धर्म सत्कर्तव्यों के ज्ञान व पालन और असत् कर्मों के त्याग को कहते हैं

0
154

-मनमोहन कुमार आर्य
धर्म के विषय में तरह तरह की बातें की जाती हैं परन्तु धर्म सत्याचरण वा सत्य कर्तव्यों के धारण व पालन का नाम है। यह विचार व सिद्धान्त हमें वेदाध्ययन करने पर प्राप्त होते हैं। महाराज मनु ने कहा है कि धर्म की जिज्ञासा होने पर उनका वेदों से जो उत्तर व समाधान प्राप्त होता है वही धर्म होता है। उनका कथन है ‘धर्म जिज्ञासानाम् प्रमाणम् परमं श्रुति’ अर्थात् धर्म की जिज्ञासा का जो समाधान वेदों से मिलता है वही परम प्रमाण होता है। विचार करने पर मनुष्य को कर्तव्यों का ज्ञान होना व उसके द्वारा उनका पालन करना ही धर्म सिद्ध होता है। मनुष्य का जीवन एक जीवात्मा द्वारा मनुष्य शरीर में विद्यमान रहकर सत्य व असत्य कर्मों का केन्द्र व स्थान होता है। मनुष्य को परमात्मा ने सत्य व असत्य कर्मों में भेद करने के लिए बुद्धि दी है। बुद्धि को सत्यासत्य का विवेक करने की क्षमता से युक्त करने के लिये ज्ञान प्राप्ति वा अध्ययन करना होता है। मनुष्य के लिए कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये वेद ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका कारण है कि वेदों में जो ज्ञान से युक्त मन्त्र व विचार हैं वह अल्पज्ञ व भ्रान्त मनुष्यों की रचनायें न होकर सर्वज्ञ परमात्मा जिसने इस जगत को बनाया व जो इस जगत का पालन कर रहा है, उसका नित्य ज्ञान है जिसमें न तो किसी प्रकार की भ्रान्ति है और न ही कहीं कुछ असत्य का समावेश है।

परमात्मा का ज्ञान निभ्र्रान्त होता है और ऐसा ही निभ्र्रान्त ज्ञान वेदों से प्राप्त होता है। संसार के वेदेतर ग्रन्थ व पुस्तकें जिनसे मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता है, वह ज्ञान भी वहां वेदों से ही गया है परन्तु मनुष्यों द्वारा उसका संकलन व लेखन करने से उसमें अल्पज्ञता के कारण अनेक दोषों, भ्रान्तियों व असत्य का समावेश मिलता है। यही कारण है कि संसार की सर्वथा शुद्ध पुस्तक यदि वेद के बाद कोई है तो वह उन ऋषियों के ग्रन्थ हैं जिन्होंने योग-ध्यान साधना से ईश्वर का साक्षात्कार किया हुआ था। ऋषियों ने जो भी बातें लिखी हैं वह वेदों के व्याख्यान रूप में ही वेदों की बातों को साधारण मनुष्यों को समझाने के लिये लिखी हैं। यही कार्य अध्यापक विद्यालयों में अपने शिष्यों को अध्ययन कराते समय करते हैं। वेदों के बाद ऋषियों के धर्म व ज्ञान विज्ञान से युक्त जो ग्रन्थ हैं वह उपनिषद तथा दर्शन आदि ग्रन्थ हैं। विशुद्ध मनुस्मृति से भी मनुष्यों को शुद्ध ज्ञान व अपने कर्तव्यों का बोध होता है। इसलिए मनुस्मृति ग्रन्थ की संज्ञा मानव धर्मशास्त्र है। मनुस्मृति का वही भाग व सिद्धान्त ग्राह्य होते हैं जो कि सर्वथा वेदानुकूल हैं। सत्य व असत्य की परीक्षा न्याय दर्शन के सिद्धान्तों से की जा सकती है और किसी भी ग्रन्थ की सत्य व असत्य मान्यताओं को जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग किया जा सकता है। इस प्रकार से हमें जो सत्य प्राप्त होता है उसका ज्ञान, उसका धारण और उसके अनुसार ही अपने सभी कर्मों को करना धर्म कहलता है। 

