प्रखर राष्ट्रीय क्रांतिकारी भगत सिंह

– मृत्युंजय दीक्षित

मात्र 23 वर्ष की अल्पायु में ही फांसी के फंदे पर झूलकर भगत सिंह ने स्वातंत्र्य समर में उदाहरण प्रस्तुत किया जो पूरे विश्व के इतिहास में दुर्लभ है। प्रखर राष्ट्रवादी विचार, चमत्कृत करने वाली दूरदृष्टि, ओजस्वी वाणी दृश्य को बेधने वाली लेखनी और कतृत्व में विद्रोह की लपटें उनकी पहचान है। 1857 की स्वाधीनता संग्राम के पश्चात् सशस्त्र क्रांति का श्री गणेश करने वाले सरदार भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को लायलपुर जिले के बंगा गांव में सरदार किशन सिंह और माता विद्यावती के घर हुआ था। जीवन में संस्कारों का महत्व होता है। भगत सिंह जिस प्रकार के पारिवारिक परिवेश में जन्में-पले, जैसे-जैसे कदम बढ़ाते गए उन संस्कारों का प्रभाव उनकी भविष्य की दिशा निर्धारित करता चला गया। उनके पिता सरदार किशन सिंह ने उन्हें खालसा स्कूल की बजाए डी. ए. वी. स्कूल लाहौर में प्रवेश दिलवाया, क्योंकि खालसा स्कूलों में उन दिनों ‘गॉड सेव द किंग’ यानी ब्रिटिश सम्राट की रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना का गीत गाया जाता था। बाल्यावस्था में ही क्रांतिकारी बनने का बीज पड़ गया था। जब वे कक्षा 4 के विद्यार्थी थे अपने साथियों से पूछा करते थे कि बड़े होकर क्या करोगे? कोई कहता मैं नौकरी करूंगा। कोई कहता मैं खेती करूंगा। कोई दुकानदारी की बात कहता। जबकि वे कहते थे कि मैं तो अंग्रेजो को देश से बाहर निकालूंगा। उनकी बाल्यावस्था के उदाहरण से उनकी उत्कृष्ट राष्ट्रभक्ति का परिचय मिलता है। एक बार भगत सिंह अपने पिता के साथ खेत में गये हुए थे। अचानक वे पिता की उंगली छोड़कर खेत में बैठ गए और छोटे तिनके जमीन में रोपने लगे। कुछ देर बाद पिता ने पूछा कि क्या कर रहे हो? भगत सिंह क ा उत्तर था बंदूकें बो रहा हँ। वे भाव आयु के साथ प्रबल होते जा रहे थे। लेकिन 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में जलियावाला बाग की विभत्स व हृदय विदारक घटना ने 12 वर्षीय भगत सिंह के जीवन को वह दिशा दी जिसके लिए वे जन्मे थे। उन्होंने जलियावाला बाग की मासूमों के खून से लथपथ मिट्टी उठाई और अपने मस्तक पर लगाई तथा कुछ मिट्टी शीशी में भरकर अपने साथ ले आए और घर आकर अपनी बहन से कहा कि अंग्रेजों ने हमारे बहुत से आदमी मार दिये हैं। वे लंबे समय तक उस माटी पर फूल चढ़ाकर जलियावाला बाग का बदला लेने का प्रण करते रहे। यह बलिदान की अनूठी, अनोखी, अप्रतिम वंदना थी। 1920 में नौंवी कक्षा में पहुंच कर भगत सिंह ने पढ़ाई छोड़कर स्वाधीनता आंदोलन में कुदने का निर्णय कर लिया। उनके पिता सरदार किशन सिंह ने भी उनके इस संकल्प की पूर्ति में योगदान दिया। वे स्वदेशी आंदोलन में शामिल हो गए। विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के लिए नवयुवकों की टोलियां बनाकर निकल पड़े। उनकी संगठन-शक्ति, तेजस्विता और व्यवहार कुशलता का संबल संगठन को मिलने लगा। लकिन 5 फरवरी, 1922 को गोरखपुर जिले में हुए चौरी-चौरा कांड के बाद गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया और हिंसा-अहिंसा पर बहस छिड़ गई तब उनके मन में यह प्रश्न उठा कि हम देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं या इस विवाद में उलझ रहे हैं कि क्या श्रेष्ठ हैं-हिंसा या अहिंसा? लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना एक राष्ट्रवादी संगठन के रूप में की गई थी जो लाजपत राय के निर्देशन में एक सरस, सजीव, राजनैतिक, ज्ञानवर्धक और उद्बोधक पाठयक्रम लेकर शिक्षा प्रदान करता था। सरदार किशन सिंह ने भगत सिंह का वहां प्रवेश करा दिया। उस समय वहां अनेक राजनैतिक बहसें होती थी जिनमें भगत सिंह सशस्त्र विद्रोह का पुरजोर समर्थन करते थे।

