शिक्षित और सम्पन्न सभी वर्ग परिवार नियोजन अपनाते रहे हैं!
विहिप नेता प्रवीण तोगड़िया ने मांग की है कि दो से अधिक बच्चे पैदा करने वाले मुस्लिमों को कानून बनाकर सज़ा देनी चाहिये। हालांकि संविधान ऐसा करने की इजाज़त नहीं देता और अगर ऐसा कोई पक्षपात पूर्ण कानून बनाया भी गया तो उसको संसद और राज्यसभा पास नहीं करेगी अगर यह काम विवादित भूमि अध्यादेश की तरह करने की कोशिश की गयी तो यह सुप्रीम कोर्ट में स्टे हो जायेगा। यह सच तोगड़िया भी जानते होंगे लेकिन उनको राजनीति करनी है सो उन्होंने यह बचकाना बयान दिया। अगर वह बढ़ती आबादी को लेकर वास्तव में चिंतित होते तो सबके लिये अनिवार्य परिवार नियोजन यानी दो बच्चो का कानून बनाने की बात करते और इतना ही नहीं अपनी बीजेपी सरकार को ऐसे सकारात्मक और रचनात्मक सुझाव देते जिससे सांप भी मर जाता और लाठी भी नहीं टूटती लेकिन उनको घृणा और अलगाव की राजनीति करनी है जिसके लिये ऐसे बेतुके और अव्यावहारिक बयान ही दिये जा सकते हैं।
धार्मिक आधार पर आबादी के जो आंकड़े सरकार ने पिछले दिनों जारी किये हैं उनमें अल्पसंख्यकों का सबसे बड़ा वर्ग यानी मुसलमानों की आबादी की बढ़त देश के सबसे बड़े हिंदू वर्ग के मुकाबले डेढ़ गुना ज़्यादा है। इससे पता चलता है कि जहां पहली बार देश में हिंदुओं की आबादी 80 प्रतिशत से भी कम हो गयी है वहीं मुस्लिम कुल आबादी का 13-8 से बढ़कर 14-2 प्रतिशत हो गये हैं। आंकड़े बताते हैं कि 1981 से 1991 के दशक में जहां मुस्लिमों की बढ़त दर 32-88 प्रतिशत थी वहीं 1991 से 2001 के दशक में यह घटकर 29-51प्रतिशत हुयी और इस बार 2001 से 2011 के दशक में यह 24-60 प्रतिशत तक गिर गयी है। उधर इसी दौरान तीन दशक में हिंदू आबादी की बढ़त क्रमशः 22-71] 19-92 और इस बार 16-76 तक गिरी है।
यह तथ्य बिल्कुल सच है कि मुस्लिम आबादी हिंदू आबादी ही नहीं अन्य अल्पसंख्यक वर्ग के मुकाबले भी काफी तेजी़ से बढ़ती रही है लेकिन इन्हीं आंकड़ों में एक आंकड़ा और शामिल है कि तीन दशक में मुस्लिम आबादी की बढ़त मेें हिंदू आबादी की बढ़त के मुकाबले ज्यादा गिरावट आई है। आप इस अंतर को इस तरह से देख सकते हैं कि जहां हिंदू आबादी में 30 साल में 5-95 प्रतिशत कमी आई है वहीं मुस्लिम आबादी की बढ़त में इसी दौरान 8-28 प्रतिशत की कमी आई है। इसे आप चाहें तो इस तरह की परिभाषित कर सकते हैं जैसे पानी से आधा भरे गिलास को लेकर सकारात्मक और नकारात्मक सोच का पता चलता है। यह ठीक है कि मुस्लिम आबादी की तेज़ बढ़त देश ही नहीं उनके अपने समाज के लिये भी चिंता का सबब है लेकिन यहां इस सत्य को नहीं भुलाया जा सकता कि पहले हिंदू और मुस्लिम समाज में बढ़त का जो अंतर 10 प्रतिशत से ज़्यादा था वह तीन दशक बाद घटकर 8 प्रतिशत से भी कम रह गया है।
मतलब कहने का यह है कि जहां 2001 से 2010 तक हिंदू आबादी में पिछले दशक के मुकाबले 3-16 प्रतिशत की कमी आई वहीं मुस्लिम आबादी में गिरावट की दर बढ़त के बावजूद 4-92 रही जो एक अच्छा संकेत है। हालांकि यह दुष्प्रचार काफी समय से चल रहा है कि अगर मुस्लिमों की आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो देश में एक दिन ऐसा आयेगा कि जब मुस्लिम हिंदुओं से अधिक हो जायेंगे। इसके साथ ही यह भय भी खूब फैलाया जाता है कि उस दिन भारत को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर दिया जायेगा और गैर मुस्लिमों पर शरीयत कानून थोपकर उनसे मुगलकाल की तरह जज़िया वसूली की जायेगी। काल्पनिक तौर पर ऐसा अनर्थ होने का समय 220 साल भी तय कर दिया गया था लेकिन एक दशक बाद ही यह दावा झूठा साबित होता नज़र आ रहा है क्योंकि दोनों वर्गों की आबादी का अंतर लगातार कम होता जा रहा है जिससे ऐसा कभी नहीं होगा कि मुस्लिम आबादी देश की सबसे बड़ी आबादी बन जाये।