महर्षि दयानन्द जी वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व ऋषि थे। वह वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थों को जानने वाले थे। उन्होंने वेदों के आधार पर न केवल सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थ ही लिखे हैं अपितु वेदों के मन्त्रों का क्रमशः वेदार्थ व भाष्य भी किया है। यदि विष देकर उनका जीवन समाप्त न किया गया होता तो वह कुछ काल बाद वेदभाष्य का कार्य करते हुए वेदों के साढ़े बीस हजार से कुछ अधिक मन्त्रों का पूरा भाष्य व वेदार्थ कर देते। उन्होंने आंशिक ऋग्वेद तथा सम्पूर्ण यजुर्वेद का भाष्य किया है। उनका वेदभाष्य संस्कृत व हिन्दी दोनों भाषाओं में है। एक व्यक्ति अपना कोई ग्रन्थ दो भाषाओं में एक साथ लिखे, ऐसा प्रायः नहीं होता। ऋषि दयानन्द ने विद्वानों की सन्तुष्टि सहित सामान्य जनों पर अपनी दयादृष्टि के कारण संस्कृत के साथ हिन्दी में भी अपूर्व वेदभाष्य किया। समाज में यजुर्वेद के नाम पर सबसे अधिक भ्रान्तियां थी अतः उन्होंने यजुर्वेद का भाष्य प्रथम पूरा किया। इस वेदभाष्य का अध्ययन कर लेने पर मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा तथा अपने सभी कर्तव्यों का बोध हो जाता है जिसको धारण व आचरण में लाकर वह सच्चा धार्मिक मनुष्य बनता है। ऋषि की आक्समिक मृत्यु के कारण जो वेदभाष्य नहीं हो सका था उसे उनके शिष्यों ने पूरा कर दिया है। सम्प्रति चार वेदों का अनेक विद्वानों द्वारा वेद के आर्ष व्याकरण पद्धति के अनुसार किया गया भाष्य उपलब्ध होता है जिसका अध्ययन कर मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान वेदों को जान कर लाभ उठा सकते हैं। 

आर्यसमाज से जुड़े लोगों का सौभाग्य है कि उनके पास चारों वेदों का वेदभाष्य मुख्यतः हिन्दी भाषा में तो होता ही है। कुछ लोगों के पास संस्कृत तथा अंग्रेजी आदि भाषाओं में भी वेदों का भाष्य होता है जिसका अध्ययन कर मनुष्य धर्म विषयक गहन ज्ञान कर सकता है। आर्यसमाज के पास चारों वेदों का अध्ययन किये हुए अनेकों विद्वान हैं जो धर्म विषयक विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों में सिद्ध व विज्ञ कहे जा सकते हैं। वस्तुत यही विद्वान विश्व गुरु कहला सकते हैं। वेदों का अध्येता वेदाध्ययन व वेदाभ्यास से निष्पक्ष एवं मनुष्यता का उपकार करने वाला होता है। वह किसी से पक्षपात नहीं करता। अतः धर्म व अधर्म विषय में उनके विचारों व मन्तव्यों को ही देश व विश्व की जनता को मानना चाहिये। मनुष्य यदि अपना सामान्य जीवन जीते हुए प्रतिदिन एक या दो घण्टे घर पर ही वेद, उपनिषद व दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन करे तो वह कुछ महीने व वर्ष में ही समस्त वैदिक साहित्य का पारायण कर सकते हैं और सृष्टि के सभी व अधिकांश रहस्यों को जान सकते हैं। सत्य के जिज्ञासु मनुष्यों को जीवन में सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका से आरम्भ करके उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति एवं वेदों का अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने से उनका ईश्वर, आत्मा तथा प्रकृति व सृष्टि विषयक ज्ञान उन्नति व शिखर को प्राप्त हो सकता है। हम समझते हैं कि मनुष्य वेदाध्ययन आर्यसमाज के सम्पर्क में रहकर तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से मार्गदर्शन प्राप्त कर ही सुगमता व उत्तमता से कर सकते हैं। 

धर्म सत्य ज्ञान व ज्ञानयुक्त सत्कर्तव्यों के पालन को कहते हैं। ऋषियों ने मनुष्यों की सहायता के लिये वेदों के आधार पर पंचमहायज्ञों को करने का विधान किया है। मनुष्यों पर सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा सच्चिदानन्दस्वरूप अनादि व नित्य सत्ता ईश्वर के अनादि काल से अनन्त उपकार हैं। अतः मनुष्य को आचार्यों से व वेदादि साहित्य के अध्ययन से ईश्वर व आत्मा का सत्यस्वरूप जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये। ईश्वर को जानना व उसकी उपासना करना मनुष्यों का सर्वोपरि प्रथम कर्तव्य व धर्म है। जो ऐसा नहीं करते वह कृतघ्न और महामूर्ख होते हैं। इसका कारण यह है कि परमात्मा ने अतीत व वर्तमान में हम पर जो उपकार किये हैं व वह जो वर्तमान में भी कर रहा है, उनको जानकर उसका धन्यवाद करना होता है। मनुष्य का यह प्रमुख प्रथम कर्तव्य है जिसे प्रथम महायज्ञ सकते हैं। इसका नाम सन्ध्या व ब्रह्मयज्ञ भी है। दूसरा महायज्ञ व कर्तव्य वायु व जल की शुद्धि सहित ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हुए अग्निहोत्र वा देवयज्ञ का करना होता है। इससे मुख्यतः वायु व वर्षा जल की शुद्धि होकर रोगों का शमन होता है। खेतों में उत्तम अन्न उत्पन्न होता है। मनुष्य स्वस्थ एवं निरोग रहते हंै। अनेक रोग भी यज्ञ करने वाले मनुष्य के ठीक हो जाते हैं। इस यज्ञ को करने से हमारे पूर्वज ऋषियों की आज्ञाओं का पालन भी होता है और ऐसा करके इस यज्ञ का सुख रूपी फल हमें जन्म व जन्मान्तरों में परमात्मा की कृपा से प्राप्त होता है जिससे हम उन्नति करने के साथ मोक्षगामी होते हैं। 