भगत सिंह का एक स्पष्ट लक्ष्य था भारत की आजादी और एक ऐसी व्यवस्था के निर्माण का जहां किसी भी प्रकार के शोषण का कोई स्थान न हो। वे राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक यहां तक कि वैयक्तिक शोषण के विरुध्द लड़े थे। वर्ष 1924 में भगत सिंह कानपुर आ गए तथा यहां उनका परिचय गणेशशंकर विद्यार्थी से हुआ तथा वे उनके दैनिक पत्र ‘दैनिक प्रताप’ से सह-संपादक के रूप में जुड़े। यहां उनका संपर्क प्रसिध्द क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सन्याल, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त तथा कुछ अन्य क्रांतिकारियों से हुआ। 1925 में भगत सिंह ने दिल्ली के प्रसिध्द समाचार-पत्र ‘वीर अर्जुन’ में भी कार्य किया। इस पत्र के संचालक स्वामी श्रध्दानंद के पुत्र विद्या वाचस्पति थे। 1926 का वर्ष भारत के क्रांतिकारी इतिहास का महत्वपूर्ण वर्ष था जब नौजवान भारत सभा की स्थापना हुई। भगत सिंह इस सभा के पहले सचिव थे। नौजवान भारत सभा का मुख्य उद्देश्य था भारत में एक सुदृढ़ राष्ट्र के निर्माण के लिए नवयुवकों में देशभक्ति की भावना जगाना। इसमें भर्ती होने वाले के प्रत्येक सदस्य को अपने स्वार्थों से उपर उठकर देशभक्ति एवं देशहित को सर्वोपरि मान लेने की शपथ लेनी होती थी। नौजवान भारत सभा ने भारतीयता के भाव, स्वदेशी, स्वास्थ्य, देश की एकता जैसे कई महत्वपूर्ण कार्य किए। साइमन कमीशन का विरोध होना चाहिए यह बात भारतीय समाज के नस-नस में दौड़ने लगी थी। 30 अक्टूबर, 1928 को तब लाहौर में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन के विरोध में जुलूस का आयोजन हुआ इस जुलूस पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया जिससे लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए तथा 17 नवंबर, 1928 को उनकी मृत्यु हो गई। लालाजी के बलिदान से जहां एक ओर पूरा देश स्तब्ध था वहीं क्रांति की अलख भी जग रही थी। भगत सिंह और उनके साथियों का खून खौल उठा। उन्होंने लालाजी की मौत का बदला लेने का निश्चय किया। प्रकरण का खलनायक सांडर्स मारा गया। सांडर्स की हत्या पर उन्हाेंने अपने एक पत्र में मित्र को लिखा कि लाहौर का विस्फोट सुनाई पड़ी। धन्य-धन्य अनेक बार धन्य। इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम अपेक्षित परिवर्तन तो किया जा सका। अंततः भगत सिंह व उनके साथियों को लाहौर से भागना पड़ा। भगत सिंह ने दिसंबर, 1928 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। कलकत्ता में ही उनकी प्रसिध्द क्रांतिकारी जितेंद्रनाथ दास से गहरी दोस्ती हुई जो बम बनाने की कला में दक्ष थे। वापस लौटने पर भगत सिंह ने आगरा, सहारनपुर, दिल्ली आदि में कई बम फैक्ट्रियों की योजना बनाई। भगत सिंह बैचेन थे। बाहरी अंग्रेज सरकार को सुनाने और जगाने के लिए एक बड़े धमाके की जरूरत है। क्या होगा वह धमाका और कैसा होगा? अंततः फैसला हुआ असेंबली में बम फेंकने का। 