकतर लोग अशिक्षित होते हैं जिन्हें योजनाओं की कोर्इ विशेष जानकारी नहीं होती है। स्थानीय अधिकारियों द्वारा योजनाओं से संबंधित उन्हें जो भी सिखा पढ़ा दिया वह आंखें मूंद कर विश्वाबस कर लेते हैं दूसरी तरफ यह सरकारी अधिकारी किसी पचड़े में पड़ने से ज्यादा इस बात की कोशिश में लगे रहते हैं कि किसी तरह मार्च आए कि वह योजनाओं को लौटा कर अपना कर्तव्य पूरा करें।
धरती पर स्वर्ग कहे जाने वाले रियासत जम्मू कश्मीकर भी देश का एक ऐसा सीमावर्ती राज्य है जिसकी करीब अस्सी प्रतिशत आबादी गांव में निवास करती है। जहां केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों द्वारा विभिन्न विकास योजनाओं के तहत करोड़ों नहीं बलिक अरबों रूपए खर्च करने का दावा किया जाता है और प्रत्येक वर्श इसके बजट में वृद्धि भी की जाती है। परंतु यह सारे पैसे जाते कहां हैं, किन विकास योजनाओं में खर्च हो जाते है समझ में नहीं आता है। हाल के दिनों में मैंने स्वंय कष्मीर के कर्इ गांवों का दौरा किया जहां न पीने का साफ पानी मुहैया है, न कोर्इ अस्पताल की सुविधा है और न ही परिवहन का कोर्इ माध्यम। विज़न 2020 मिशन के तहत भारतवर्ष में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए चलाए जा रहे प्रोग्रामों की यहां कोर्इ झलक तक नजर नहीं आती है। कश्मीवर के इन सुदूर गांवों में उच्च विधालय की बात तो दूर छोटे बच्चों के लिए प्राथमिक विधालय तक उपलब्ध नहीं है। ऐसा ही एक गांव है शेख मुहल्ला, जो कश्मी र के सीमावर्ती जिला कुपवाड़ा से तकरीबन 30 किलोमीटर दूर सिथत वारसन इलाके का एक हिस्सा है।
यूं तो समूचा वारसन क्षेत्र ही बुनियादी सुविधाओं से वंचित है परंतु जो हालत इस शेख मुहल्ला गांव की है वह किसी आदिम युग के हालात की याद दिलाता है। करीब दो सौ से अधिक की आबादी वाला यह गांव 21वीं सदी में भी सड़क संपर्क से पूरी तरह कटा हुआ है। गांव में प्रवेश के लिए कोर्इ सड़क साधन नहीं है बलिक खेतों की पगडंडियों अथवा जान जोखिम में डालकर पहाड़ों के पथरीले और खतरनाक रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है। आजकल राज्य में बर्फबारी हो रही है जो प्रत्येक वर्श करीब तीन-चार महिनों तक जारी रहती है, ऐसे में इन रास्तों से गुजरना किस हद तक खतरनाक हो सकता है इसका अंदाजा भी लगाना कठिन है। परंतु किस्मत के मारे इन गांववालों के लिए इसके अलावा और कोर्इ रास्ता भी तो नहीं है।
यहां के हालात पर जब मैंने वार्ड सदस्य गुलाम हसन से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि जब गांव में कोर्इ बीमार होता है तो हम उसे चारपार्इ पर डाल कर अस्पताल ले जाते हैं जो गांव से करीब पांच-सात किलोमीटर दूर है। कभी कभी तो मरीज का रास्ते में ही स्वास्थ्य इस कदर बिगड़ जाता है कि उसकी मौत हो जाती है और हमें बाद में पता चलता है कि हमारे कंधों पर मरीज नहीं लाश है। सरकारी योजनाओं से किसी तरह के फायदे पर उनका कहना था कि आज तक जब किसी सरकारी अधिकारी अथवा जनप्रतिनिधि ने इस गांव का दौरा ही नहीं किया तो योजनाओं की जानकारी हम तक पहुंचने का प्रश्नौ ही कहां उठता है। उन्होंने बताया कि यह गांव आज भी बुनियादी सुविधाओं से पूर्णत: वंचित है। गांव में एक भी प्राथमिक चिकित्सा केंद्र का उपलब्ध न होना स्वंय सरकार के गांव-गांव तक बेहतर स्वास्थ्य