हिन्द-प्रंशात क्षेत्र में भारत की भूमिका


दुलीचन्द रमन
समय बदलता है तो परिवर्तन हर जगह दिखाई देता है। अंतराष्ट्रीय संबंध भी इससे अछूते नही है। कभी विश्व स्तर पर अमेरिका और सोवियत संघ के रूप में शक्ति के दो केन्द्र थे। बाकी के देशों ने अपनी सुविधानुसार अपने-अपने पाले चुन लिये थे। संघर्ष का केन्द्र भी अमूमन यूरोप ही था। नाटो और वारसा संधियों के माध्यम से अपनी-अपनी टीमों को संगठित व मजबूत करने के प्रयास चलते रहते थे। लेकिन अब समय के साथ सब कुछ बदल चुका है। सोवियत संघ आज परिदृश्य से ओझल हो चुका है। वर्तमान में शक्ति के दो नये केन्द्र उभर चुके हैं। वे है अमेरिका और चीन तथा इनके संघर्ष का केन्द्र एशिया-प्रशांत क्षेत्र बनने जा रहा है जिसे अब हिन्द-प्रंशात क्षेत्र कहा जाने लगा है। अब इन शक्ति केन्द्रों की टीमों के निर्धारण का समय है। अमेरिका की तरफ से टीम पहले ही कुछ हद तक निश्चित है। लेकिन उसने भारत जैसे कुछ उभरते हुए खिलाड़ी भी अपनी टीम में लिये है। जबकि चीन ने वन बेल्ट वन रोड (ओ.बी.ओ.आर.) प्रोजेक्ट के माध्यम से अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया था जिसे सिर्फ भारत ने पकड़ा था। जिसकी प्रतिक्रिया में चीन डोकलाम क्षेत्र में आगे बढ़ा तथा अतंराष्ट्रीय स्तर पर अपनी किरकरी करवा बैठा।
दुनिया भर के देश चीन की नैतिकता और चरित्र को अच्छी तरह पहचानते है। इसलिए वे चीन की टीम की में सहर्ष नही आ रहे है। चीन के दो ही दोस्त है। उत्तर कोरिया और पाकिस्तान। उसके बारे में भी विश्व अच्छी तरह जानता है। इसलिए अपनी टीम को मजबूत करने के लिए वर्तमान में चीन का रवैया पुरानी हिन्दी फिल्मों के उस महाजन जैसा हो गया है जो जरूरतमंद गाँव वालों को मंहगे ब्याज पर कर्ज देता था और कर्ज न चुकाने की एवज में उसकी जमीन हथिया लेता था। 9 दिसंबर को भारत के पड़ोसी श्रीलंका के साथ यही हुआ। हब्बनटोटा में बदंरगाह के विकास के नाम पर श्रीलंका को हसीन सपने दिखाकर आठ बिलियन डालर महगें ब्याज पर कर्ज देकर अपनी सरकारी कंपनियों के माध्यम से चीन ने बंदरगाह निर्माण किया लेकिन श्रीलंका की स्थिति कर्ज वापिसी की नहीं थी क्योंकि इस बदंरगाह से श्रीलंका को कुछ भी फायदा नहीं हुआ। अब चीन ने इस बदंरगाह को 99 साल के लिए लीज़ पर ले लिया है। बदंरगाह के साथ-साथ इसके लगते सैंकड़ों एकड़ क्षेत्र पर भी चीन का अधिकार हो गया हैं। चीन यही रणनीति क्रमशः म्ंयामार, नेपाल, बंगला देश, सेसल्स, मालद्वीव, थाईलैड़ व मारिसिस जैसे देशों में अपना रहा है। तथाकथित विकास के नाम पर ऋण जाल में फंसाकर अपने पाले में करने की मानसिकता के साथ आगे बढ़ रहा है। चीन की इन देशों पर विशेष नज़र इसलिए भी है क्योंकि ये भारत के पड़ोसी देश है। इन्हीं के माध्यम से चीन भारत को घेरने की कोशिश में लगा है।