8 अप्रैल, 1929 को जब वित्त सदस्य सर जार्ज शूसचुस्टर जन सुरक्षा कानून की घोषणा कर रहा था, तो दर्शक दीर्घा में बैठे दो नवयुवक भारतीय स्वाधीनता संग्राम की सबसे महत्वपूर्ण घटना को अंजाम देने को तैयार थे। अचानक असेंबली हाल में बम फटा। अफरा-तफरी मच गयी। दो नवयुवकों ने ‘लांग लिव रिवोल्यूशन’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए आत्मसमर्पण कर दिया। नवयुवक थे सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त। इस घटना के लिए सत्र न्यायाधीश मेडलटोन ने दोनों को 12 जून, 1929 को जीवन पर्यंत कैद की सजा सुनाई तथा भगत सिंह को मियांवलि जेल तथा बटुकेश्वर दत्त को लाहौर जेल भेज दिया गया। भगत सिंह 8 अप्रैल, 1929 से 23 मार्च, 1931 तक का जीवन भी कम क्रांतिकारी नहीं था। भगत सिंह तथा उनके साथियों ने भूख हड़ताल कर अंग्रेज सरकार की नींद उड़ा दी थी। उन्होंने जेल में ही राष्ट्रीय जागरण की व्यूह रचना की। उन्होंने अदालत से काकोरी दिवस और लाला लाजपत राय दिवस मनाने की सुविधा प्राप्त कर ली। बौखलाई अंग्रेज सरकार ने इसी बीच सांडर्स का केस दुबारा खोला। अदालत और गवाहियों का नाटक प्रारंभ हुआ। जिसका परिणाम सभी जानते थे। 7 अक्टूबर, 2010 को भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी देने का निर्णय की औपचारिक घोषणा हुई। 23 मार्च, 1931 को भारत राष्ट्र के लिए और जहां शोक की काली रात सा था वहीं बलिदान की महान परंपरा के लिए सूरज की पहली सुबह थी। फांसी के समय भगत सिंह का मन एक महान योगी की भांति शांत था। लेकिन भगत सिंह नश्वर शरीर को मां भारती की स्वाधीनता के लिए बलिदान कर अमर हो गए। अंग्रेज सरकार उस समय इतना भयाक्रांत हो चुकी थी कि सभी नियमों को दरकिनार कर उन्हें व साथियों को समय पूर्व हीं फांसी दे दी। उनकी लाशों को बोरे में भरकर फिरोजपुर जिले के हुसैनावाला पुल के निकट ले जाया गया। मिट्टी का तेल डालकर अधजली लाशों को सतलुज नदी में फेंका गया। फांसी की पुरी प्रक्रिया में सभी नियमों को तिलांजलि देकर अंग्रेज शासकों ने अपना और अपनी बेरहम सत्ता का एक भयानक खौफनाक चेहरा दुनिया के सामने प्रकट किया था। राष्ट्र सिसक रहा था उसका सपूत बार-बार इसी धरा पर जन्मने की सौगंध ले महाप्रयाण कर चुका था। करोड़ों युवकों के हृदय में क्रांति के बीज रोप कर।

* लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

2 COMMENTS

  1. दीछित जी अपने छोटे से लेख में भगत सिंह जैसे महान क्रन्तिकारी के सम्पूर्ण जीवन को बहुत अच्छी तरह कम शब्दों में लिखा है धन्यवाद आप जैसे लोगो के वजह से भगत सिंह जैसे बीर सपूतो के बारे में आज की पीढ़ी जान पायेगी आज का समय देखे हुए लगता है कि भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवाशी की देश भक्ति की सजा आज भी मिलेगी फासी की

  2. महान क्रांतिकारी भगत सिंह सदा अमर रहेंगे. काश आज के नौजवानों में भी भगत सिंह जैसा जज्बा हो.

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