उपलब्ध कराने के वायदे की वास्तविकता को बयां कर रहा है। गांव वालों को सरकारी योजनाओं से वंचित होने की सजा उन्हें अशिक्षित होने के कारण मिल रही हैं जिसके बगैर वह अपने अधिकारों से अनजान हैं। उन्हें यह नहीं मालूम कि सरकार उनके उत्थान के लिए क्या कर रही है, क्या करना चाहती है और उन्हें इससे किस प्रकार फायदा उठाने की आवष्यकता है। अलबत्ता यह भोले भाले ग्रामीण पंचायत से लेकर लोकसभा तक के चुनाव में इस आशा के साथ वोट डालने के लिए घरों से बाहर निकलते हैं कि शायद इस बार शासन उनपर मेहरबान हो जाए, परंतु हर बार उनके लिए यह उम्मीद किसी परी कथा की तरह साबित होती है।
गांव के लोग अशिक्षित जरूर हैं लेकिन वह नर्इ पीढ़ी को शिक्षा के अधिकार से वंचित नहीं रखना चाहते हैं। अब इसे गांव की नर्इ पीढ़ी की बदकिस्मती ही कहिए कि क्षेत्र में एक भी प्राथमिक विधालय की सुविधा तक उपलब्ध नहीं है। प्रश्ने उठता है कि शिक्षा से वंचित यहां की नौजवान पीढ़ी को जब कोर्इ नौकरी नहीं मिलेगी तो अपनी आवश्याकता की पूर्ति के लिए क्या वह कोर्इ ऐसा कदम नहीं उठा लेंगे जो आगे चलकर देशहित में नुकसानदेह साबित होगा? आखिर पैसों की जरूरत सबको होती है जब शहरी युवा पैसों की पूर्ति के लिए अपराध के रास्ते पर चल पड़ते हैं तो क्या यह संभव नहीं है कि रोजगार से वंचित इन युवाओं को पैसों का लालच देकर देश के दुश्मिन अपने जाल में न फंसा लें? प्रश्नय तो यह भी उठता है कि जब हुकुमत सीमा की रक्षा के लिए अरबों रूपए खर्च कर रही है तो क्या वह सीमावर्ती लोगों की बुनियादी आवश्यपकताओं की पूर्ति के लिए कुछ नहीं करना चाहती है? यदि सच है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी क्योंकि सीमा तबतक सुरक्षित नहीं हो सकता है जबतक सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वालों का हमें समर्थन नहीं मिलता है और यह समर्थन उसी वक्त हासिल हो सकता है जब उन्हें भी शासन में हिस्सेदारी का एहसास हो। गणतंत्र के 63 वर्ष बाद भी यदि हम कश्मीरियों को शासन में भागीदारी का अनुभव नहीं करा सके तो यह हमारे तंत्र की गंभीर त्रुटि है। जिसमें समय रहते सुधार करना आवश्यकक है। हम तन-मन-धन से यह कहने पर जोर लगा देते हैं कि कश्मीेर हमारा है, परंतु क्या हमने कभी यह सोचा है कि कश्मीरी भी हमारे हैं। (चरखा फीचर्स)
इरफान अहमद लोन अपने लेख का अंत करते हैं, निम्न विधान से।
(१)==>”हम तन-मन-धन से यह कहने पर जोर लगा देते हैं कि कश्मीर हमारा है, परंतु क्या हमने कभी यह सोचा है कि कश्मीरी भी हमारे हैं।”<=== (चरखा फीचर्स)
उत्तर:
(क)
अधिकार और कर्तव्य दोनों में कर्तव्य ही श्रेष्ठ, और मूल कारण, मानता हूं। ताली भी दोनों हाथों से बजती है।
(ख)
क्यों कोई कश्मीरी यह नहीं कहता, कि मातृभूमि भारत भी मेरी मातृभूमि है। मैं क्या कर सकता हूँ उसके लिए?
कम से कम पूछे तो सही। आपके अधिकार की पूर्ति भी किसी और के कर्तव्य से ही होगी ना?
(ग)
किस न्याय से, अपने लहू के हिन्दू पण्डितों को खदेड ने में सफल हुआ?
(घ)
कहो कि कश्मीर को भी सारे भारत को लागू होनेवाला समान संविधान चाहिए।
है साहस?
या फिर रोते ही रहोगे?
(च)
तो क्या एक पक्षी ( तरफा) अपेक्षा रखते हैं आप?
इसे अंगांगी भाव कहते हैं।
कभी यह शब्द सुना भी है?
(छ) आप ने जो, सच्चाई दर्शायी है, उस से कोई वाद नहीं।