दूसरा तथ्य इस सारी बहस में यह भुला दिया गया है कि आबादी ज्यादा बढ़ना या तेज़ी से बढ़ना किसी सोची समझी योजना या धर्म विशेष की वजह से नहीं है बल्कि तथ्य और सर्वे बताते हैं कि इसका सीधा संबंध शिक्षा और सम्रध्दि से है। अगर आप दलितों या गरीब हिंदुओं की आबादी की बढ़त के आंकड़े अलग से देखें तो आपको साफ साफ पता चलेगा कि उनकी बढ़त दर कहीं मुस्लिमों के बराबर तो कहीं उनसे भी अधिक है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस तरह केरल सबसे शिक्षित राज्य है और वहां आबादी की बढ़त 4-9 प्रतिशत यानी लगभग ज़ीरो ग्रोथ आ गयी है जिसमें मुस्लिम भी बराबर शरीक है और देश में सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी की बढ़त असम में 30-9 से बढ़कर 34-2 प्रतिशत पाई गयी है जिसका साफ मतलब है कि बंग्लादेशी घुसपैठ से भी यह उछाल आया है।
अब हम आपको एक और रोचक तथ्य बताते हैं कि एक तरफ तो संघ परिवार धर्म के आधार पर जनगणना का विरोध करता है और दूसरी तरफ उसकी सरकार मांग के बावजूद जाति के आधार पर जनगणना के आंकड़े जारी न कर बिना किसी की मांग के बिहार चुनाव से ठीक पहले धार्मिक आधार पर वोटों के ध्ु्रवीकरण की नीयत से धर्म के आधार पर आबादी के आंकड़े जानबूझकर डरावने बनाकर पेश करती है। इससे पहले यही आंकड़े दिल्ली में विधानसभा चुनाव से दो सप्ताह पहले 22 जनवरी 2015 को भारत सरकार की ओर से अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया को उपलब्ध कराये गये थे। दिल्ली में चुनाव 7 फरवरी 2015 को हुआ था। इतना ही नहीं 15 मार्च 2014 को ओपन मैगज़ीन में ^^द अनटोल्ड सेनसस स्टोरी** शीर्षक से यही आंकड़े सार्वजनिक किये गये थे जबकि 7 अपै्रल से 12 मई तक आम लोकसभा चुनाव हुआ था।
सवाल यह है कि इन आंकड़ों को जारी करने का चुनाव के दौरान एक के बाद एक संयोग नहीं हो सकता यह एक सोची समझी योजना का हिस्सा है जिससे राजनीति मुद्दो और विकास के आधार पर न कर धर्मिक आबादी के ध््रुावीकरण के आधार पर लोगों को बांटकर डराकर और भावनाओं में बहाकर वोट लेने की घिनौनी कोशिश बार बार की जाती हैं।
यह ठीक है कि जनसंख्या विस्फोट को रोकने को सभी को परिवार नियोजन अपनाना चाहिये और स्वयं भारत सरकार के जनगणना के आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि मुस्लिम भी समय के साथ विकास और प्रगति में भागीदारी बढ़ने और उच्च शिक्षित होते जाने के साथ बड़ी संख्या में परिवार सीमित करने के लाभ समझकर परिवार नियोजन अपना रहे हैं लेकिन अगर मुस्लिम का ही कोई वर्ग विशेष बच्चो को अल्लाह की देन बताकर ऐसा करने से परहेज़ करता है तो भाजपा की पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार सबके लिये अनिवार्य परिवार नियोजन कानून बनाने से पीछे क्यों हट रही है. संघ परिवार तो मुस्लिम तुष्टिकरण के खिलाफ़ रहा है उसको तो वोटबैंक की राजनीति की चिंता नहीं करनी चाहिये और मुस्लिम आबादी बढ़ने का हव्वा दिखाकर हिंदुओं को भयभीत करने की ओछी राजनीति से बचना चाहिये वर्ना लोग यही कहेंगे कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने का और होते हैं और भाजपा के सरकार बनाने से पहले के सारे दावे “जुमले” ही अधिक थे……।
उसके होंटो की तरफ़ न देख वो क्या कहता है
उसके क़दमों की तरफ़ देख वो किधर जाता है।।
इकबाल साब , जनगणना के आकड़े जारी करने की बात आपने खूब कही ….! मार्च २०१४ में केंद्र में कोंग्रेस की सरकार थी और उसने इन आंकड़ो को जारी नही किया बल्कि छुपाया . बावजूद इसके कांग्रेस चुनाव हार गयी …. और जनवरी २०१५ में ऐसे आंकड़े जारी करके क्या भाजपा ने दिल्ली का चुनाव जीत लिया …. ?? राजनीति में एसी चालाकी तो आम बात हैं लेकिन पूरा गेम किसी के हाथ में नही होता …..!!