तीसरा महायज्ञ पितृयज्ञ है जिसमें माता, पिता व परिवार के वृद्धों की सेवा व उनके भोजन, वस्त्र व निवास सहित रोगादि निवृत्ति में सहायक हुआ जाता है। पितृयज्ञ का यह भाव है कि माता-पिता वृद्ध जनों को मृत्यु पर्यन्त किसी प्रकार का कोई दुःख न हो। ऐसे सम्भावित दुःखों को दूर करने के लिए सभी सन्तानों वा पुत्रों को सदैव तत्पर रहना चाहिये। चैथा महायज्ञ अतिथि यज्ञ है। इसमें विद्वान उपदेशकों को जो घर में आते हैं उनका उचित रीति से पूर्ण श्रद्धा व सेवा भावना से आतिथ्य किया जाता है। उनको भोजन, वस्त्र तथा धन दिया जाता है और उनसे धर्म विषयक शंका समाधान करने सहित उपदेश श्रवण किया जाता है। पांचवा महायज्ञ बलिवैश्वदेवयज्ञ होता है। इस यज्ञ में हमें पशु व पक्षियों को अन्न व भोजन आदि प्रदान कर उनका सहायक बनना पड़ता है। यदि हम गाय, कुत्ते, कौवे आदि पक्षु व पक्षियों को रोटी व कुछ अन्न प्रदान करते हैं तो इससे यह कार्य हो जाता है। हमें पूर्ण अहिंसक रहकर इस यज्ञ को करना होता है। मांसाहार महापाप होता है। इसका परिणाम रोग व परजन्म में भीषण दुःख के रूप में सामने आता है। मांसाहार एवं पशु पक्षियों की उपेक्षा से हमारे कारण जो दुःख निर्दोष प्राणियों को मिलता है, उसको हमें जन्म जन्मान्तर में भोगना पड़ता है। अतः हमें तत्काल ही मांसाहार, मदिरापान, अण्डे आदि का सेवन तथा असत्य व्यवहार का त्याग कर देना चाहिये और शुद्ध शाकाहारी भोजन, दुग्ध व फलों आदि का सेवन करना चाहिये। इससे हम स्वस्थ व दीर्घायु को प्राप्त होंगे और सुखी होने सहित परजन्म में भी हमारी आत्मा व योनि परिवर्तन की दृष्टि से उन्नति को प्राप्त होगी, हमारी आत्मा की अवनति नहीं होगी। 

संसार में सभी मनुष्यों का धर्म एक ही है और वह है सत्कर्तव्यों का पालन तथा असत्कर्मों का सर्वथा त्याग। संसार में मनुष्यों द्वारा जो मत चलाये गये हैं वह धर्म नहीं अपितु मत, सम्प्रदाय आदि हैं। यह प्रायः सभी अविद्या से युक्त हैं। अविद्या से युक्त होने के कारण इनके अनुयायी सत्य धर्म व अपने सभी कर्तव्यों का उचित रीति से पालन नहीं कर पाते। ईश्वर की उपासना तथा यज्ञ की विधि का भी मत-मतान्तरों को भली प्रकार से ज्ञान नहीं है। यज्ञ करना बुद्धि से कर्तव्य सिद्ध होता है, फिर जो इस कर्म को नहीं करते उन्हें धार्मिक कैसे कहा जा सकता है। वह पूर्ण धार्मिक न होकर सीमित मात्रा में ही धार्मिक और जिस मात्रा में धर्म के कामों से दूर रहते हैं, उतनी मात्रा में उन्हें धर्म न करने वाला कहा जा सकता है। सब मनुष्यों को सभी कर्तव्यों को जानकर व उनका पालन करते हुए पूर्ण धार्मिक बनना चाहिये। धर्म के दस लक्षणों धृति,  क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य व अक्रोध को भी सभी मनुष्यों को जानना व इसे जीवन में धारण करना चाहिये। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here