इन सब परिस्थितियों के लिए कुछ हद तक भारतीय राजनय भी जिम्मेदार है। म्ंयमार में आन-शान सूची से पहले सैनिक सरकार के साथ हमने वर्षो तक संबंधों में स्थिलिता बरती, जिस मालद्वीव को हमने सैनिक तख्तापलट से बचाया था आज वही चीन की गोद में बैठने को तैयार बैठा है। जिस बंगलादेश के निर्माण मंे हमारे सैनिकों ने शहादत दी वहीं आज चीन के साथ खड़ा नज़र आता है। श्रीलंका में भी हम तमिलों के मुद्दे को ठीक से नहीं संभाल सके और अपने हाथ जला बैठे तथा श्रीलंका को भी विदेशी हाथों में खेलने का मौका मिल गया।
वर्तमान में चीन की स्थिति ”क्षेत्रिय गुण्डे“ जैसी हो गयी है जो किसी पंचायत की भी नहीं सुनता। फिलिपिन्स द्वारा अतंराष्ट्रीय न्यायालय में दायर याचिका पर चीन के खिलाफ निर्णय आने पर भी वह दक्षिणी चीन सागर पर अपना अधिपत्य छोड़ने को तैयार नहीं है। चीन वहां कृृत्रिम द्वीप बनाकर उस क्षेत्र के व्यापारिक और सैन्य समीकरण बदलने को तैयार बैठा है। जापान और इंडोनेशिया भी इस क्षेत्र में चीन की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ है। इंडोनेशिया तो बतूना द्वीप के मामले को अतंराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाने के लिए तैयार बैठा है। एक चीनी एडमिरल ने कहा था कि हिन्द महासागर सिर्फ हिन्दुस्तान का नहीं है। यह बात चीन पर भी लागू होती है कि दक्षिणी चीन सागर सिर्फ चीन का नही है। पिछले दिनों मारीसिस में आयोजित आसियान सम्मलेन में चीन की विस्तारवादी नीतियों का मामला प्रमुखता से उठा लेकिन चेयरमैन के भाषण से दक्षिणी चीन सागर का मुद््दा हटा दिया गया। यह चीन की दबाव की नीति का ही उदाहरण है।
विश्व का यह दोतरफा सैन्य ध्रुवीकरण अपने अंजाम तक पंहुचता इससे पहले ही उत्तर कोरिया मैदान में कूद गया। जिससे इस ध्रवीकरण की भूमिका अमेरिका द्वारा फिर से लिखी जाने लगी है। चीन चूंकि उत्तर कोरिया में दखल रखता है इसलिए चीन को साथ लिए बिना उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग को साधा नहीं जा सकता। कभी चीन विरोधी लहर पर सवार होकर चुनाव जीतने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प आज एक तरफ तो भारत, जापान व आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर चीन को घेरने की रणनीति बनाता है तो दूसरी तरफ अमेरिकीयों की नौकरी का इंतजाम चीनी निवेश के माध्यम से करने की जुगत भिड़ा रहे है।
भारत की पीठ पर अमेरिकी हाथ तो है लेकिन हमें अपने कदमों पर ही भरोसा रखना होगा तथा अपनी सार्मथ्यनुसार ही फैसले लेने होंगे। अफगानिस्तान से अमेरिका अपनी सेनाओं को हटाने के बहाने तलाश रहा है। वह चाहता है कि भारत अफगानिस्तान में ज्यादा निर्णायक भूमिका अदा करें लेकिन भारत अफगानिस्तान में मानवीय आधार पर ही कूटनीतिक दखल रख रहा है। इसके लिए उसने इरान की चाहबार बंदरगाह को विकसित किया है। जिससे अफगानिस्तान तथा मध्य-एशिया के देशों तक उसकी सीधी पंहुच हो सके। भारत से पिछले दिनों चाहवार के रास्ते अफगानिस्तान के लिए गेहूँ की पहली खेप भेजी जा चुकी है। जिसमें पाकिस्तान अभी तक कई प्रकार के अवरोध उत्पन्न करता था। क्योंकि यह सप्लाई पाकिस्तान के रास्ते होती थी। इससे इरान की आर्थिक प्रतिबंधों से जुझ रही अर्थव्यवस्था को भी कुछ सहारा मिलेगा। चाहवार के माध्यम से पाकिस्तानी बंदरगाह ग्वादर में चीनी दखल को भी घेरने का कार्य किया जा सकेगा। अरब देशों से भारत में कच्चे तेल के आयात की आपूर्ति भी सुनिश्चित की जा सकेगी।
यहाँ यह स्पष्ट है कि भविष्य में सैन्य अभियानों में समुद्री ताकत एक निर्णायक भूमिका अदा करेगी। बात चाहे अरब सागर की हो, हिन्द महासागर या हिन्द प्रशांत क्षेत्र की। भारत अपनी नौसेना को मजबूत बनाने की दिशा में कार्य कर रहा है। पनडुब्बियों युद्वक नौसैनिक जहाजों व इन क्षेत्रों में टोही रेडारों के माध्यम से अपनी समुद्री सीमा तथा इस क्षेत्र मे होंने वाले व्यापार को भी सुरक्षित रख सकता है। भविष्य में गहरे समुद्र में खनन की भी रक्षा के लिए हमें अतिरिक्त एक लाख करोड़ रूपये की जरूरत पड़ेगी। जल्दी ही कई पनडुब्बियों व युद्वपोत हमारे नौसैनिक बोर्ड में शामिल होने जा रहे है।
यह भी एक सच्चाई है कि आज विदेश नीति का दबदबा आर्थिक विकास तय करता है। हर देश अपना हित चाहता है तो भारत एंकाकी बनकर विश्व में अपनी पहचान नहीं बना सकता। हमें अपने पड़ोसी नेपाल, भूटान, म्यंामार, बंगलादेश, श्रीलंका, मालद्वीप, थाईलैंड़, अफगानिस्तान को भी साथ लेकर चलना होगा ताकि वे ड्रेगन के ऋण जाल में न फंसे व अपने यहां भारतीय हितों के खिलाफ षंड़यत्र न होने दे।
पाकिस्तान अभी तक अमेरिका का प्यारा बच्चा था जिसे वह दक्षिण एशिया में अपने लिए इस्तेमाल करता था। अमेरिका से उसे धमकियां व अनुदान दोनों मिलता था। 9/11 तथा ओसामा बिन लादेन के बाद सिर्फ धमकियाँ ही मिल रही थी तो वह अनुदान के लिए चीन की गोद में जा बैठा। लेकिन पाकिस्तानी अर्थशासत्री भी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपैक) के बहाने चीनी खतरे के प्रति स्थानीय सरकार को आगाह कर रहे है। चीन ने भी सीपैक में भ्रष्टाचार को लेकर तीन परियोजनाओ की फंडिग रोक कर पाकिस्तान को हैरान कर दिया है। चीन के वन बेल्ट वन रोड का सपना साकार होगा इसमें बहुत संदेह है। चीन के ओ.बी.ओ.आर को टक्कर देने के लिए भारत जापान के साथ मिलकर एक्ट ईस्ट पाॅलिसी पर काम कर रहा है। दिसंबर माह मे आसियान इंडिया कनेक्टिविटी समिट का आयोजन हो रहा है जिसमें आसियान देशों के साथ जापान भी शामिल होगा। इस समिति का उद्देश्य दक्षिणी-पूर्व एशिया में आर्थिक और औद्योगिक रिश्तों को मजबूत करने पर बल दिया जा रहा है। इस प्रोजेक्ट के माध्यम से भारत ने चीन के ओ.बी.ओ.आर को काउंटर बैलस करने की रणनीति अपनायी है।
भारत को इस बदलते परिदृश्य में इस क्षेत्र में एक वैकल्पिक रक्षा तंत्र तैयार करना होगा जिससे अपने दूरगामी व्यापारिक रणनीतिक व राजनीतिक हितों की रक्षा की जा सके। क्योंकि विश्व का शक्ति-संघर्ष भारत के आंगन में आ चुका है और अब मूकदर्शक बनने का समय नही रहा।

 

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